उच्च शिक्षण संस्थानों के भविष्य को संवारा जा सकता है।

Afeias
17 Feb 2017
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Date:17-02-17

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उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भारत की स्थिति बहुत दयनीय है। इस क्षेत्र को अगर पहुंच, समानता और गुणवत्ता के स्तर पर जांचें, तो हम तीनों ही स्तर पर अपनी युवा पीढ़ी को न्याय देने में अक्षम रहे हैं।

  • समस्याएं क्या है ?
  • उच्च शिक्षा संस्थानों की कमी नहीं है, परंतु उनमें गुणवत्ता का अभाव है।
  • प्राध्यापकों की कमी के साथ-साथ पुस्तकों और अन्य सुविधाओं की बहुत कमी है। अनेक संस्थानों में संकाय प्राध्यापकों के लिहाज से लगभग आधे खाली हैं।
  • विशेषतौर पर दक्षिण भारत के संस्थानों में बहुत ज्यादा कैपीटेशन शुल्क लिया जाता है। इसके साथ ही यहाँ उच्च शिक्षा एक तरह से राजनीतिज्ञों के लिए व्यवसाय का साधन बन गया है, क्योंकि इन्हीं की मदद से ये संस्थान सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से ऋण की सुविधा प्राप्त करते हैं। ऐसा लगता है कि ये संस्थान डिग्री प्रदान करने की फैक्टरी मात्र हैं।
  • उच्च शिक्षा संस्थानों में से अधिकतर का पाठ्यक्रम बहुत पुराना तो है ही, वह विद्यार्थियों के लिए सृजनात्मक भी नहीं है।
  • योजना आयोग के अनुसार हमारे कुल स्नातकों में से केवल5 प्रतिशत को ही रोजगार मिल पाता है।
  • हमारे संस्थानों में अनुसंधान की सुविधाएं न के बराबर हैं। यही कारण है कि विश्व के उत्कृष्ट 200 संस्थानों में भारत का एक भी संस्थान शामिल नहीं है। जबकि चीन के 10 संस्थान इस सूची में शामिल हैं। हांलाकि यह अंतरराष्ट्रीय सूचीक्रम कोई एकमात्र मानदण्ड नहीं है, फिर भी यह भारतीय उच्च शिक्षा के स्तर की झलक तो दे ही देता है।
  • समाधान
  • विद्यालय से निकले प्रत्येक विद्यार्थी को विश्वविद्यालय में प्रवेश का अधिकार मिलना चाहिए। उनके लिए दो धाराओं में उच्च शिक्षा का प्रावधान हो। (1) एक धारा ऐसी हो, जो उन्हें दो वर्ष की व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करे। इन संस्थानों का खर्च सरकार और स्थानीय व्यवसाय जगत मिलकर वहन करें। यह प्रणाली जर्मनी में चल रही है। (2) दूसरी धारा के विद्यार्थी तीन वर्ष के पाठ्यक्रम का अध्ययन करें। इसमें वे सामान्य विज्ञान एवं कला से जुड़े विषय पढ़ें। इसका खर्च सरकार वहन करे। यह प्रणाली कैलीफोर्निया कम्युनिटी कॉलेज मॉडल जैसी होगी।
  • इन दोनों ही धाराओं में से एक प्रवेश परीक्षा के द्वारा 10% विद्यार्थियों को चुना जाए। चयनित विद्यार्थियों को आगे की उच्च शिक्षा का अवसर दिया जाए। इन्हें फिर से दो धाराओं में से एक को चुनने का अवसर मिले। एक धारा होगी, जिसमें निजी या सरकारी सहायता प्राप्त इंजीनियरिंग, चिकित्सा आदि से जुड़े अन्य व्यावसायिक पाठ्यक्रम हों। यहाँ फीस ज्यादा हो, लेकिन साथ ही विद्यार्थियों को ऋण लेने की सुविधा भी हो। दूसरी धारा में सार्वजनिक विश्वविद्यालय हों। देश भर में इनकी संख्या 50 से ज्यादा न हो। इसमें विज्ञान और कला संकायों से जुड़े विशेष विषय हों। यहाँ भी फीस ज़्यादा हो, लेकिन ऋण उपलब्ध हो। फिलहाल देशभर में ऐसे 700 विश्वविद्यालय चल रहे हैं, जिन्हें सीमित करके 50 तक लाने की आवश्यकता है।

इन दोनों धाराओं में से चयनित 1 विद्यार्थियों को एक सार्वजनिक विश्व-स्तरीय विश्वविद्यालय में पढ़ने का मौका मिले। देश में ऐसे विश्वविद्यालय एक या दो हों। यहाँ की पढ़ाई स्कॉलरशिप पर शुल्करहित रखी जाए।

  • उच्च शिक्षा संस्थानों के संचालन से राजनीतिज्ञों, प्रशासकों और यूजीसी जैसी नियामक संस्थाओं को दूर रखा जाए।
  • हर तीन वर्ष पर विश्वविद्यालय का एक ऑडिट करवाया जाए। साथ ही संस्थान राशि का ब्योरा, विधायिका को सौंपे।
  • प्राध्यापकों का चुनाव और तरक्की उनके काम के पुनरीक्षण के आधार पर किया जाए। पुनरीक्षण के इस कार्य को संकाय के ही प्राध्यापक बाहरी विद्वत समीक्षा के आधार पर करें। नियुक्ति के हर तीन वर्ष बाद इन प्राध्यापकों का गुणांकन किया जाए। वरिष्ठता के आधार पर कोई तरक्की न दी जाए। गुणांकन के बाद ही वेतन वृद्धि की जाए। वेतन-व्यवस्था लचीली हो, जिसमे असाधारण प्रतिभाओं को प्रोत्साहित किया जा सके।

वर्तमान में प्रचलित वेतन आयोग द्वारा निर्धारित वेतन और वृद्धि व्यवस्था को हटा दिया जाना चाहिए।

  • दूरस्थ शिक्षा की आधुनिक तकनीक का पूरा लाभ उठाया जाना चाहिए। विशेषकर उच्च श्रेणी के पाठ्यक्रमों में उपलब्ध इंटरनेशनल मैसिव ओपन ऑनलाइन कोर्सेस (MOOCS) सिस्टम का उपयोग किया जा सकता है। हमारे विद्यार्थियों के स्तर को बढ़ाने के साथ ही यह प्राध्यापकों की कमी को भी पूरा कर सकेगा।
  • अमेरिका की तर्ज पर यहाँ के उच्च शिक्षा संस्थानों को भी अनुसंधान के साथ स्थानीय उद्योगों और व्यवसायों से जोड़ा जाना चाहिए।
  • अमेरिका की ही तरह यहाँ के विश्वविद्यालयों में भी ऊँचे स्थान पर आने की होड़ शुरू कर दी जाए। अमेरिका में प्राध्यापकों और अच्छे विद्यार्थियों को अपने-अपने संस्थानों में बुलाने की होड़ सी लगी रहती है। वहाँ किसी प्राध्यापक के चले जाने के साथ ही उसके साथ जुड़ी समस्त शोध योजनाएं विद्यार्थी और लैब तक स्थानांतरित हो जाते हैं। इसलिए सभी संस्थान शोध, अनुसंधान एवं अन्वेषण के लिए सभी सुविधाएं देना चाहते हैं। यदि भारत में भी हम ऐसा कर सके, तो अच्छा होगा।
  • अमेरिका के कई संस्थानों में बाहरी एजेंसियों से शोध के लिए धनराशि ली जाती है। भारत में ऐसा किया जा सकता है, बशर्ते यूजीसी एवं सीएसआईआर जैसे अनुदान संस्थानों को प्रशासकीय नियंत्रण से मुक्ति मिल सके।
  • भारत में जाति के आधार पर आरक्षण के कारण उच्च शिक्षा संस्थानों के स्तर को बढ़ाने में बहुत सी मुश्किलें आती हैं। ऐसा लगता है कि आरक्षण के आधार पर प्रवेश लेकर आए विद्यार्थी जब लगातार बेरोज़गारी से जूझेंगे, तब शायद उन्हें खुद ही समझ में आ जाए कि ऊपर उठने के लिए आरक्षण की नहीं बल्कि मेहनत की आवश्यकता होती है। तभी हम सही मायने में विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों के स्वप्न को साकार कर पाएंगे।

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित प्रणव वर्धन के लेख पर आधरित।

 

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