संदेहास्पद सीएए

Afeias
31 Mar 2020
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Date:31-03-20

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नागरिकता संशोधन विधेयक का उद्देश्य, एक वैध राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एन पी आर) के निर्माण के दौरान उन लोगों के अतिरिक्त डेटा को शामिल करना बताया जा रहा है, जिसे भारतीय नागरिक रजिस्टर में जोड़ा जाना है। जो नागरिक अपनी नागरिकता का प्रमाण दे सकते हैं, उनके लिए तो यह वैधानिक कार्य हो सकता है। ऐसे बहुत से लोग हैं, जो इस प्रक्रिया में नागरिक नहीं माने जाएगे। इनके भविष्य के बारे में सरकार ने कुछ भी स्पष्ट नही किया है।

ऐसा अनुमान है कि भविष्य की किसी भी चुनावी प्रक्रिया में इनकी कोई भागीदारी नहीं होगी। इन्हें निर्वासन केंद्र में भी रखा जा सकता है या इनके मूल देश की सहमति पर इन्हें वापस भेजा जा सकता है। ऐसी अस्पष्टता कई प्रकार के प्रश्न खड़े करती है।

  • सर्वप्रथम, यह पूरी प्रक्रिया राजनीति प्रेरित है, और इसे लागू करने का समय भी संदेहजनक है। उच्चतम न्यायालय के निर्देशानुसार असम में लागू एन आर सी प्रक्रिया में 10-12 लाख हिंदुओं को वहाँ के रजिस्टर में बाहर निकाल दिया गया है। इन हिंदुओं को सीएए के माध्यम से ही नागरिकता दी जा सकती है।
  • हमारा संविधान और 1955 का नागरिकता विधेयक ही भारतीय नागरिकता की रूपरेखा बनाता हैं। भारत कोई धर्म आधारित देश नहीं है। यहाँ धर्म पर आधारित नागरिकता देने का अर्थ, हमारे धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक बुनियादी ढ़ांचे का उल्लंघन करना है। यह हमारी संवैधानिक योजना के लिए अभिशाप सिद्ध हो सकता है।
  • यदि ऐतिहासिक रूप से देखें, तो जुलाई 1948 के पहले भारत आए प्रवासियों को उनके छः माह के वास के आधार पर नागरिकता दे दी गई थी। इसके बाद पाकिस्तान से भारत वापस आए मुसलमानों को नियुक्त अधिकारी से पंजीकरण कराना और प्रमाणपत्र लेना जरूरी था। इसी दौरान बांग्लादेश से भारत आए हजारों हिंदुओं को इस प्रक्रिया में शामिल नहीं किया गया था।

असम की जनता के विरोध के बाद 1985 में असम समझौता किया गया। इसमे जुलाई 1971 तक पूर्वी पाकिस्तान से भारत आए लोगों को ही नागरिकता का प्रावधान दिया गया। इसके बाद आए लोगों ने भी इस आधार पर नागरिकता ले ली कि वे पहले से भारत में रह रहे हैं। 2003 में इनका मामला उठने पर तत्कालीन उपप्रधानमंत्री आडवाणी जी ने ही कहा था कि एक अवैध प्रवासी अवैध ही होता है।

  • सीएए की प्रक्रिया असम समझौते का उल्लंघन करती है।
  • सीएए में उत्पीडन के आधार पर किसी को नागरिकता देने का प्रावधान नहीं है।
  • सबसे खतरनाक तो इसको संपन्न करने वाली प्रक्रिया हैं। भारत के रजिस्ट्रार जनरल, जो कि जनगणना आयुक्त भी हैं, ही जनसंख्या रजिस्टर को अतिरिक्त डेटा के साथ अपडेट करने वाले है। इसमें जन्म तिथि और स्थान, आधार नं, मोबाईल नं., अभिभावकों का ब्योरा आदि मांगा जाना है। देश के करोड़ों गरीब ऐसे हैं, जो इस देश में अपने या अपने अभिभावक का जन्म प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकते। विवाहित महिलाओं के लिए तो यह और भी बड़ी समस्या है।

सामान्यतः जनगणना में गत छः माह के स्थान परिवर्तन का ब्योरा ही लिया जाता रहा है।

अपेक्षित डेटा न मिलने पर करोड़ों नागरिकों को संदेहजनक नागरिकों के ‘डी‘ वर्ग में डाल दिया जाएगा।

इस पूरे राजनीतिक वातावरण में प्रमाण न दे पाने वालों का भविष्य अधर में लटक जाएगा। इसके वर्गीकरण को भी तार्किक बनाया जाना चाहिए। अगर सत्तासीन सरकार उत्पीडन को ही आधार बनाना चाहती है, तो उत्पीड़ित तमिल और बौद्धों को इसमें शामिल क्यों नहीं किया गया है? लगता है, जैसे यह समस्त प्रक्रिया विभाजन पर शासन करने की है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया‘ में प्रकाशित कपिल सिब्बल के लेख पर आधरित। 17 मार्च, 2020

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