मानविकी और लिबरल आर्टस का महत्व है

Afeias
05 Jul 2019
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Date:05-07-19

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शिक्षा केवल दक्षता प्राप्त करने या मांग आधारित टेक्नोकृत तार्किकता विकसित करने को नहीं कहा जा सकता। शिक्षा का उद्देश्य संस्कृति और राजनीति, कला और इतिहास, साहित्य और दर्शन की गहरी समझ विकसित करना भी है। सच्चाई तो यह है कि जो समाज ‘स्व‘ और ‘संसार‘ की परस्पर क्रिया के प्रभाव से अपने युवाओं को दूर रखता है, और नौकरी का वास्ता देकर उनके क्षितिज को केवल तकनीकी शिक्षा तक सीमित करता है, उस समाज का पतन होता है। ऐसा समाज उपभोक्तावादी संस्कृति के लिए ठोस आधार तैयार करता है, और गहन सोच व बंधनमुक्त जिज्ञासा को नकार देता है।

आज के इस व्यवहारमूलक उपयोगितावादी समाज में गहन सोच की ओर ले जाने वाली लिबरल या उदार शिक्षा की वकालत करना बेमानी सा लगता है। इसके पीछे तीन कारण है।

1) नवउदारवाद के आर्थिक सिद्धांत के आने के साथ ही समारात्मक निष्पक्षता, विज्ञानवाद और तकनीकी तार्किकता शिक्षा जगत पर छा गए। ज्ञान केवल सहायक और तकनीकी रह गया। पाठ्यक्रम की अंतर्वस्तु और नैतिक प्रश्नों को उन अंकों के आधार पर आंका जाने लगा, जिनसे नौकरी पाई जा सके। आज के तकनीकी मैनेजर और व्यवसाय का बाजार; दोनों ही व्यक्तिपरक कलाओं से दूरी बनाते चले गए। अगर वे कभी साहित्य या समाजशास्त्र की बात करते भी हैं, तो उसकी आत्मा की हत्या करते हुए करते हैं। वे ‘लाइफ स्क्लि’, पर्सनालिटी डेवलपमेंट, कम्यूनिकेशन स्किल जैसे शब्दों में उसे बांधकर उसकी समीक्षा करते हैं।

2) स्कूली शिक्षा इस विज्ञानवादी परंपरा को बढ़ाने में काफी मुस्तैद है। विज्ञान और वाणिज्य को जहाँ ‘हाई स्टेटस‘ वाले संकाय माना जाता है, वहीं मानविकी और लिबरल आर्टस को दोयम दर्जे का माना जाता है। एक तरह से युवा मस्तिष्क को साहित्य, इतिहास, दर्शन और राजनीति विज्ञान जैसे विषयों को पढ़ने से रोका जाता है। स्कूल और अभिभावक; दोनों मिलकर ऐसा माहौल तैयार कर देते हैं कि युवाओं को लगने लगता है कि इंजीनयरिंग, मेडिकल और कॉमर्स के अलावा कोई कैरियर ही नहीं है। विज्ञान से जुड़े जेईई को राष्ट्रीय जुनून बना देने वाला समाज स्वस्थ नहीं कहा जा सकता।

3) भारत में लिबरल कलाओं की स्थिति दयनीय है। इससे दूर होते विद्यार्थियों के चलते कॉलेज में इसके सेक्शन खाली और नीरस पड़े रहते हैं। लोग समझते हैं कि इतिहास तो बस तिथियों को याद रखने का नाम है। समाजशास्त्र को भी इसी प्रकार परिवार, विवाह आदि से जोड़कर देखा जाता है। यू तो विज्ञान की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है, लेकिन लिबरल आर्टस् से बेहतर है।

यद्यपि मानविकी और लिबरल आर्टस के लिए चुनौतियां और अवरोध बहुत हैं, परंतु अगर इसके ध्वजावाहक शिक्षक इसे युवाओं के लिए आकर्षक बना सकें, तो संभावनाएं भी कम नहीं हैं। युवाओं को यह समझाने की आवश्यकता है कि विज्ञान के अलावा भी ज्ञान के कई क्षेत्र हैं। ये क्षेत्र संस्कृति और कल्पना से जुडे़ हैं। साथ ही ये सबके दृष्टिकोण को बदलने से उसी तरह से संबंधित हैं, जैसे माक्र्स और फ्रायड ने अपने समय में किया है, और आज के समय में नारीवादी और महत्वपूर्ण सिद्धांतवादी कर रहे हैं। ये क्षेत्र प्रबंधन और इंजीनियरिंग की तरह आर्थिक विकास को गति तो नहीं दे सकते, लेकिन हमें सांस्कृतिक, राजनैतिक और आध्यात्मिक रूप से परिपूर्ण करते हैं।

सच तो यह है कि हमारे डॉक्टर और प्रबंधन के लोगों को भी लिबरल आर्टस पढाया जाना चाहिए। एक डॉक्टर का ऐसे दार्शनिक से साक्षात्कार करवाया जाना चाहिए, जो जीवन और मृत्यु पर बौद्ध भिक्षुक के विचारों को समझा सके। इसी प्रकार एक टैक्नोमैनेजर को मानवविज्ञानी से रूबरू होना चाहिए, जो उसे स्थानीय निवासियों की आजीविका और पारिस्थितिकी के बारे में समझा सके। लिबरल शिक्षा के अभाव में हमने तकनीकी कौशल से युक्त ऐसे प्रोफेशनल तैयार करने शुरू कर दिए हैं, जो सांस्कृतिक रूप से रिक्त हैं। तकनीक जीत गई है, और विवेक हार गया है। हम अच्छे खाते-पीते, अच्छा वेतन पाने वाले, सूट-बूट पहने दास तैयार कर रहे हैं। यह अत्यंत खतरनाक स्थिति है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस‘ में प्रकाशित अविजीत पाठक के लेख पर आधारित। 6 जून, 2019

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