सशक्त जातियों के आरक्षण की गुत्थी में उलझती सरकार

Afeias
14 Aug 2019
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Date:14-08-19

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हमारे देश और समाज में ‘पिछड़ा’ या बैकवर्ड कहा जाना उपनिवेशकालीन देन है। इससे हम आज अपना चेहरा बनाने के लिए आंदोलन पर उतर आते हैं। यह भूल जाते हैं कि इसका वास्तविक अभिप्राय क्या है। यह कथन उन भू-स्वामी, आर्थिक और सामाजिक रूप से प्रभुत्व रखने वाली जातियों के लिए खरा उतरता है, जो अपने को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों में गिने जाने हेतु संघर्ष कर रही हैं। इनमें महाराष्ट्र के मराठा, हरियाणा के जाट, गुजरात के पाटीदार और आंध्रप्रदेश के कापू आदि आते हैं।

उच्च शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण की मांग करने के पीछे एक बहुत बड़ा कारण यह है कि ये जातियां कृषि संकट की चपेट में हैं, और अपने युवाओं के भविष्य को अच्छी नौकरियों या आय के अन्य स्रोतों से सुरक्षित करना चाहती हैं।

यह एक भ्रामक सत्य है कि कोटा से अच्छी नौकरियां प्राप्त की जा सकती हैं। यह सत्य भी है, तो समाज में हर किसी को एक प्रतिष्ठित नौकरी की आवश्यकता है। अतः कोटा की मांग रखने वालों को कुछ पैमानों पर जाँचा जाना जरूरी है। इस हेतु कुछ आधारों पर मराठाओं, जाटों और पाटीदारों की ब्राह्मणों, गैर-ब्राह्मण अग्रजातियों, अन्य पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जाति-जनजाति से तुलना करते हुए एक सर्वेक्षण किया गया, जिसके नतीजे परस्पर विरोधी दिखाई देते हैं।

1. अपने-अपने क्षेत्रों में मराठाओं, जाटों और पटेलों के पास अन्य सामाजिक वर्गों की तुलना में अधिक खेती है।

2.महाराष्ट्र के ब्राह्मणों की तुलना में मराठाओं की प्रतिव्यक्ति आय कम है, परन्तु अन्य अग्र और पिछड़ी जातियों के बराबर है। अनुसूचित जाति-जनजाति से अधिक है।

3.गरीबी की दृष्टि से मराठा, ब्राह्मणों एवं अन्य अग्र जातियों के बराबर हैं। अन्य पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जाति-जनजातियों से श्रेष्ठ हैं।

4.अनुसूचित जाति-जनजातियों की तुलना में मराठाओं के अधिक घरों में बिजली है।

5.अन्य पिछड़ी जातियों तथा अनुसूचित जाति-जनजातियों की तुलना में 6-14 प्रतिशत अधिक मराठाओं को तैयार शौचालयों की सुविधा है।

6.शिक्षा में भी इन्होंने बाजी मार ली है। ब्राह्मणों, अन्य पिछड़ी, अनुसूचित जाति-जनजाति की तुलना में इन्हें शिक्षा के ज्यादा वर्ष मिलते हैं। ब्राह्मणों के 12 वर्ष की शिक्षा की तुलना में ये शिक्षा के वर्ष पूरे नहीं करते, लेकिन अन्य अग्र जातियों के बराबर माने जा सकते हैं।

अनेक सामाजिक-आर्थिक पैमानों पर मराठाओं को ब्राह्मणों के बाद रखा जा सकता है। अपने राज्य के अन्य सामाजिक वर्गों की तुलना में इनकी स्थिति बहुत अच्छी कही जा सकती है।

7. आरक्षण का मुख्य मुद्दा सरकारी नौकरियां हैं। हैरान करने वाली बात यह है कि मराठाओं को पहले ही ब्राह्मणों के बराबर, अन्य अग्र जातियों एवं पिछड़ी जातियों से अधिक सरकारी नौकरियां प्राप्त हैं।

8. प्रति व्यक्ति औसत व्यय की दृष्टि से समय के साथ इन आरक्षण की मांग करने वाले वर्गों की स्थिति अच्छी हुई है। भू-स्वामित्व या खेती के मामले में इन वर्गों में कमी आई है। यह इनके आक्रोश का कारण हो सकता है।

कृषि पर निर्भर समुदायों में भी असंतोष बढ़ रहा है। इसका कारण ये मानते हैं कि वास्तविक आर्थिक शक्ति कार्पोरेशन और सरकार के हाथों में जाती जा रही है। ये समुदाय शहरी एवं औपचारिक क्षेत्र की आजीविका को अपनाने के लिए अभी मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं।

यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या इसका समाधान आरक्षण दिए जाने में है ?

बढ़ते निजीकरण के चलते नौकरियां सीमित हो गई हैं। सर्वेक्षण बताते हैं कि अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति-जनजाति अभी भी उच्च जातियों से काफी पिछड़ी हुई हैं। ऐसे में अपेक्षाकृत धनी और शक्तिशाली वर्गों को आरक्षण दिए जाने से वंचित और पिछड़े वर्गों के अधिकार मारे जाएंगे।

हाल ही में मराठाओं ने दो मांगें रखी हैं। (1) उन्हें आरक्षण दिया जाए (2) अनुसूचित जाति-जनजाति अधिनियम को समाप्त किया जाए। स्पष्ट है कि सरकार पहली मांग पर विचार कर सकती है। दूसरे पर विचार करने का अर्थ है कि देश में पिछड़ों और वंचितों के लिए कोई स्थान न छोड़ना।

इन स्थितियों में एक प्रगतिशील, भविष्योन्मुखी राजनीतिक पक्ष के लिए यही अच्छा है कि वह जाति प्रथा के जटिल और उलझे हुए जाल को उलझाने का प्रयत्न न करे, बल्कि अगर वह इन विद्यमान जाति अनुक्रमों की जड़ता को कम करने के लिए कुछ कर सकती है, तो जरूर करे।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित अश्विनी देशपांडे के लेख पर आधारित। 9 जुलाई, 2019

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