गांवों की प्रासंगिकता आज भी है

Afeias
13 May 2020
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Date:13-05-20

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लंबे समय से , एक दृष्टिकोण-सा बन गया है कि सार्वजनिक निवेश के लिए गांव अधिक व्यवहार्य नहीं हैं। इसके समर्थन में सामान्य से तर्क दिए जाने लगे, और लोग ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर प्रवास करने लगे। इन तर्कों में नगरों में मिलने वाली 24 घंटे पानी और बिजली की सुविधा प्रमुख थी। साथ ही नगरों में रोजगार की संभावना भी अधिक थी। इस प्रकार की सोच को अकादमिक समर्थन भी मिलता रहा।

आधुनिकीकरण , समाजिक सिद्धांत का एक प्रमुख प्रतिमान था जिसमें बड़े शहरों में झुग्गी-बस्तियों के विकास और इससे जुड़ी गांवों में युवा वर्ग की कमी में कुछ भी गलत नहीं देखा गया था। कुछ समाजविज्ञानियों ने यह घोषणा भी कर दी कि जिस गाँव को हम ऐतिहासिक तौर पर जानते रहे हैं , वे विलुप्त हो रहे हैं। उन्होंने तर्क दिया कि ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका का मुख्य साधन कृषि , अब युवाओं को आकर्षित नहीं कर पा रहा है। हस्तशिल्प भी खत्म हो रहे हैं , क्योंकि शिल्पकारों को सरकार का पर्याप्त सहयोग नहीं मिल पा रहा है। बाजारउन्मुख आर्थिक सुधारों के युग में तो केवल वे ही चल पाएए जिन्हें सहारा मिला।

इस तरह के सभी तर्क और डेटा, जो ग्रामीण जनता के शहरों की ओर प्रवास को प्रोत्साहित करते थे। आर्थिक विकास के दौरान भारत जैसे देश में ऐसा होना सामान्य-सा था। विद्यार्थियों को पढ़ाया जाने लगा कि ग्रामीण आजीविका में कमी की प्रक्रिया वैश्विक स्तर पर चल रही है, इसलिए भारत में भी इसे रोका नहीं जा सकता।

ऐसी नियति को मान लेने का अर्थ है कि हम हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहें। कल्याणकारी सरकार का कर्त्तव्य है कि वह जनता की पीड़ा को कम करने के उपाय करे। ग्रामीण जनता की आर्थिक दुर्दशा को देखते हुए सरकार चाहती तो उनके भोजन, साक्षरता और रोग-नियंत्रण से संबंधित सुरक्षा कवच दे सकती थी।

असंतुलन / अनदेखा

इस ढांचे में शिक्षा और स्वास्थ जैसे प्रत्येक क्षेत्र में चुनाव-संबंधी फंडिंग को वैध बना लिया गया , परन्तु गाँवों में किसी प्रकार का सार्वजनिक निवेश नहीं हुआ। चिकित्सकीय शिक्षा और टीचर ट्रेनिंग के बढ़ते निजीकरण के बावजूद गाँवों में काम करने वाले योग्य डॉक्टरों और शिक्षकों की कमी बनी रही। सैद्धांतिक रूप से चलाए गए आर्थिक सुधारों को सरकार दर सरकार चलाया जाता रहा, लेकिन इस पर कोई मतभेद या दूरगामी विचार को कोई स्थान नहीं मिला। कल्याणकारी राज्य का एक दिखावा होता रहा। इसके अंतर्गत ग्रामों में कुछ मूलभूत सुविधाओं का विस्तार होता रहा। इसका उद्देश्य सिर्फ निर्धनों को उलझाकर रखना भर था।

कोविड.19 के दौरान शहर में आ बसे श्रमिकों की सपरिवार घर वापसी की तस्वीरें नीतिगत परिदृश्य का ही बखान करती हैं। इसके एक ओर आशंका और भय है। दूसरी ओर ये तस्वीरें, इन श्रमिकों की व्यथा को समझने में नीति-निर्माताओं की असफलता को व्यक्त करती हैं। जिस शहर में रहते इन्हें वर्षों हो गए थे, वही शहर आज इन्हें सुरक्षा देने में नाकाम रहा है।

नीति-निर्माताओं को तो शायद नए शहरी ढांचे में दृश्ता का बोध भी नहीं रहा है। यही कारण है कि लॉकडाउन से पहले उनके बारे में तब तक नहीं सोचा गया, जब तक वे हाईवे पर दिखाई नहीं दिए।

पुरानी बहस

नोवल कोरोना वायरस ने हमारे सामाजिक-आर्थिक ढांचे की अधारणीयता को प्रदर्शित कर दिया है। इसमें अनके तीक्ष्ण क्षेत्रीय विसंगतियां हैं। अब वायरस अटैक के पूर्व के संसार के गठन के लिए हम चाहे जितने भी प्रयास करेंए उसे धारणीय नहीं बनाया जा सकता।

एक समय था, जब भारतीय ग्रामीण समाज की प्रकृति बहस का एक विषय हुआ करती थी। उसके आंतरिक स्वरूप पर भी चर्चा की जाती थी। अब ऐसी चर्चाएं प्रासंगिक नहीं रह गई हैं। परन्तु ये गाँव उन सभी असंख्य श्रमिकों के लिए प्रासंगिक हैं, जो शहरों में रहने लगे हैं। शैक्षणिक अर्थ में ग्राम को परिभाषित करने की समस्या समाप्त हो गई है। परन्तु इसके अस्तित्वगत वास्तविकता ने अपने को बनाए रखा है। हमें इस वास्तविकता को अपनाने की जरूरत है। अगर हम ऐसा कर पाए, तभी हम नीतियों की उन समस्याओं को भी समझ पाएंगे ,जो हमारे गांवों के अधिकारों को स्थापित करने में नाकाम रही हैं। उन्हें आजीविका के नए तरीकों को पाने का अधिकार है। वे स्वास्थ्य और शिक्षा प्रणालियों के भी हकदार हैं। इस दिशा में पहल, शहर और गाँव दोनों को ही अधिक टिकाऊ और सक्षम बनाएगी। इस प्रकार से वे वर्तमान में जूझ रहे संकट का सामना करने में समर्थ रहेंगे।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित कृष्ण कुमार के लेख पर आधारित। 23 अप्रैल 2020

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