भारत में गरीबी मापने का आधार

Afeias
22 Sep 2023
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भारत में गरीबी का अनुमान लगाने के लिए आय या उपभोग के स्तर को देखा जाता है। यदि आय या खपत किसी दिए गए न्यूनतम स्तर से नीचे आती है, तो परिवार को गरीबी रेखा से नीचे कहा जाता है। भारत में यह आकलन अब नीति आयोग की टास्क फोर्स करती है। सांख्यिकी कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के माध्यम से राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय आंकड़े इकट्ठे करता है। इस आधार पर गणना की जाती है।

विश्व स्तर पर गरीबी का अनुमान बहुआयामी स्तर पर लगाया जाता है। इसे ‘मल्टी-डायमेन्शनल पावर्टी’ भी कहा जाता है। यह प्रत्यक्ष रूप से किसी व्यक्ति के जीवन और कल्याण को प्रभावित करने वाले स्वास्थ्य, शिक्षा एवं जीवन-स्तर के परस्पर संबंधित अभावों को मापता है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (ओपीएचआई) वैश्विक स्तर पर बहुआयामी गरीबी की गणना करके एक सूचकांक जारी करता है।

गरीबी के वर्तमान आंकड़ों पर कुछ बिंदु –

  • नीति आयोग ने भारत की बहुआयामी गरीबी पर रिपोर्ट जारी की है। इसमें गरीबी का स्तर 2015-16 के 25% से गिरकर 2019-21 में 15% रह गया है। इसका अर्थ है कि इस काल में लगभग 5 करोड़ लोग गरीबी रेखा से ऊपर आए हैं।
  • यूएनडीपी की रिपोर्ट भी लगभग ऐसा ही अनुमान देती है। इसके सूचकांक में गरीबी का स्तर 2015-16 के 27.5% से गिरकर 2019-21 में 16.2% रह गया है।

गरीबी मापने का कौन सा तरीका उपयुक्त है –

  • 2018 की बहुआयामी गरीबी सूचकांक की वैश्विक रिपोर्ट कहती है कि भारत में 2005/06 और 2015/16 के बीच गरीबी 27.5% कम हुई। इसके अनुसार 27.1 करोड़ से अधिक लोग गरीबी से ऊपर उठे।
  • जबकि तेंदुलकर समिति की पद्धति पर आधारित उपभोक्ता व्यय के आधार पर 2004/05 और 2011/12 के बीच 13.7 करोड़ लोग ही गरीबी से बाहर निकले हैं। इसमें जनसंख्या वृद्धि को भी ध्यान में रखा गया है।
  • रंगराजन समिति की पद्धति के अनुसार 2009/10 और 2011/12 के बीच 9.2 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आए। इसका अर्थ है कि एक वर्ष में 4.6 करोड़ गरीबी रेखा से ऊपर उठे। इस हिसाब से वैश्विक बहुआयामी सूचकांक के आंकड़ों की तुलना में एक दशक में गरीबी से बाहर निकलने वाले ज्यादा रहे।

तेंदुलकर और रंगराजन समिति की पद्धति पर आधारित गरीबी अनुपात, वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक के अनुमान से कम है।

  • गरीबी मापने की पद्धति की समीक्षा करने वाले विशेषज्ञ समूह (2014) ने बहुआयामी संकेतकों का उपयोग करने पर आपत्ति जताई है, क्योंकि इनमें मापनीयता (मेजरिबिलिटी), संकेतकों के एकत्रीकरण और अन्य डेटाबेस; जो बहुत कम अंतराल पर जानकारी देते हैं, के साथ कुछ समस्या ये आती हैं, जैसे कि बाल मृत्यु दर संकेतक जनसंख्या समूह के स्तर पर देखा जाता है, परिवार के स्तर पर नहीं। जबकि पीने के साफ पानी को परिवार के स्तर पर देखा जाता है। अतः बहुआयामी संकेतकों को सूचकांक के स्तर पर ले जाने में अनेक समस्याएं हैं, क्योंकि वे अलग-अलग रूप से एकत्र किए जाते हैं।
  • अतः गरीबी को आय के संदर्भ में ही देखा जाना उचित है। अगर इससे संबंधित डेटा उपलब्ध नहीं हैं, तो इसे व्यय या उपभोग से जोड़कर देखा जाना चाहिए। अधिकांश देशों में यही पद्धति अपनाई जाती है।

दुर्भाग्यवश, हमारे पास 2011-12 के बाद से उपभोग आधारित गरीबी से जुड़े आधिकारिक डेटा नहीं हैं। इसलिए हम बहुआयामी गरीबी सूचकांक से उनकी तुलना नहीं कर सकते हैं। इसके अभाव में सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी और पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे के डेटा से गरीबी का मापन किया गया है।

उपभोग-आधारित गरीबी का सर्वेक्षण जारी है। वैश्विक सूचकांक से तुलना के लिए उसकी प्रतीक्षा करनी होगी। यहाँ एक महत्वपूर्ण मुद्दा नेशनल अकांउट्स स्टेटिस्टिक्स (एनएएस) और नेशनल स्टैटिस्टिकल सिस्टम (एनएसएस) के बीच बढ़ता आंकड़ों का अंतर है। 1970 में यह अंतर जहाँ 10% था, वह 2011-12 में बढ़कर 53.1% हो गया था। इस मुद्दे को सुलझाया जाना चाहिए। इसके अलावा, विभिन्न वर्गों के स्वास्थ्य और शिक्षा पर व्यय के प्रभावों के अध्ययन के उपभोग-सर्वेक्षण के परिणामों के साथ पूरक के रूप में उपयोग में लाया जाना चाहिए।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित लेख पर आधारित। 16 अगस्त, 2023