समानता के उद्देश्य की रक्षा करती हुई आरक्षण व्यवस्था

Afeias
12 May 2020
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Date:12-05-20

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आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा अनुसूचित रिजर्व क्षेत्र में अनुसूचित जनजाति के शिक्षकों के लिए 100 प्रतिशत आरक्षण के मामले को उच्चतम न्यायालय द्वारा खारिज किया जाना, संविधान में बसी समानता की भावना का समर्थन करता है। न्यायालय का यह फैसला वंचित वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने जैसे सकारात्मक कार्यक्रमों के खिलाफ नहीं है। परन्तु यह समाज के बाकी वर्गों के लिए हानिकारक तरीके से उन्हें लागू करने के विरूद्ध सावधान करता है।

पांच जजों वाली संविधान पीठ ने पाया कि संविधान की पांचवी अनुसूची के तहत अधिसूचित क्षेत्रों में शिक्षक के पदों ने उस क्षेत्र के न केवल अनुसूचित जाति, बल्कि अन्य पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों के रोजगार की संभावना पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाला है। दरअसल, ऐसा करने के पीछे राज्य सरकार के अपने कुछ तर्क रहे हैं, जिन्हें जानने-समझने की आवश्यकता है।

  • राज्य सरकार ने अपने 1986 और उसके बाद 2000 के आदेश में औचित्यपूर्ण तरीके से ही सब किया था। सरकार ने शिक्षकों की अनुपस्थिति का लंबा इतिहास देखा था। इसका कारण यही था कि ये शिक्षक उन क्षेत्रों के नहीं थे, जहाँ स्कूल स्थित थे।

इस संदर्भ में लिये गये राज्य सरकार के निर्णय को, इसके समाधान का उत्तम मार्ग नहीं माना जा सकता। उसे चाहिए था कि वह अनेकानेक प्रोत्साहनों के साथ शिक्षकों की उपस्थिति को सुनिश्चित करती।

  • आंध्रप्रदेश में, लोक सेवाओं की भर्ती की एक स्थानीय प्रणाली है। अनुच्छेद-372डी के तहत राष्ट्रपति का आदेश है कि एक जिले / क्षेत्र का निवासी नियुक्ति के लिए दूसरे जिले / क्षेत्र में आवेदन नहीं कर सकता है।

राज्य सरकार के 100 प्रतिशत आरक्षण कर देने से अधिसूचित क्षेत्र के अन्य रहवासी शिक्षण पदों के लिए आवेदन करने से वंचित ही रह जाएंगे।

खुली प्रतिस्पर्धा के लिए दरवाजों को खुला न छोड़ने से सकारात्मक कार्यक्रम अपना अर्थ ही खो देते हैं। न्यायालय के 50 प्रतिशत आरक्षण की अधिकतम सीमा वाले आदेश के पक्ष में अक्सर इस बिन्दु को दलील के रूप में लिया जाता है। आज भी यह बहस का विषय है कि अधिकतम सीमा उचित है या अनुचित। यह स्पष्ट है कि केवल विशिष्ट मामलों में ही इसे भंग किया जा सकता है। इस प्रकार की बहस को अनुसूचित जनजाति के लिए कोटे की उपयोगिता से जोड़कर उसे विकृत नहीं करना चाहिए। इस पृष्ठभूमि में, यह कुछ हद तक निराशाजनक है कि न्यायालय कुछ द्विअर्थी रिकॉर्ड का हवाला देते हुए अनूसचित जाति / जनजाति की सूची में संशोधन की वकालत करने लगते हैं। राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित सूची में कोई संशोधन विवाद का विषय ही नहीं है। इन आधारों पर आरक्षण की सार्थकता को खत्म करने की दृष्टि से भारतीय समाज अभी बहुत दूर है।

समाचार पत्र पर आधारित।

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