पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप में भारत के सबक

Afeias
03 Sep 2019
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Date:03-09-19

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भारत के कई क्षेत्रों में पब्लिक प्राइवेट पाटर्नरशिप के माध्यम से विकास की नीति पर बात की जा रही है। इस संदर्भ में बुनियादी ढांचा क्षेत्र में प्रक्रिया पर तेजी से काम हो रहा है। ब्रिटेन में इस प्रकार की साझेदारी पर वर्षों से काम किया जा रहा है। अतः उसके उदाहरण से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं।

  • ब्रिटिश सरकार ने 1989 में जलापूर्ति और सीवरेज सेवाओं को निजी क्षेत्र को सौंप दिया था। यह क्षेत्र सरकारी हाथों में बहुत कर्ज में डूबा हुआ था। घरेलू बिलों में 40% की कमी करने में भी सफलता प्राप्त की। लेकिन रखरखाव और विकास का कार्य उधार पर ही चलता रहा।
  • रेलवे के निजीकरण से रेलवे का किराया बढ़ने के बावजूद लोगों की आवाजाही बढ़ी। 2011 की एक सरकारी रिपोर्ट बताती है कि शेष यूरोपीय देशों की तुलना में ब्रिटिश रेलवे के किराए 30% महंगे हैं। जबकि उपयोग में भारी वृद्धि होने के बावजूद प्रति किलोमीटर प्रतियात्री लागत 1996 जितनी ही है।
  • प्राइवेट फाइनेंस इनिशिएटिव की राष्ट्रीय ऑडिट कार्यालय द्वारा की गई समीक्षा से ज्ञात हुआ कि निजी फाइनेंस के अधीन बने स्कूल और अस्पताल, सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों की तुलना में 40% और 60% महंगे हैं।

पाया गया कि बहुत ही कम निजी योजनाएं ऐसी रहीं, जो व्यय की कीमत पर खरी उतरी हों।

  • निजी कंपनियों की सर्विस क्वालिटी कोई बहुत अच्छी नहीं रही। 2000-11 तक ब्रिटिश रेलवे की विश्वसनीयता और समयनिष्ठता में मात्र 3% की ही वृद्धि हुई।

जल और सीवरेज सुविधाओं में भी कंपनियों ने निवेश में कंजूसी दिखाकर पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। 2018 की पर्यावरण एजेंसी की रिपोर्ट बताती है कि वहाँ की नदियां केवल न्यूनतम पैमाने पर खरी उतरती हैं। टेम्स नदी में काफी मात्रा में अपरिष्कृत सीवेज भी छोड़ा गया।

  • 2018 के एक सर्वेक्षण में 76-83% लोगों ने रेलवे, ऊर्जा एवं जल विभाग के फिर से राष्ट्रीयकरण की अपील की है। वहाँ की लेबर पार्टी ने ऐसा करने की घोषणा भी कर दी है।

यू.के. सरकार के निजीकरण का यह प्रयास भारत के लिए कितना उपयुक्त है ?

  • भारत के सार्वजनिक क्षेत्र की अपनी बाधाएं हैं। भर्ती प्रक्रिया में राजनैतिक हस्तक्षेप है। ट्रेड यूनियनों की प्रतिस्पर्धात्मक गतिविधियां, वेतन के मामलों में कठोरता, सर्विस के मामलों में न्यायालयों में रिट याचिकाएं आदि सार्वजनिक क्षेत्र के व्यक्तिगत प्रबंधन की क्षमता पर विपरीत प्रभाव डालते हैं।
  • खरीद और संचालन के निर्णयों की क्षमता पर सतर्कता एवं महानियंत्रक लेखा परीक्षक आदि एजेंसी विपरीत प्रभाव डालती हैं। इस प्रकार भारत की सार्वजनिक एजेंसियां अप्रभावी और भ्रष्ट सिद्ध हुई हैं। खासतौर पर नागरिकों को सेवा प्रदान करने के मामले में ये असफल सिद्ध हुई हैं।
  • इन स्थितियों में भारत में निजी सेवाप्रदाताओं से बेहतर सेवा की उम्मीद की जा सकती है। यू.के. की तुलना में भारत में पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के सफल होने की अधिक संभावना है।
  • भारत में नियमन क्षमता बहुत कमजोर है। परंतु यू.के. से सबक सीखने को मिलता है कि अच्छे नियमन से भी निवेश की पूंजी का सही उपयोग नहीं किया जा सकता। भारत में भी ऐसा होने की आशंका है। थोड़े समय के राजकोषीय घाटे को बचाने के लिए पीपीपी मॉडल को लागू करना विवेकपूर्ण नहीं है, क्योंकि निजी क्षेत्र को साथ लेने की भारी कीमत चुकानी पड़ती है।
  • पीपीपी को लागू करने में भारत को सिद्धाँतवादी नहीं, बल्कि यथार्थवादी होने की आवश्यकता है। इसकी शुरूआत केवल राजकोषीय घाटा कम करने के लिए नहीं होनी चाहिए, बल्कि सेवा की गुडवत्ता में सुधार या क्षमता बढ़ाने के लिए भी होनी चाहिए।
  • दूसरे, योजना का प्रकार और पीपीपी अवयवों का चुनाव सोच-समझकर किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, निर्माण ऐसा उद्योग है, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र का धन लगा हो, परंतु संचालन निजी हाथ में हो, तो परिणाम अच्छे देखे गए हैं।
  • लंबी अवधि के अनुबंध करना मुश्किल होता है। अतः पुनः समझौते करना अपरिहार्य है। इसके लिए स्पष्ट सिद्धांत हों। समझौते के नवीकरण के लिए भी उचित तंत्र हो।

‘द इंडियन एक्सप्रेस‘ में प्रकाशित टी. वी. सोमनाथन और गुलजार नटराजन के लेख पर आधारित। 30 जुलाई, 2019

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