मानव बनाम पशु नहीं, वरन् मानव संग पशु

Afeias
13 Mar 2020
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Date:13-03-20

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वन्य जीवन संरक्षण के मामले में हमारा देश अद्वितीय है। एक अरब से अधिक जनसंख्या होने पर भी हमारे यहाँ पशु-पक्षियों की अनेक प्रजातियां हैं। दक्षिण-पूर्वी एशिया के अपेक्षाकृत कम मानव घनत्व वाले देशों की तुलना में, भारत में बाघ, एशियाई हाथी, तेंदुआ, भालू, गौर और बहुत से पशुओं की सर्वाधिक संख्या पाई जाती है। इन पशुओं को कुछ सौ किलोमीटर के संरक्षित क्षेत्र में सीमित नहीं किया जा सकता। अगर ऐसा किया जाए, तो वे संपर्क और प्रजनन के अभाव में लुप्तप्राय हो जाएंगे। बाघों को एक विस्तृत क्षेत्र की आवश्यकता होती है। हम अपने देश में मानवरहित बड़े स्थान उपलब्ध नहीं करा सकते। इसलिए वन्य जीवन को मानवों की बस्ती के आसपास ही अस्तित्व बनाए रखना होता है। यह औचित्य उतना ही पुराना है, जितने पुराने बाघ और मानव हैं। लोगों ने भी इसे स्वीकार कर लिया है, और ऐसा रहन-सहन हमारी संस्कृति में घुलमिल गया है।

हमारे सभी देवताओं के साथ पशु जुड़े हुए हैं। यह हमारे मन-मस्तिष्क में पशुओं के लिए स्थान को दर्शाता है। गोवा का वेलिप समुदाय सदियों से बाघों की पूजा करता आ रहा है। भारतीय मानव प्रकृति पूजक रहा है। वह पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, नदियों-तालाबों को भी अपने जीवन में बहुत महत्व देता है। कभी-कभी इसके कारण उसे हानि भी उठानी पड़ती है। परन्तु इसका समाधान यह नहीं कि बाघों को बाड़ों में बांध दिया जाए। सबसे अच्छा तो यह है कि लोग बाघों के साथ जुड़ाव को विकास की दिशा में एक मार्ग के रूप में देखें। ऐसे उदाहरण महाराष्ट्र सहित कई अन्य बाघ अभयारण्यों में मिलते हैं। अभी तक हमने बाघों को उस अक्षय निधि की तरह नहीं देखा, जो वास्तव में वे हैं। वे नदियों और वनों की तरह हमेशा वहाँ रहने वाले हैं, और यही साधन स्थानीय जीवन को जीविका प्रदान करते रहे हैं।

इस मॉडल का विकास कुछ इस प्रकार हो कि बाघ से पर्यटन का सीधा लाभ स्थानीय समुदायों को भी हो। इस प्रकार का मॉडल महाराष्ट्र के तदोबा टाइगर रिजर्व में अपनाया गया है। वहाँ के पर्यटन उद्योग से अर्जित अपार धनराशि का एक भाग टाइगर रिजर्व के आसपास के स्थानीय युवाओं के प्रशिक्षण पर भी खर्च किया जाता है। ऐसे में बाघों से उनके बैर का कोई कारण नहीं बच जाता, जब वह उनकी आजीविका का साधन बन रहा हो।

बाघों के कारण होने वाली क्षति की पूर्ति जल्द-से-जल्द की जानी चाहिए। वन विभाग व स्थानीय ग्रामवासियों के बीच संपर्क‘-साधन बेहतर किए जाने चाहिए। इसके लिए एक हेल्पलाइन बना दी गई है, और मुआवजा राशि में भी भारी वृद्धि की गई है। इसे सीधे खाते में ट्रांसफर किए जाने की प्रक्रिया चल रही है। इससे पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता आ जाएगी।

यह वन्य जीवन के संरक्षण का एक साधारण-सा समाधान है। पर्यावरण के संरक्षण के लिए एक दीर्घकालीन समावेशी नति बनाई जाए। इसमें एक ऐसी दृष्टि हो, जो पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और सच्ची मदद से जुड़ी सार्वजनिक सेवाएं उपलब्ध करा सके। ये सेवाएं उन समुदायों के लिए उपलब्ध हों, जो बाघों के वास्तविक संरक्षक हैं। दूरदराज के क्षेत्रों में रहने वाले वनवासी और आदिवासी समुदाय वाकई इसके अधिकारी हैं।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित विद्या अथरेया के लेख पर आधारित। 25 फरवरी, 2020

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