श्रम सुधारों में ऊँची छलांग की अपेक्षा

Afeias
27 Aug 2019
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Date:27-08-19

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भारत में रोजगार के अवसर बढ़ाने को लेकर लगातार चर्चाएं चल रही हैं। दरअसल 1991 के उदारवादी सुधारों के बाद यद्यपि भारत ने विश्व के लिए अपनी अर्थव्यवस्था के द्वार खोल दिए थे, परन्तु श्रम बाजार के कड़े और अनम्य नियमों के चलते श्रम आधारित क्षेत्रों के बड़े उद्यम पनप नहीं सके। यही कारण है कि आज हमारे पास अच्छी मजदूरी वाली नौकरियों की कमी है।

दूसरी ओर चीन, दक्षिण कोरिया, ताइवान, सिंगापुर और हांगकांग ने लचीले श्रम बाजार के चलते अच्छी उन्नति कर ली है। इन अर्थव्यवस्थाओं के विश्व से जुड़ने के साथ ही यहाँ के उद्यमों को लचीले श्रम कानून का लाभ मिला और वे पनपने लगे। कम कीमत पर उत्पादन बढ़ाया, और कपड़े, जूते, फर्नीचर जैसे श्रम आधारित उत्पादों का बड़े पमाने पर निर्यात करने लगे। इस प्रक्रिया में वहाँ अच्छे वेतन वाली नौकरियों का सृजन हुआ और गरीबी पीछे हटती चली गई।

भारत की द्वितीय पंचवर्षीय योजना के वास्तुकार ने 1969 में ही भारत की इस विडबंना का अनुमान लगाते हुए कहा था कि “भारत का श्रम कानून, बहुत ही संकीर्ण मायने में श्रमिकों के हितों का संरक्षक है।” 2017-18 के श्रम बल सर्वेक्षण में उनकी यह सोच सत्य प्रमाणित होती दिखती है। अभी भी 44 प्रतिशत कार्य बल कृषि में संलग्न है, और 42 प्रतिशत ऐसे छोटे उद्यमों में लगा है, जो मुश्किल से 20 लोगों को रोजगार दे सकते हैं। ऐसे में मजदूरी, सामाजिक सुरक्षा, औद्योगिक संबंध और कर्मचारी सुरक्षा जैसी चार संहिताओं पर आने वाले श्रम कानून का स्वागत किया जाना चाहिए। श्रम कानून को मात्र उपरोक्त चार बिन्दुओं का समेकन करने के बजाय सुधारों पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

  • श्रम सुधार कानून की समीक्षा के लिए मसौदे की पहली संहिता का उदाहरण लिया जा सकता है। अगर मीडिया रिपोर्ट की माने, तो इस संहिता में शामिल अनेक कानूनों को रोजगारोन्मुखी बनाए बिना ही एक दस्तावेज बना दिया गया है। यह इस हद तक किया गया है कि ड्राफ्ट कोड मौजूदा कानून को तोड़ देता है। यह नौकरियों में अनौपचारिकता को घटाने के बजाय जोड़ने का काम करता है।
  • दूसरे, कानून में कौशल के अनुसार न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाने का प्रावधान है। अन्य किसी देश में ऐसा नहीं होता। इनके पीछे आधार यही है कि प्रत्येक मजदूर को सामाजिक पैमाने पर जीवन की न्यूनतम सुविधाओं के साथ जीवन-यापन का अधिकार है। इसे कौशल देखकर उपलब्ध नहीं कराया जा सकता।
  • संहिता में राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी का भी प्रावधान है। परन्तु इसमें यह नहीं बताया गया है कि यह मेट्रो शहरों के आधार पर दी जाएगी या बिहार-ओड़ीशा के दूरस्थ क्षेत्रों के आधार पर। अगर यह मेट्रो शहरों के आधार पर निश्चित की गई, तो कपड़ा और जूता जैसे श्रम आधारित उद्योगों का अस्तित्व ही मिट जाएगा। दूसरी ओर, अगर दूरस्थ क्षेत्रों के अनुसार मजदूरी तय की जाती है, तो संगठित श्रम संगठनों और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन को यह कदापि स्वीकार नहीं होगा।

सबसे अच्छा तो यह है कि इसे राज्य सरकारों पर छोड़ दिया जाए। वे अपने राज्य में जीवन-यापन की न्यूनतम आवश्यकताओं पर होने वाले व्यय का बेहतर अंदाजा लगा सकते हैं। अन्य देशों में भी ऐसा ही किया जाता है।

  • मसौदे में रेलवे और खनन क्षेत्रों में न्यूनतम मजदूरी तय करने का अधिकार केन्द्र सरकार को दिया गया है। यह व्यावहारिक नहीं लगता। राज्य सरकार द्वारा एक राशि तय किए जाने के बाद नियोक्ता का भेद किए बिना मजदूरी दिया जाना ही उचित है।

श्रम कानून सुधार संहिता द्वारा उद्योगों से संबंधित अच्छे रोजगार का सृजन होना चाहिए। परन्तु फिलहाल इस मुद्दे पर अभी कोई खास काम नहीं किया गया है। अगर इस पर काम किए बिना ही इसे संसद में पारित कर दिया गया है, तो यह एक विडंबना ही है। इसके बगैर भारत का उत्थान होना कठिन है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अरविंद पन्गढ़िया के लेख पर आधारित। 24 जुलाई, 2019