सबरीमाला मंदिर पर लिया गया एक विवादास्पद निर्णय
Date:09-11-18 To Download Click Here.
पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय ने केरल के सबरीमाला मंदिर में 10-50 वर्ष तक की उम्र की महिलाओं के प्रवेश को अनुमति देने का आदेश दिया है। ज्ञातव्य हो कि इस मंदिर में इस आयु वर्ग की महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित है। इस प्रतिबंध के अपने कुछ धार्मिक कारण रहे हैं। उच्चतम न्यायालय ने इसे महिलाओं के साथ भेदभाव का विषय मानते हुए अपना निर्णय दिया है।
इस मामले की सुनवाई पाँच न्यायाधीशों की पीठ कर रही थी, जिसमें चार पुरुष और एक महिला न्यायाधीश थीं। मामले का मुख्य मुद्दा था कि
(अ) मंदिर से महिलाओं को अलग रखे जाने की प्रक्रिया, क्या अनुच्छेद 14 के अंतर्गत कानून के समक्ष सबको समान समझे जाने के प्रावधान का उल्लंघन करती है? साथ ही अनुच्छेद 15 और 17 के अंतर्गत भेदभावरहित व्यवहार अपनाने व छूआछूत को गैरकानूनी घोषित करने के प्रावधानों का उल्लंघन करती है?
(ब) क्या महिलाओं को अलग रखे जाने की यह ‘अनिवार्य धार्मिक प्रथा’ होने के चलते अनुच्छेद 25 के धार्मिक विश्वास की स्वतंत्रता के अंतर्गत आती है?
(स) क्या स्वामी अय्यपा एक अलग धार्मिक संप्रदाय के हैं? इसलिए क्या उन्हें अनुच्छेद 26 के अंतर्गत विशेष छूट दी गई है?
(द) क्या केरल में हिन्दू धार्मिक स्थल नियम 3 (बी) के अनुसार 10-50 वर्ष की महिलाओं पर इस प्रकार का प्रतिबंध लगाना असंवैधानिक है?
न्यायाधीशों के बहुमत ने पहले प्रश्न के लिए ‘हाँ’ और दूसरे व तीसरे प्रश्न के लिए ‘नहीं’ में जवाब दिया। नियम 3 (बी) को चार पुरुष न्यायाधीशों ने गलत बताते हुए मंदिर के द्वार सभी उम्र की महिलाओं के लिए खोलने की कवायद की, जबकि महिला न्यायाधीश ने ठीक इसके विपरीत कहा।
न्यायाधीशो के तर्क : कितने सही, कितने गलत?
न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने सबरीमाला की प्रथा को छूआछूत से जोड़ते हुए अनुच्छेद 17 का हवाला दिया।
न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा का कहना था कि एक विशेष आयु वर्ग की महिलाओं के मंदिर प्रवेश पर प्रतिबंध को अनुच्छेद 17 के दायरे में नहीं रखा जा सकता। छूआछूत की भावना से प्रेरित होकर दलितों के मंदिर-प्रवेश निषेध की तुलना महिलाओं पर लगे प्रतिबंध से नहीं की जानी चाहिए। मंदिर प्रवेश का मुद्दा सामाजिक नैतिकता के दायरे में आता है। न्यायाधीश मल्होत्रा ने इसे धार्मिक विविधता से प्रेरित मामला बताते हुए ‘भेदभाव’ से इसके सबंध को नकार दिया।
दोनों ही न्यायाधीश इस तर्क पर सहमत थे कि धर्म में अनिवार्य प्रथाओं के मामलों को न्यायालय में निर्णयों के लिए नहीं लाया जाना चाहिए। सती जैसी घातक प्रथाओं की बात अलग है। न्यायाधीश मल्होत्रा ने यह भी तर्क दिया कि प्रथाओं की अनिवार्यता की बाबत, धार्मिक समुदाय ही निर्णय ले सकते हैं। उन्होंने मामले का एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहा कि अनुच्छेद 32 में वर्णित मौलिक अधिकारों के मामले में उच्चतम न्यायालय में तब अपील की जा सकती है, जब किसी याचिकाकत्र्ता को व्यक्तिगत तौर पर मंदिर में पूजा-अर्चना के अधिकार से वंचित किया गया हो। सबरीमाला मंदिर मामले में याचिकाकर्त्ता के साथ ऐसा कोई प्रकरण सामने नहीं आया है, वरन् स्वामी अय्यपा की वास्तविक भक्त महिलाओं ने तो “रेडी टू वेट” नामक अभियान चलाया है, जिसका उद्देश्य मंदिर में प्रवेश पर अस्थायी प्रतिबंध का समर्थन करना है।
निष्कर्ष
धर्म के नाम पर प्रगति का विरोध करने वालों पर संवैधानिक नैतिकता का अंकुश लगाया जाना जरूरी है। परन्तु अगर अंकुश की बेड़ियां अधिक जकड़ी गईं, तो ये विध्वंसक भी हो सकती हैं।
संवैधानिक नैतिकता, समानता और लैंगिक न्याय के विषयों पर अगर उच्चतम न्यायालय को कोई मामला उठाना ही था, तो उसे सबरीमाला से अलग कोई और मामला लेना था। एक अत्यंत व्यापक विषय पर व्याख्या करने के लिए सबरीमाला जैसे अपवाद को मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए था।
बहरहाल, उच्चतम न्यायालय के इस फैसले का सामाजिक व धार्मिक विरोध लगातार किया जा रहा है। इसके विरोध में याचिकाएं भी दायर की जा रही हैं, जिन पर नवंबर माह में सुनवाई होनी है। उम्मीद की जा सकती है कि आगामी सुनवाई में कोई विवेकपूर्ण, सर्वस्वीकार्य, संवैधानिक निर्णय लिया जा सकेगा।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित आर. जगन्नाथन के लेख पर आधारित। 5 अक्टूबर, 2018