शिक्षा केवल अधिकार का विषय नहीं है
Date:24-10-17
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देश के बच्चों के अधिकारों की रक्षा हेतु निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा विधेयक, 2009 लाया गया था। इसके अंतर्गत 6-14 वर्ष की उम्र के बच्चों को प्राथमिक स्तर तक शिक्षा मुहैया कराने की जिम्मेदारी सरकार ने ले ली। परन्तु इस विधेयक में अनेक कमियां थीं, जो आज भी चली आ रही हैं। यही कारण है कि सरकार का सबको शिक्षा का स्वप्न और प्रयास वह सफलता प्राप्त नहीं कर पा रहा है, जैसा कि उसे प्राप्त कर लेना था।
- इस विधेयक में संसदीय स्थायी समिति की कई महत्वपूर्ण सिफारिशों को शामिल नहीं किया गया।
- शिक्षा हेतु बुनियादी ढांचों एवं शिष्य-शिक्षक अनुपात के साथ-साथ उसके परिणामों को जाँचने के विषय में कोई प्राथमिकता नहीं बनाई गई।
- निजी स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 25 प्रतिशत आरक्षण देना और इसकी भरपाई सरकार द्वारा किए जाने का का मामला पेचीदा है।
- इस योजना के आर्थिक पक्ष के बारे में केन्द्र एवं राज्य सरकारों के बीच उलझाव है।
शिक्षा के अधिकार विधेयक के आठ वर्ष बीत जाने के बाद विद्यार्थियों के पंजीकरण की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। 6-14 वर्ष के बच्चों का प्राथमिक स्तर पर पंजीकरण 96 प्रतिशत, माध्यमिक स्तर पर 78.5 प्रतिशत एवं उच्चतर-माध्यमिक स्तर पर 54.2 प्रतिशत हो गया है। परन्तु यदि हम पंजीकरण से अलग के परिणामों पर नजर डालें, तो स्थिति दयनीय है।
इस वर्ष ‘प्रथम’ ने शिक्षा की ग्यारहवीं वार्षिक रिपोर्ट में बताया है कि तीसरी कक्षा के चार में से एक विद्यार्थी का पढ़ने एवं गणित का स्तर पहली कक्षा के बराबर है। राष्ट्रीय स्तर पर देखें, तो 2014 से 2016 के बीच स्थितियों में अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है।शिक्षकों के शिक्षण स्तर को विकसित करने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम नहीं चलाए जा रहे हैं। इतना ही नहीं, प्राथमिकस्तर पर 9 लाख शिक्षकों की कमी है, जबकि माध्यमिक स्तर पर यह 10 लाख हो जाती है।सन् 2011-2016 तक सरकारी स्कूलों में 1 करोड़ 30 लाख पंजीकरण में कमी आई है, जबकि निजी स्कूलों में यह 17 करोड़ के आसपास बढ़ गया है।
हमारी शिक्षा व्यवस्था का रोजगारोन्मुखी न होना उसकी बहुत बड़ी कमी है। एक सर्वेक्षण के अनुसार शामिल व्यक्तियों में से केवल 26 प्रतिशत ने स्वीकार किया कि उन्हें रोजगार मिलने में स्कूली शिक्षा काम आई है।
- समाधान
- हमारी शिक्षा व्यवस्था में व्यापक दृष्टिकोण और लोच लाने की आवश्यकता है। ‘प्रथम’ ने भी अपनी रिपोर्ट में CAMAL (Combined Activities For Maximised Learning) को अपनाने की बात कही है।
- रटने वाली विद्या से हटकर हमें विद्यार्थियों को शिक्षा में सृजनात्मकता एवं कौशल विकास की दिशा में ले जाना होगा। जीवन में यही उनके काम आएगा। आज की स्कूली शिक्षा का 80 प्रतिशत ज्ञान जीवन में उनके कभी काम नहीं आता है।
- शिक्षा-शास्त्र एवं पाठ्यक्रम की सामग्री में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है।
- निजी एवं सरकारी स्कूलों के बीच बनाए जा रहे मतभेदों को एक सिरे से खारिज किए जाने की जरूरत है। समाज के बढ़ते जीवन स्तर के साथ श्रेष्ठ विद्यालयों की भी आवश्यकता है। इस मामले में राजस्थान सरकार का निर्णय शायद कुछ निर्णायक भूमिका निभा सके, जिसमें उन्होंने सभी सरकारी स्कूलों को पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप में चलाने का मॉडल तैयार किया है।
- निजी स्कूलों में फीस का मामला हमेशा ही विवादास्पद रहा है। परन्तु दिल्ली सरकार द्वारा 438 निजी स्कूलों को अपने अधिकार में ले लेना, इस समस्या का कोई हल नहीं है। सीकरी आयोग ने भी इस बात की सिफारिश की थी कि नवाचार एवं उत्कृष्टता को बढ़ाने के लिए निजी स्कूलों को अपने अनुकूल फीस तय करने की छूट दी जानी चाहिए।
- तकनीकों के उपयोग से शिक्षण पद्धति में क्रांतिकारी परिवर्तन किए जा सकते हैं। रोजगार के बढ़ते अवसरों की मांग के साथ शिक्षा में तकनीक को जल्द से जल्द शामिल किया जाना चाहिए।
सरकार को चाहिए कि उद्यमियों को निजी स्कूल खोलने की स्वीकृति देने की बजाय देश की चुनौतियों को लेकर शिक्षा के क्षेत्र में काम करें।सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में सुधार करके एवं निजी प्रयासों को प्रोत्साहन देकर नैतिकता एवं विवेक जैसे शिक्षा के दो आधार स्तंभों को संरक्षित किया जा सकता है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित एन के सिंह के लेख पर आधारित।