राजनीति की चक्की में पिसता मेयर का पद

Afeias
10 Feb 2020
A+ A-

Date:10-02-20

To Download Click Here.

हमारे देश के महानगरों में ऐसे शक्ति  संपन्न मेयरों की बहुत कमी है, जो नगर की क्षमता एवं उत्पादकता को बढ़ा सके तथा जीने योग्य वातावरण तैयार कर सकें। कई वैश्विक नगरों में मेयर अपने देश का नेतृत्व करने के लिए जाने जाते हैं। भारत में उन्हें राष्ट्रीय दलों द्वारा अस्पष्ट भूमिका में रखा जाता है।

देश की आबादी का एक तिहाई हिस्सा शहरी क्षेत्रों में रहता है। यह सकल घरेलू उत्पादन में 3/5 वें हिस्से की भागीदारी करता है। इसके बावजूद जनसंख्या की अधिकता वाले शहरों में क्षमता, बुनियादी ढांचे और नेतृत्व की कमी है। सर्वेक्षण ने इसे स्वीकार किया है कि नगरों की दयनीय स्थिति का मुख्य कारण किसी एक नेतृत्व और बुनियादी ढांचे की कमी का होना है। राज्य सरकारें शहरी क्षेत्रों से अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत करती हैं।

मुख्यमंत्रियों को मेयर की शक्ति और प्रगतिशील नीतियों से अपना अस्तित्व संकट में पड़ा दिखाई देता है। कुछ ने तो शहरी निकायों के खराब प्रदर्शन को ढाल बनाकर मेयर के सीधे चुनाव को टाल रखा है। ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ने तमिलनाडु में गत वर्ष इसकी आशंका को देखते हुए कानून ही बना डाला। इसके अनुसार किसी विपक्षी दल के लोकप्रिय नेता को किसी बड़े नगर का मेयर बनने से रोका जा सकता है। राहुल गांधी ने 2019 के लोकसभा चुनावों में वायदा किया था कि सत्ता में आने पर वे मेयर के सीधे चुनाव की प्रथा को शुरू करेंगे। स्मार्ट नगरों की व्यवस्था तो अच्छे नेतृत्व पर ही टिकी हो सकती है।

संवैधानिक प्रावधान की उपेक्षा क्यों ?

1992 के 74 वें संविधान संशोधन में स्थानीय निकाय को विकसित करने के लिए आर्थिक और सामाजिक विकास, भूमि का नियमन, भवन-निर्माण आदि 18 कार्यक्रम सुझाए गए हैं। इनमें से नौ ही व्यवहार में लाए गए हैं। इनमें भी उन प्रमुख नगरपालिका सेवाओं को शामिल नहीं किया गया, जो राज्य सरकार के प्रति जवाबदेह अधिकारियों द्वारा चलायी जाती हैं। स्थानीय निकायों को नजरअंदाज करने के नए-नए तरीके ढूंढे जाते हैं। स्मार्ट सिटी के संदर्भ में भी यही नीति अपनाई गई है। मेयर के पद की शक्तिहीनता को देखते हुए भी कई राज्य उनकी नियुक्ति के विरोध में है। इसके स्थान पर निगम आयुक्त नियुक्त कर दिए जाते हैं।

विदेशों में स्थिति बिल्कुल अलग है

न्यूयार्क, पेरिस, लंदन या शंघाई जैसे नगरों के मेयर अपने कार्यों के दम पर मुख्यमंत्रियों और विधायकों को भी पीछे छोड़ देते हैं। वे शहरी मतदाताओं के सीधे संपर्क में रहते हुए उनके प्रिय हो जाते हैं। विश्व-मंच से जुडे़ जलवायु परिर्वतन जैसे विषयों पर भी मेयर अपनी छवि स्थापित करने से पीछे नहीं रहे हैं। पेरिस के मेयर ने तो ग्रीन दल की नयी परिकल्पना से काफी प्रसिद्धि पाई है। इसी कड़ी में दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने वीडियों लिंक के जरिए कोपेनहेगन में इकट्ठा हुए मेयरों को संबोधित करके एक छाप छोड़ी है। दिल्ली के स्वास्थ मंत्री को मोहल्ला क्लीनिक के संबंध में आस्ट्रेलिया बुलाया गया था।

भारतीय नगर तंत्र के वार्षिक सर्वेक्षण, 2017 में 20 राज्यों के 23 नगरों को शामिल किया गया था, जिसमें चैंकाने वाली बात यह सामने आई कि 33% मध्यम व बड़े नगरों में मेयर के प्रत्यक्ष चुनाव का प्रावधान होते हुए भी किसी बड़े नगर में मेयर का सीधे चुनाव नहीं हुआ था। केवल 1/5 बड़े नगरों में ही मेयर का कार्यकाल पाँच वर्ष था, जबकि आधे से अधिक शहरी लोग ऐसे नगरों में रह रहे थे, जहाँ मेयर का कार्यकाल मात्र ढाई साल है।

किसी नगर में ऐसे किसी शक्तिशाली नेतृत्व का होना अत्यंत आवश्यक है, जो नगरवासियों का विश्वासपात्र हो, तथा जिसके प्रति नगर के सरकारी विभाग जवाबदेह हो। अन्यथा जॉन केनेथ गेलब्रेथ का कहना सही है कि भारत में कामकाज की अराजकता है।

‘द हिंदू‘ में प्रकाशित जी. अनंतकृष्णन् के लेख पर आधारित। 15 जनवरी, 2020

Subscribe Our Newsletter