भारत में न्यायिक समीक्षा की परीक्षा
Date:22-10-19 To Download Click Here.
हाल ही में ब्रिटेन के सर्वोच्च न्यायालय ने वहाँ के प्रधानमंत्री द्वारा संसद का सत्रावसान किए जाने के कदम को गैर कानूनी ठहराया है। मामले को 11 न्यायाधीशों की पीठ ने सुना। मामले को गैरकानूनी बताकर यू.के. के सर्वोच्च न्यायालय ने ब्रिटेन के संविधान में महारानी के वर्चस्व को कायम रखा, और एक सच्चे प्रहरी की तरह काम किया।
अगर इससे भारत की स्थिति की तुलना की जाए, तो इस वर्ष कार्यकारिणी ने दो ऐसे कदम उठाए हैं, जो संसदीय कार्यप्रणाली को कमजोर करने की दिशा में थे। इनमें पहला तो आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था करना था, और दूसरा जम्मू-कमीर के संबंध में विधेयक को पारित कराना था।
आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान 48 घंटे के लिए ही संसद के विचाराधीन प्रस्तुत किया गया था। इस प्रकार विधेयक की जाँच-पड़ताल के लिए संसद के पास बहुत कम समय रहा। जम्मू-कश्मीर से संबंधित विधेयक की भी यही स्थिति रही थी।
जम्मू-कश्मीर आरक्षण विधेयक को भी संसद के मानसून सत्र को जबरन खींचकर अचानक ही पेश किया गया। राज्यसभा में गृह मंत्री ने धारा 370 को खत्म करने संबंधी प्रस्ताव प्रस्तुत किया। विधेयक को प्रस्तुत करने के 15 मिनट बाद भी सांसदों को इसकी प्रतियां नहीं दी गई थीं।
परंपरागत रूप से किसी भी वैधानिक दस्तावेज को प्रस्तावित करने से कुछ दिन पूर्व उसकी प्रतियां बांट दी जाती हैं। सांसदों को दस्तावेज की सामग्री पर विचार करके उसे रखने का समय मिल जाता है। जिस प्रकार से दोनों विधेयक संसद में प्रस्तावित किए गए, वह संसद की प्रक्रिया और उसके आचरण का उल्लंघन था।
राज्यसभा के नियम 69 में खासतौर पर ‘विधेयक पेश करने के बाद प्रस्ताव’ और ‘वाद-विवाद की गुंजाइश’ के बारे में बताया गया है। इस नियम के अंतर्गत कुछ अपवाद स्थितियों में सभापति को निर्णय लेने का अधिकार होता है। परन्तु वह इसे विवेकपूर्ण तरीके से और मस्तिष्क के उचित प्रयोग से ही लागू कर सकता है। संसद के सदनों पर पीठासीन नेता इस बात की कोई ठोस व्याख्या नहीं कर पाते हैं कि आखिर सरकार संसदीय नियमों का उल्लंघन कैसे कर लेती है।
ब्रिटेन और भारत के प्रधानमंत्रियों ने संसदीय प्रक्रिया की खुलेआम उपेक्षा की है। इससे प्रजातांत्रिक संस्था कमजोर होती हैं। यूनाइटेड किंगडम में तो न्यायालय ने अपनी दृढ़ता दिखा दी है। भारतीय न्यायालयों के पास इस बात का मूल्यांकन करने के लिए पर्याप्त तथ्य हैं कि कार्यकारिणी ने संसदीय प्रक्रिया को कम आंका है। अब यह न्यायालयों पर निर्भर करता है कि वह भारतीय न्यायिक प्रक्रिया की सर्वोच्चता की रक्षा कैसे करते हैं।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित मनुराज शुन्मुग सुंदरम के लेख पर आधारित। 1 अक्टूबर, 2019