केवल श्रम कानून ही दोषी नहीं हैं

Afeias
12 Mar 2020
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Date:12-03-20

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उद्यमिता का आधार श्रम और पूंजी को माना जाता है। सामान्य तौर पर भारत के जटिल श्रम कानून को व्यापार-व्यवसाय के विकास में बाधक माना जाता रहा है। 2019-20 का आर्थिक सर्वेक्षण भी सरसरी तौर पर श्रम कानूनों को ही दोषी मानता है, और अन्य महत्वपूर्ण कारकों को नजरअंदाज करता है। कुछ सर्वेक्षणों में यह स्वयं अपने अनुमान का खंडन करता है। गुजरात के कुछ जिलों के व्यावसायिक सर्वेक्षण में संचयी अर्थव्यवस्था और श्रमिकों के कौशल को महत्वपूर्ण कारक में गिना गया है।

इस संदर्भ में यहाँ हम तीन स्वतंत्र अध्ययनों को देखते हैं।

2014 में राजस्थान ने औद्योगिक विवाद अधिनियम, फैक्टरी अधिनियम और कांट्रैक्ट लेबर अधिनियम में संशोधन किया, क्योंकि कुछ विशेषज्ञ इन्हें व्यापारिक विकास की राह में अवरोध मान रहे थे।

(1) राजस्थान के कुछ जिलों में व्यापारिक संदर्भ में हुआ पहला केस रिसर्च ब्यूरो स्टडी का था। इंपैक्ट ऑफ लेबर रिफॉर्म्स ऑन इंडस्ट्री इन राजस्थान की रिपोर्ट में बताया गया है कि इसमें दो प्रकार की समस्याएं हैं- कुशल श्रमिकों की कमी और दूसरा मजदूरी की ऊँची दर। इस अध्ययन में श्रमिकों की भर्ती और बर्खास्तगी जैसी कोई समस्या नहीं बताई गई।

(2) राजस्थान, आंध्रप्रदेश, हरियाणा और उत्तरप्रदेश सरकारों ने श्रम कानून में संशोधन व अन्य श्रम सुधार कार्यक्रम चलाए थे। इन सुधारों के दो वर्ष बाद का अध्ययन बताता है कि इससे न तो निवेश बढ़ा न औद्योगीकरण और न ही रोजगार के अवसर बढ़े।

(3) तीसरे अध्ययन में 2019 के श्रम आधारित कपड़ा व वस्त्र उद्योगों को शामिल किया गया था। सुधारों के चार वर्षों बाद भी उद्योगों में कोई प्रगति नहीं हुई थी।

निष्कर्ष में सामने आया कि पूरे देश के कपड़ा उद्योगों की प्रतिस्पर्धा को कच्चा माल, बिजली और लॉजिस्टिक की कीमत प्रभावित करती है। अगर इनकी कीमत कम हो जाए, मुख्यतः कच्चे माल की, तो ऊँची मजदूरी भी चुकाई जा सकती है।

उद्यमों की प्रतिस्पर्धा को बढ़ाए जाने के साथ ही अगर मजदूरी की दर को बढ़ाया जाए, तो उपभोक्ता की सीमा बढ़ेगी, और अर्थव्यवस्था को गति मिल सकेगी।

इन अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि श्रम कानूनों को दोष देने से बात नहीं बन सकती। इस क्षेत्र के कानूनों को इस ढंग से प्रशासित किया जाए कि छोटे उद्यम भी सुगमता से खुलकर व्यापार कर सकें। अर्थव्यवस्था के विकास की दिशा में इनका बहुत महत्व है।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित अरूण मायरा और प्रदीप एस मेहता के लेख पर आधारित। 22 फरवरी,  2020

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