राजनीति में अपराधियों की बढ़ती पैठ और चुनाव सुधारों की विफलता

Afeias
03 Sep 2021
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Date:03-09-21

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राजनीति में अपराधी और इस माध्यम से उसका अपराधीकरण बहुत लंबे समय से होता आ रहा है। हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने राजनीति में पैठ चुकी इस कुरूपता पर चिंता व्यक्त की है।

मतदाताओं की अच्छी समझ, लोकतंत्र की अंतिम संरक्षक होती है। फिर हम क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि संस्थागत सुधार के माध्यम से राजनीति को अपराध और अपराधियों से छुटकारा मिल सकता है।

राजनीति में जनता द्वारा किया जाने वाला त्वरित अभियोजन वास्तविक अपराधियों को रोक सकता है, और झूठे मामलों का सामना करने वालों की रक्षा कर सकता है।

विधायिकाओं में निर्वाचित प्रतिनिधि जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। कानून बनाने वाले इन प्रतिनिधियों पर मुकदमा चलाए जाने में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। ज्ञातव्य हो कि 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने जनप्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों के त्वरित निस्तारण हेतु विशेष अदालतों के गठन का आदेश दिया था। यह एक ऐसी अदालत है, जो कानून के किसी विशेष क्षेत्र से संबंधित होती है। लेकिन राजनीतिक दलों की अनिच्छा के चलते अभी तक इसका लाभ नहीं लिया जा सका है।

राजनीतिक अपराधीकरण से संबंधित कुछ बिंदुओं पर एक नजर –

  • सबसे पहला और आश्चर्यजनक तथ्य जेल से चुनाव लड़ने का अधिकार है। अगर अपराधी लोग चुनाव लड़ सकते हैं, तो फिर देश के सभी कैदियों को मतदान का अधिकार दे दिया जाना चाहिए।
  • पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय ने आठ राजनीतिक दलों पर इसलिए जुर्माना लगाया था कि उन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव में अपने उम्मीदवारों के आपराधिक ब्यौरे सार्वजनिक करने के उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन नहीं किया था। आज तक किसी भी दल ने इस विषय पर कोई गंभीर विचार नहीं किया। बल्कि सर्वदलीय बैठक में उच्चतम न्यायालय का एक स्वर में विरोध किया गया।
  • राजनीति में अपराधियों की पैठ का नमूना हमें 2019 की सत्रहवीं लोकसभा में चुनकर आए कुल सांसदों में से 233 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज होने में मिलता है। इनमें से 159 के विरूद्ध गंभीर प्रकृति के मामले हैं।
  • राजनीति में अपराधियों के प्रवेश को रोकने के लिए चुनाव आयोग ने अक्टूबर, 2018 में प्रत्याशियों के लिए पूरे चुनाव के दौरान कम-से-कम तीन बार टेलीविजन और अखबारों में अपने आपराधिक ब्योरों का विज्ञापन करना अनिवार्य कर दिया था। परंतु राजनीतिक दलों ने अपनी ओर से सुधार का कोई प्रयत्न नहीं किया है।
  • उल्टे, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में नया प्रावधान जोड़ते हुए राजनीतिक दलों ने अपराधियों के चुनाव लड़ने का रास्ता सुगम कर दिया। पहले प्रावधान में हिरासत में होने के कारण मतदान से रोके जाने पर भी अगर व्यक्ति का नाम मतदाता सूची में दर्ज है, तो उसे चुनाव लड़ने से रोका नहीं जा सकता। दूसरे, किसी सांसद और विधायक को तभी अयोग्य माना जाए, जब उसे इस अधिनियम के तहत अयोग्य ठहराया जाए, किसी अन्य आधार पर नहीं।

चुनाव सुधार की दिशा में कुछ कदम तुरंत उठाए जाने की जरूरत है –

  1. उम्मीद्वारों की न्यूनतम शैक्षिक योग्यता निर्धारित हो।
  1. उन्हें पंचायत व निकाय चुनावों का अनुभव हो।
  1. न्यायालय द्वारा दोषी सिद्ध व्यक्ति को टिकट देने वाले राजनीतिक दल पर जुर्माना लगाया जाए।
  1. सरकारी खर्च पर चुनाव कराया जाए। (इंद्रजीत गुप्ता समिति की सिफारिश)
  1. चुनावी ब्यौरे में धोखाधड़ी पर प्रत्याशी को आजीवन प्रतिबंधित किया जाए।
  1. जनता को ‘राइट टू रिकॉल’ का अधिकार मिले।
  1. नोटा को प्रभावी रूप से लागू किया जाए।

इन सुधारों में जनता की भागीदारी होनी चाहिए। लोकतांत्रिक संवेदनशीलता से ही लोकतंत्र की प्रक्रिया का शोधन किया जा सकता है। देश में इसका बहुत अभाव है।

विभिन्न समाचार पत्रों पर आधारित। 20 अगस्त, 2021

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