राज्यपालों के कार्यों की समीक्षा हो

Afeias
18 Dec 2019
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Date:18-12-19

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2019 में दो राज्यपालों द्वारा उठाए गए कुछ कदमों को लेकर संविधान में दी गई राज्यपाल की भूमिका पर एक विवेचनात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता आ पड़ी है। महाराष्ट्र और कर्नाटक के राज्यपालों ने भाजपा के नेताओं को तब सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया, जब उनके पास विधानसभा में बहुमत नहीं था। इस पर प्रश्न उठ खड़ा होता है कि भाजपा के नेताओं ने बहुमत से संबंधित ऐसे क्या दावे किए, जिससे राज्यपाल उन्हें आमंत्रित करने के लिए सहमत हो गए? दूसरे, इन दावों पर सार्वजनिक रूप से प्रतिकूल सूचना उपलब्ध होने पर भी आखिर राज्यपाल इनसे कैसे आश्वस्त हो गए? मुंबई के राजभवन में ऐसा शपथ ग्रहण समारोह हुआ, जिसके बारे में सीमित या नही के बराबर सार्वजनिक नोटिस दिया गया था।

ऐसी घटनाएं एक आशंका को जन्म देती हैं कि राजनीतिक पक्षपात और जोड़-तोड़ के लिए राज्यपाल के कार्यालय का दुरूपयोग किया जा सकता है। अगर यह सत्य है, तो संवैधानिक मूल्यों की रक्षा हेतु राज्यपाल कार्यालय की भूमिका की समीक्षा की जानी चाहिए।

संविधान क्या कहता है?

अप्रैल, 1948 में, संविधान की प्रारूप समिति ने राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को हटाने पर जोर दिया था। 1949 में एक अवसर पर बी.आर.अंबेडकर ने कहा था कि राज्यपाल को, ‘‘सभी मामलों में अपने मंत्रालय की सलाह का पालन करना आवश्यक है।’’ हांलाकि यह सही है कि चुनाव में किसी दल को पूर्ण बहुमत न मिलने पर, सरकार गठन के लिए राज्यपाल को अपने विवेक का प्रयोग करना होगा।

पूर्व मामलों से सीख –

एस.आर.बोम्मई बनाम भारत संघ रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ और नबाम रेबिया बनाम उप सभापति के कुछ मामले ऐसे हैं, जो राज्यपाल को चुनाव के बाद, सरकार गठन के लिए किए जाने वाले दावों की सच्चाई को जांचने में राज्यपाल के लिए सहारा बन सकते हैं।

केन्द्र और उसके राज्यपाल

दुर्भाग्यवश, राज्यपाल की नियुक्ति प्रक्रिया ऐसी है, जिसने उसे केन्द्र सरकार के प्रभाव में रख छोड़ा है। पहले भी इस पद पर आसीन हस्तियों ने केन्द्र सरकार से ही दिशानिर्देश लिया है। हाल ही में जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने भी केन्द्र सरकार से डरने की बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था।

संवैधानिक विशेषज्ञ नूरानी ने इस बात से आगाह किया है कि, ‘‘अगर किसी राज्य में केन्द्र द्वारा नियुक्त पद द्वारा जनादेश की वंचना की जाए, तो उस राज्य की स्वायत्तता शून्य हो जाती है।’’

संवैधानिक सुधार की आवश्यकता

राज्यपाल और उसके कार्यकाल की नियुक्ति में बड़े सुधारों की जरूरत है। इस हेतु पहले भी कुछ प्रयास किए गए हैं। उन पर एक नजर –

  • 1969 में तमिलनाडु सरकार ने केन्द्र-राज्य संबंधों पर समीक्षा के लिए राजामन्नार समिति का गठन किया था।

इस समिति ने सिफारिश की थी कि राज्यपालों के विवेकाधीन अधिकारों को कम रने के लिए, उनकी चुनाव प्रक्रिया में राज्य सरकारों को भी शामिल किया जाना चाहिए।

  • राज्यपालों ने संविधान द्वारा प्रदान की गई कानूनी प्रतिरक्षा का लाभ, लंबे समय तक उठाया है। अब, सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी सर्वोच्चता सिद्ध करते हुए राज्यपाल के कार्यों की समीक्षा के द्वार खोल दिए हैं। अब राज्यपाल को कानूनी जांच के अधीन किया जा सकता है।

वह समय बीत गया जब वेस्टमिनस्टर मॉडल के प्रजातंत्र में एक राज्य के लिए संप्रभु और सांकेतिक मुखिया नियुक्त किया जाता था। अब तो राज्यपाल कार्यालय और स्वयं राज्यपाल के कार्यों को जवाबदेही और पारदर्शिता के अधीन लाया जाना चाहिए। किसी अन्य सार्वजनिक कार्यालय की तरह ही राज्यपाल और उनके कार्यालयों की जांच का अधिकार दिया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय को चाहिए कि इस संबंध में दिशानिर्देश जारी करे।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित मनुराज शुन्मुग्रसुंदरम के लेख पर आधारित। 28 नवम्बर, 2019

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