शिक्षा को सुधारें

Afeias
16 Jul 2018
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Date:16-07-18

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वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में कई खामिंया हैं। मोटे तौर पर देखें, तो इनका समाधान हमें दो मुख्य रूप से करना होगा। एक तो हमें तेजी से बदलती तकनीकों के अनुरूप पुरानी शिक्षा व्यवस्था को बदलना होगा, जिससे कि हमारी शिक्षण प्रणाली का रूपांतरण हो सके। दूसरे, हमें अपनी आधारभूत शिक्षा-व्यवस्था की गुणवत्ता में सुधार करना होगा।

अगर इस क्षेत्र में सरकार के प्रयासों की बात करें, तो हम कुछ सकारात्मक पहलू पर विचार कर सकते है। लगभग 96% बच्चों के लिए 1.5 कि.मी. के दायरे में एक स्कूल उपलब्ध है। लैंगिक आधार पर शौचालयों का भी बड़ी संख्या में निर्माण कर दिया गया है। इसके कारण स्कूलों में लड़कियों की संख्या बढ़ी है।

  • पैन इंडिया की एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट दिखाती है कि शिक्षा में बच्चों का प्रदर्शन लगातार गिरता जा रहा है। विश्व बैंक 2018 की विश्व विकास रिपोर्ट में कहा गया है “मध्यम दर्जें की स्कूली शिक्षा वाले देशों की तुलना में अधिक कौशलयुक्त शिक्षा-व्यवस्था वाले देशों की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ती है। भारतीय स्कूलों को ऐसा वातावरण निर्मित करने की जरुरत है, जिसमें उनके सभी बच्चे सीख सकें।”

व्यावहारिक रूप से देखा जाए, तो यह आर्थिक पक्ष से भी जुड़ा हुआ दिखाई देता है। शिक्षा को अक्सर अवसर मिलने से जोड़कर देखा जाता है। अगर बच्चों के पास अतिरिक्त समय होगा, तब ही वे स्कूल जाएंगे। इस सोच में परिवर्तन लाने के लिए समुदायों का शामिल होना जरूरी है। ऐसा करके बच्चों को स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकेगा। शिक्षकों की उपस्थिति को बढ़ाया जा सकेगा।

  • हमारा पाठ्यक्रम विदेशों की नकल मात्र है। ऐसा होने पर शिक्षक भी इसे केवल निपटाना अपनी ड्यूटी समझते हैं। अच्छे विद्यार्थियों के साथ जुड़कर इसे आसानी से पूरा कर लिया जाता है। लेकिन इस प्रक्रिया में औसत या औसत से कम दर्जें के बच्चे पीछे रह जाते हैं। एक दिन वे अपनी विफलता मानकर स्कूल छोड़ देते है।

इस स्थिति में भी सामुदायिक अध्ययन का बहुत महत्व है। मुंबई और वड़ोदरा में ‘प्रथम‘ कार्यक्रम के अंतर्गत ‘बालसखी‘ योजना में हर कक्षा के 20 पिछड़े बच्चों को चुनकर, उन्हें अलग से पढ़ाया गया। उनके परिणामों में आश्चर्यजनक परिवर्तन पाया गया। इसी प्रकार देश के सबसे गरीब राज्य बिहार में, जहाँ शिक्षकों की अनुपस्थिति की संख्या सबसे ज्यादा है, 2016 में समर कैंप करके सरकारी स्कूल के शिक्षकों को बच्चों को सिखाने के लिए बुलाया गया। इसके अच्छे परिणाम मिले।

  • तीसरी बात तकनीक के सहयोग से शिक्षा की आती है। इसे पढ़ने में कमजोर बच्चों के लिए इस्तेमाल करने की अनुशंसा की जाती है। इसे सीखने के समय या पाठ को दोहराने में उपयोगी पाया गया है। जरुरी नहीं कि हर बच्चे के पास लैपटॉप या कम्प्यूटर हो। किसी एक डिवाइस से भी कमज़ोर बच्चों के समूह को इकट्ठा करके, उन्हें एक ही पाठ को बार-बार सिखाना संभव है। इससे स्लो-लर्नर बच्चों को बहुत मदद मिल सकती है।

अत्मर्थ सेन कहते हैं कि बच्चों को सबसे पहले यह सिखाया और समझाया जाना चाहिए कि शिक्षा के द्वारा उन्हें एक जीवन को बनाने का मौका मिला है, जो उनके लिए मूल्यवान है।

हमारे पूर्वी एशियाई मित्रों जैसे सिंगापुर और दक्षिण कोरिया का मानना है कि आगे आने वाले समय में किसी कामकाजी के लिए अपेक्षित योग्यताओं के बारे में अभी से कह पाना मुश्किल है। अतः शिक्षा का उद्देश्य सिखाना और परिवेश के अनुरूप ढालना होना चाहिए। इसके लिए संज्ञानात्मक कौशल, समस्या को सुलझाने एवं सोचने की क्षमता को विकसित किया जाना चाहिए।

अगर ऐसा कर जाए, तो इसके बाद दुनिया चाहे जिस रूप में बदले, हमारे बच्चे अपना अस्तित्व मिटने नहीं देगें।

‘द इकॉनामिक टाइम्स‘ में प्रकाशित अमीक बरूआ और पल्लवी गुप्ता के लेख पर आधारित। 29 जून, 2018