न्यूनतम वेतन अधिनियम (Minimum Wage Law)

Afeias
22 Sep 2016
A+ A-

Date : 22-09-16

imagesTo Download Click Here

सितंम्बर 2016 को मजदूर संघों की हड़ताल को मद्देनजर रखते हुए सरकार ने अकुशल तथा गैर-कृषि मजदूरों की न्यूनतम मजूदरी 246 रुपये प्रतिदिन से बढ़ाकर 350 रु. प्रतिदिन या 9100 रुपये प्रति माह कर दिया है। इस बढ़ोत्तरी को अपर्यात बताते हुए सभी मजूदर संघों ने इसका विरोध किया।

  • आखिर न्यूनतम मजूदरी का पैमाना क्या होना चाहिए, इस पर काफी लंबे समय से बहस जारी है।
  • न्यूनतम वेतन अधिनियम (Minimum Wages law) स्वतंत्र भारत के सबसे प्रारंभिक कानूनों में से एक है, जिसे 1948 में ही संविधान के लागू होने से पहले बना लिया गया था।
  • सन् 1948 में उचित मजूदरी तय करने के लिए त्रिपक्षीय समिति बनाई गई थी। इस समिति ने मजदूरी या वेतन को तीन श्रेणी में बांटा था-

(1) जीने के लिए मजदूरी

(2) उचित मजदूरी तथा

(3) न्यूनतम मजदूरी।

  • जीवन जीने योग्य मजदूरी का अर्थ था, जिसमें मजूदर अपनी मूलभूत तीन आवश्यकताओं के साथ स्वास्थ्य एवं बुढ़ापे के लिए भी सुरक्षा प्राप्त कर सके। उचित मजदूरी पहले वाले से कम थी। न्यूनतम मजदूरी सबसे कम थी, और इसका एक संवैधानिक पक्ष भी था।
  • आज राष्ट्रवादी नीति निर्धारकों एवं बड़े व्यापारियों में इस बात पर आम सहमति है कि भारत में श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी पर विचार किया जाना चाहिए। लेकिन यह कितनी हो, इस पर एकमत होना अभी शेष है।
  • कई बार यह भी सवाल उठे हैं कि क्या भारत में न्यूनतम मजदूरी तय करने की आवश्यकता है?
  • इस बात को खारिज करने के लिए एक तर्क यह दिया जाता है कि उदारीकरण के दौर में सरकार की बजाय बाजार को न्यूनतम मजदूरी तय करने का अधिकार होना चाहिए। इससे दक्षता और प्रतियोगिता; दोनों ही बढ़ेंगे।
  • न्यूनतम मजदूरी की बात को यह कहकर भी नकारा जाता है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के ‘मेक-इन-इंडिया’ के नारे के लिए यह उचित नहीं है। मेक-इन-इंडिया’ का सपना पूरा करने के लिए बांग्ला देश, श्रीलंका तथा कंबोडिया जैसे देशों की अपेक्षा भारत में मजूदरी का कम होना बहुत जरूरी है। हाल में चीन में मजदूरी बढ़ने के कारण वहाँ के कपड़ा एवं चमड़ा उद्योग बांग्ला देश और कंबोडिया जैसे उन देशों में जा रहे हैं, जहाँ मजूदरी कम है।
  • अर्थशास्त्री इसकी सार्थकता न देखते हुए न्यूनतम मजूदरी अधिनियम को ही खत्म करने की बात करते हैं। उनका कहना है कि जब भारत अभी तक 1970 के संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के न्यूनतम मजूदरी संबंधी दिशानिर्देशों को लागू नहीं कर पाया है, तो फिर इस अधिनियम को बनाए रखने का क्या लाभ है?

सच्चाई यह है कि इस अधिनियम को भले ही किसी सरकार ने गंभीरता से न लिया हो परंतु किसी सरकार ने इसे रद्द करने की हिम्मत भी नहीं दिखाई है।

भारतीय मजूदर संघ के ए.के. पद्मनाभ का कहना है कि ‘अगर सरकार अनुबंधित श्रमिकों का सचमुच में हित चाहती है, तो उसे न्यूनतम मजदूरी अधिनियम में संशोधन करके नियमित एवं अनुबंधित श्रमिकों के वेतन में समानता लानी होगी।’

सरकार चाहे तो न्यूनतम मजदूरी की दर को तय करने लिए एक सुधार प्रस्ताव ला सकती है। उम्मीद है कि यह आम सहमति से पारित भी हो जायेगा। इससे अनुबंधित श्रमिकों की दशा में निश्चित रूप से सुधार होगा।

द हिंदू में जी सम्पत के लेख पर आधारित।

Subscribe Our Newsletter