सोशल ऑडिट को शक्तिशाली बनाया जाए

Afeias
29 Jan 2019
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Date:29-01-19

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हाल ही में अकांउटेंट जनरल  के एक अधिवेशन में राष्ट्रपति कोविंद ने कहा था कि, ‘‘एक अच्छा लेखा परीक्षक (ऑडिटर), एक अच्छा श्रोता होता है।’’ यह तभी संभव हो सकता है, जब भारत में लेखा परीक्षा को प्रजातांत्रिक जड़ों से वापस जोड़ दिया जाए, और उसे अपेक्षित स्थान दिया जाए। ऐसा होने पर ही सोशल ऑडिट औपचारिक ऑडिट प्रक्रिया का एक आंतरिक और मजबूत भाग बन सकेगा।

सोशल ऑडिट यह बताते हैं कि योजना के क्रियान्वयन और सामाजिक कार्यक्रमों की देखरेख में लोगों की भागीदारी का कितना सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसके कारण ग्राम सभा की भूमिका में बहुत परिवर्तन आ गया है।

सोशल ऑडिट  की शुरूआत 2005 में मनरेगा (महात्मा गांधी नेशनल रूरल एंप्लायमेंट गारंटी एक्ट) के द्वारा की गई थी। संसद, उच्चतम न्यायालय और अनेक मंत्रालयों ने क्रमशः इसे अन्य क्षेत्रों में भी विस्तृत कर दिया है। विभिन्न क्षेत्रों में इनकी सार्थकता को जांचने-परखने का काम, राष्ट्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय और पंचायती राज ने किया है। इस अध्ययन में सोशल ऑडिट से जुड़ी कुछ कमियां दिखाई दी हैं।

  • अधिकांश सोशल ऑडिट यूनिट स्वतंत्र नहीं हैं, जबकि ऑडिट की सफलता ऑडिट एजेंसी की स्वतंत्रता पर बहुत कुछ निर्भर करती है।
  • कुछ ऑडिट इकाइयों को निधि के खर्च से पहले कार्यान्वयन एजेंसी से स्वीकृति लेनी पड़ती है।
  • आधे से अधिक राज्यों ने इकाइयों के निदेशकों की नियुक्ति के लिए निर्दिष्ट प्रक्रिया के मानकों को नहीं अपनाया है।
  • कुछ राज्यों ने थोड़े-बहुत ही ऑडिट करवाए हैं। कुछ ने तो बिल्कुल भी नहीं करवाए हैं। कुछ राज्यों के पास इतने कर्मचारी ही नहीं हैं कि वे वर्ष में एक बार सभी पंचायतों का ऑडिट करवा सकें।
  • 2016-17 और 2017-18 की अवधि में केवल 13 इकाइयों ने शिकायतें दर्ज कीं या अनियमितताओं को रेखांकित किया। इनमें 281 करोड़ रुपयों के गबन का भी खुलासा हुआ है।

सोशल ऑडिट के इस खुलासे पर राज्य सरकार की कार्यवाही बहुत ढीली रही है, और अभी तक केवल 7 प्रतिशत धन ही बरामद किया जा सका है। मात्र 14 प्रतिशत शिकायतों को संज्ञान में लिया गया है। इस प्रकार की अनियमितताओं में लिप्त लोगों के विरूद्ध कोई कार्यवाही भी नहीं की गई है।

क्या किया जाना चाहिए?

  • 2017 में उच्चतम न्यायाल ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के लिए सोशल ऑडिट को अनिवार्य कर दिया है। इसके लिए मनरेगा की सोशल ऑडिट इकाई को ही भार सौंपा गया है। परन्तु निधि की कमी से यह सोशल ऑडिट शुरू नहीं हो सकी है। इसके लिए उपभोक्ता मामलों से जुड़े मंत्रालय को आगे आना चाहिए।
  • सोशल ऑडिट इकाइयों के पास एक स्वतंत्र संचालक मंडल होना चाहिए। पर्याप्त कर्मचारी होने चाहिए। नियम बनाए जाने चाहिए, जिससे कि क्रियान्वयन एजेंसियों को तुरन्त कार्यवाही करने में सहायता मिल सके। रियल टाइम मैनेजमेंट इंफार्मेशन सिस्टम बनाया जाए। इसमें सोशल ऑडिट इकाई द्वारा दर्ज शिकायत; की गई कार्यवाही और उससे जुड़ी रिपोर्ट हो। इसे सार्वजनिक भी किया जाए।
  • विस्तार के साथ ही नए कार्यक्रमों से जुड़ी सलाह लेने के लिए सोशल ऑडिट इकाइयों के पास सुविधा होनी चाहिए। राष्ट्रपति के संदेश में बहुत ही सार्थक बातें कही गईं कि, ‘‘किसी कार्यक्रम के अंतर्गत धनराशि के आवंटन और लाभार्थी तक उसके पहुंचने की जांच-परख का काम लाभार्थियों द्वारा ही किया जाना चाहिए। इस स्थिति में, एक संस्था के रूप में कैग की सहायता ली जा सकती है। यह संस्था स्थानीय जनता और राज्य ऑडिट सोसायटी को प्रशिक्षित कर सकता है। साथ ही ऑडिट की क्षमता बढ़ाने, दिशा-निर्देशों को जारी करने, और कार्यप्रणाली एवं रिपोर्टिंग के बारे में बहुत कुछ सिखा सकता है।

द हिन्दूमें प्रकाशित करुणा एम. और सी. धीरजा के लेख पर आधारित। 18 दिसम्बर, 2018