भारतीयता क्या है?

Afeias
02 Sep 2019
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Date:02-09-19

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हर एक सभ्यता का विश्व होता है और उसमें मानवों के प्रति अपना एक दृष्टिकोण होता है। इस दृष्टिकोण के कारण उपजे मूल्य ही उसके सदस्यों के मानस पर छप जाते हैं। हमारी अपनी सभ्यता के वैश्विक दृष्टिकोण में संवेदना का उच्च स्थान रहा है।

इस संदर्भ में प्राचीन भारत के बुद्ध, मध्ययुग के कबीर, नानक, तुकाराम, बसावा, आधुनिक युग के टैगोर और गांधी जैसे कुछ प्रतिष्ठित भारतीय मस्तिष्क में कौंध जाते हैं, जिन्होंने न केवल मानव बल्कि समस्त सृष्टि से जुड़ने के लिए संवेदना को आवश्यक बताया था। टैगोर और गांधी तो इस मुद्दे पर बिल्कुल एकमत दिखाई देते हैं। गांधी एक पत्र में लिखते हैं, कि ‘‘भाईचारा अब सिर्फ एक दूर की कौड़ी है। मेरे लिए यह आध्यात्मिकता की सच्ची परीक्षा है। हमारी सारी प्रार्थनाएं और पर्व तब तक अधूरे हैं, जब तक हम समस्त जीवनों के बीच एक जीवंत संबंध कायम नहीं कर लेते।’’

संवेदना, एक प्रकार के संबंध की भावना है, ‘हम’ की भावना, जो हमारे अपनों से परे तक जाती है। यह संबंध की भावना केवल मनुष्यों तक सीमित न होकर पूरे प्राकृतिक जगत तक विस्तृत हो जाती है। संवेदना की तुलना, किसी पर्वत चोटी पर चढ़ते हुए स्थान-स्थान पर बनने वाले बेस कैंप से की जा सकती है।

इसमें पहला कैंप ऐसा होता है, जहाँ से हमें लक्ष्य दिखाई नहीं देता। ऐसा लगता है कि वह बादलों से घिरा हुआ है। यह कैंप सहिष्णुता का है। इससे थोड़ी ऊँचाई पर बना अगला कैंप करूणा का है। तीसरा और आखरी कैंप, जहाँ व्यक्ति लक्ष्य को पा जाता है, वह सहानुभूति है यानि दूसरे इंसान के प्रति भावना रखना। सहानुभूति प्रकृति के प्रति भी हो सकती है। समस्या यह है कि आगे बढ़ने के साथ ही प्रेमपूर्ण एकात्म की भावना गहरी होती जाती है। इस भावना से एकाकार होने वाले विरले ही संत या ऋषि मुनि होते हैं। उपनिषदों में ऐसे आदर्श व्यक्तियों के लिए कहा गया है कि वे सभी प्राणियों में अपनी छवि या अपने रूप में समस्त प्राणियों को देख लेते हैं। हम में से अधिकांश अपने को सौभाग्यशाली समझ सकते हैं, अगर हमें सहिष्णुता, करूणा और सहानुभूति के बेस कैंप से ही संवेदना जैसे चरम बिन्दु की झलक मिल जाए।

वर्तमान समय में यह महसूस होता है कि पारंपरिक भारतीय सभ्यता यद्यपि संवेदना और प्रेम के उदात्त स्वरूप पर बल देती है, जो सामाजिक एक जुटता हेतु अत्यंत आवश्यक भी है, तथापि उस पर न्याय और सही-गलत के अनेक मूल्यों द्वारा ग्रहण लग गया है। फ्रांसीसी क्रांति के लिबर्टी, इक्वेलिटी, फ्रेटरनिटी (स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा) वाले नारे से तो सभी परिचित हैं। अब वैश्विक नारा बन चुके इस छोटे से क्रम में भाईचारे को आखिर में रखा गया है। इतना ही नहीं, इसे पूरी तरह मूक भी कर दिया गया है।

इसका कारण है कि पश्चिम के बौद्धिक गुरूओं के प्रति आकर्षण से प्रभावित होकर कब हम सामाजिक संदर्भों में शक्ति की सर्वोच्चता के विचार से प्रभावित होते चले गए, हमें पता भी नहीं चला। ऐसा कहने का मतलब यह नहीं है कि शक्ति की भूमिका और उसमें निहित सच्चाई को नकारा जा रहा है, बल्कि यह बताने का प्रयत्न किया जा रहा है कि इसमें निहित सत्य को, संवेदना की हमारी पारंपरिक विरासत के साथ आत्मसात किया जाना चाहिए।

उदाहरण के तौर पर देश में कमजोर वर्ग को न्याय प्रदान करने के लिए अनेक आंदोलन चलाए जा रहे हैं। ये आंदोलन “मनुस्मृति” में वर्णित हमारी पारंपरिक वर्ण व्यवस्था और शक्ति के अधिकार के विरुद्ध है। लेकिन ये फ्रांसीसी नारे में समानता के पक्ष की वकालत करते हैं। यह स्वागतयोग्य है।

आज न्याय की नैतिकता में रास्ता मायने नहीं रखता। महत्व परिणाम का है। हमारे देश में ऐसी आवाजें उठी हैं, जिन्होंने न्याय का चोला पहनकर हिंसा को प्रश्रय दिया है। ऐसे मामलों में सहानुभूति और करुणा की भावना को अपना आक्रोश दिखाने का अधिकार है या नहीं? किसी गलत को सही बनाने के चक्कर में पड़े लोग एक बार न्याय की नैतिकता को अपने समक्ष लाकर देखें और बताएं कि क्या ऐसा करके वे गांधी और टैगोर द्वारा भारतीय सभ्यता की पहचान-संवेदना और सहानुभूति से दूर नहीं जा रहे हैं?

पिछले कुछ वर्षों में समस्त विश्व में राष्ट्रवाद की एक लहर सी चली हुई है। तुर्की, इंडोनेशिया, भारत और इस्लामिक देशों में जहाँ धार्मिक राष्ट्रवाद चल रहा है, यूरोप में इसे सांस्कृतिक रूप दे दिया गया है। यह सब देखते हुए कहा जा सकता है कि धर्मनिरपेक्ष और समावेशी राष्ट्रवाद एक उदार स्वप्न हुआ करता था, जिसके अब पक्षधर विरले ही हैं। वास्तव में जिस राष्ट्रवाद की आवश्यकता है, वह समावेशी हो। ऐसा प्रगतिशील न हो, जो मानव के भौतिक जीवन की शर्तों को बस पूरा करें, बल्कि ऐसा हो, जो सहानुभूति की हमारी विरासत द्वारा विकिर्णित चेतना को बढ़ावा दे।

अब एक ऐसे भारत के विचार के पुनरूत्थान की आवश्यकता है, जिसकी जड़ें हमारी सभ्यता में गहरी धंसी हों और जिसके साक्षी हमारे सांस्कृतिक प्रतिमान हों। इतिहास में कुछ ऐसे अध्याय रहे हैं, जब हमारी हस्ती को मिटाने का प्रयत्न किया गया था। उस बेसुधी के दौर में भी संवेदना हमारे मानस पर प्राथमिकता से छाई रही। यह उस बेचैनी के रूप में छाई रही, जो हमारी सभ्यता के उच्चतम आदर्शों के साथ विश्वासघात होने के कारण जन्मी थी। यही भारतीयता है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित सुधीर काकर के लेख पर आधारित। 22 जुलाई, 2019

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