कठघरे में नीति आयोग

Afeias
08 Jul 2019
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Date:08-07-19

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भारत की समस्याएं जटिल हैं, क्योंकि ये सभी आपस में जुड़ी हुई हैं। रोजगार और आय; निवेश और प्रगति; आर्थिक क्षेत्र का ऊलझाव; अंतरराष्ट्रीय व्यापार; शिक्षा और स्वास्थ्य; जैसे क्षेत्र ऐसे हैं, जहाँ एक को सुलझाने पर दूसरी ओर स्थिति खराब हो सकती है। इन जटिलताओं को सुलझाने हेतु सशक्त नीति और सुदृढ़ रणनीति की जरूरत है।

सवाल उठता है कि क्या भारत सरकार के पास ऐसी नीतियाँ और रणनीतियाँ बनाने की क्षमता है ?

जटिलता की इस चुनौती को समझते हुए प्रधानमंत्री ने 2015 में योजना आयोग का विघटन करके नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ट्रांस्फार्मिंग इंडिया (नीति आयोग) का गठन किया था। समय के साथ, अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने के कारण नीति आयोग को आज कठघरे में खड़ा कर दिया गया है। इसकी सार्थकता को जाँचे-परखे जाने की जरूरत है।

मोदी से पूर्व, अटल बिहारी बाजपेयी और मनमोहन सिंह को भी इसी प्रकार की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और वैश्विक जटिल चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। बाजपेयी जी ने इस बात पर जोर दिया था कि भारत जैसे विविधतापूर्ण प्रजातंत्र के लिए; जिसमें राज्य, निजी क्षेत्र, सामाजिक संस्थाएं और विपक्षी दल अपनी भागीदारी निभाते हैं; नीतियों का कार्यान्वयन इतना आसान नहीं है। इसके लिए सुनियोजित रणनीति के साथ-साथ सहभागिता आधारित कार्यान्वयन किया जाना चाहिए।

मनमोहन सिंह ने योजना आयोग में सुधार के अनेक प्रयास किए थे। कई हितधारकों से सलाह-मशविरा किया गया। वैश्विक कार्य-प्रणालियों को देखा गया था। योजना आयोग की एक ऐसी रूपरेखा खींची गई थी। जिसमें पंचवर्षीय योजनाएं बनाने की बजाय, उसके सिस्टम में सुधार की क्षमता विकसित की जा सके। बजट की जिम्मेदारी वित्त मंत्रालय को दे दी गई।

उस दौरान नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में योजना आयोग की सीमाओं को समझा और उसके लिए प्रस्तावित सुधारों पर भी ध्यान दिया। यही कारण है कि 2014 में सत्ता में आने के बाद उन्होंने इसे लागू करने में देर नहीं लगाई।

नीति आयोग की शुरूआत

  • भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रशस्त करने की दिशा में नीति आयोग चार्टर की शुरूआत महत्वपूर्ण थी।
  • एक जटिल, संघीय, सामाजिक-आर्थिक तंत्र में इस संस्था को उत्प्रेरक की भूमिका निभाने के उद्देश्य से लाया गया था।

वर्तमान संदर्भ में नीति आयोग की भूमिका को लेकर यह चिन्ता व्याप्त हो गई है कि आयोग, सरकार को दिशा-निर्देश देने वाली एक स्वतंत्र संस्था के रूप में अपनी अखंडता खो चुका है। यह सरकार की कठपुतली की तरह काम कर रहा है।

विशेषज्ञों का मानना है कि नीति आयोग के पास केन्द्र व राज्य सरकारों के कार्यक्रमों का स्वतंत्र अवलोकन करने की शक्ति है। कुछ का यह भी मानना है कि यूपीए-2 सरकार के कार्यकाल में इसमें एक स्वतंत्र मूल्यांकन कार्यालय हुआ करता था, जिसे समाप्त कर दिया गया है। यहाँ वे भूल जाते हैं कि योजना आयोग के मूलभूत परिवर्तन के लिए नीति आयोग का गठन किया गया था। इसें परंपरागत रूप से चलने वाला नंबरों और बजट के बाद वाला मूल्यांकन नहीं किया जाता है। इस 21वीं सदी के नीति आयोग के चार्टर में कार्य के संपन्न होने के साथ-साथ ही मूल्यांकन और सुधार किया जाता है। इसकी कार्यप्रणली में संगठनात्म्क सीख के ऐसे नए तरीकों को शामिल किए जाने की आवश्यकता है, जिससे इसके साथ जुड़े हितधारकों को साथ मिलकर नीतियां बनाने और कार्यान्वित करने का लाभ मिल सके।

वास्तव में तो नीति आयोग चार्टर में पुराने कार्यक्रम को एक नया जामा पहना दिया है। इसमें ऐसे नए तरीके अपनाए जाने की आवश्यकता है, जो सहभागिता का मार्ग दिखाए। सरकार को चाहिए कि वह इसकी कार्यप्रणाली की समीक्षा करते हुए इसकी क्षमता को इस प्रकार से बढ़ाए कि वह आगामी वर्षों का लक्ष्य घोषित करने वाली संस्था मात्र न रहकर, अपनी भूमिका में प्रगति दिखाए।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित अरुण मायरा के लेख पर आधारित। 10 जून, 2019

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