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भारत के संघात्मक स्वरूप में राजनैतिक दलों को हाईकमान की पकड़ से दूर करने की जरुरत है
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यदि हम विभिन्न राजनीतिक दलों के ढाँचे पर दृष्टि डालें, तो यही देखने में आता है कि अधिकांश दल ‘हाई कमान‘ के निर्देशों पर चलते हैं। जब हमारी प्रकृति संघवाद पर आधारित है, तो ऐसा क्यों है ? देश के राजनीतिक दल चाहे राष्ट्रीय स्तर के हो या क्षेत्रीय, सभी में या तो एकल नेतृत्व चल रहा है या परिवारवाद।देखा गया है कि एकल नेतृत्व में चलने वाले राष्ट्रीय स्तर के दल अक्सर लंबी रेस का घोड़ा साबित नहीं होते। सन् 2014 में भारतीय जनता पार्टी के साथ भी यही हुआ था।
इसका सीधा सा कारण यह है कि संघात्मक राजनीति में राजनीतिक दलों को क्षेत्रीय स्तर पर भी उतनी ही मजबूती की आवश्यकता होती है, जितने कि वे राष्ट्रीय स्तर पर हैं। चूंकि 2014 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी का दिल्ली एवं बिहार जैसे राज्यों का नेतृत्व उतना सशक्त नहीं था, जितना कि उसे होना चाहिए था, इसलिए वहाँ उसकी बुरी तरह से हार हुई।
उत्तर प्रदेश के वर्तमान चुनावों में भी भाजपा ने यही गलती दोहराई है। भाजपा ने चुनावी प्रचार में अंत तक किसी सशक्त व्यक्ति को सामने नहीं किया। जाहिर सी बात है कि भाजपा अगर उत्तर प्रदेश में चुनाव जीत भी जाती है, तो जनता को पता है कि स्वयं नरेंद्र मोदी वहाँ का शासन नहीं संभालेंगे। ऐसी स्थिति में जनता क्षेत्रीय स्तर पर ही एक ऐसा व्यक्तित्व अपने नेता के रूप में चाहती है, जिस पर वह भरोसा कर सके।हमारा देश विशाल है और अगर राजनीतिक दल अपना विकेंद्रीकरण नहीं करेंगे, तो वे डूबेंगे ही डूबेंगे। जब तक क्षेत्रीय स्तर पर जनता को अच्छा नेता नहीं मिलता, तब तक वहाँ भी गठबंधन सरकारें बनती रहेंगी। जो राज्य बहुत बडे़ हैं, वहाँ पर उपक्षेत्रों के लिए फिर से विकेंद्रीकरण की जरूरत होती है। लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। महाराष्ट्र जैसे राज्य में राष्ट्रीय नेताओं को भी विदर्भ और मराठवाड़ा जैसे उप क्षेत्रों के लिए किसी स्थानीय सशक्त नेता की ही आवश्यकता होती है।
कांग्रेस के चुनाव हारने का बहुत बड़ा कारण यही रहा है कि वह राज्यों का नेतृत्व राष्ट्रीय नेता द्वारा तय कराना चाहती थी। यही हाल आम आदमी पार्टी का भी है।हमारा संविधान तो स्पष्ट रूप से कहता है कि भारत ‘राज्यों का संघ‘ है। हमारे राजनैतिक दल इसको भूले हुए से लगते हैं। आजादी के इतने वर्षों में केंद्र में लगभग एक ही दल ने राज किया है। राज्यों में भी लगभग यही परंपरा दोहराई जाती रही है।
संघीय शासन को सफल बनाने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि राजनैतिक दल मतदान के द्वारा अपना नेता चुनें। फिलहाल, दलों के ‘हाई कमान‘ द्वारा किसी एक व्यक्ति का राज्य के नेता के रूप में अभिषेक जैसा कर दिया जाता है। अगर गुजरात का उदाहरण लें, तो वहाँ के मुख्यमंत्री रूपानी का मनोनयन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। इस तरह थोपे जाने वाले मुख्यमंत्री की अपने मंत्रिमण्डल पर पकड़ कितनी कमज़ोर होगी, इसे सहज ही समझा जा सकता है। यह संघवाद के विरूद्ध है। हमारी राजनीति को संघबद्ध करना बहुत जरूरी है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया‘ में प्रकाशित आर जगन्नाथन के लेख पर आधारित।