एक परम्परावादी भारतीयता की खोज

Afeias
26 Nov 2019
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Date:26-11-19

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चुनावों में काँग्रेस के पतन से अनेक भारतीय चिंतित हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि विकल्प और एक जिम्मेदार विपक्ष का क्या महत्व है। अन्य देशों का प्रजातंत्र उदारवादी और परम्परावादी जैसे धड़ों में बंटा होता है। इस प्रकार वह दो दल प्रणाली पर चलता है। उदारवादी दल आधुनिकता पसंद होता है, जबकि दूसरा परम्परा और निरन्तरता के पक्ष में रहता है। उदारवादी तेजी से बदलाव चाहते हैं, जबकि परम्परावादी क्रमिक परिवर्तन पसंद करते हैं। जहाँ परम्परावादी राष्ट्रवादी, धार्मिक और बाजार उन्मुख होते हैं, वहीं उदारवादी अधिक धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक कल्याण के प्रति उन्मुख होते हैं। इन शर्तों को भारत की दलीय प्रणाली पर लागू करना आसान नहीं है। लेकिन यदि ऐसा हो सके, तो लाभ ही होगा।

स्वतंत्रता के बाद से ही भारत में एक दल का वर्चस्व रहा है। और विपक्ष शायद ही कभी रचनात्मक या प्रभावी रहा है। काँग्रेस के लंबे कार्यकाल के बाद अब वह एकल पार्टी भाजपा हो गई है। भारत के दो राष्ट्रीय दल, उदारवादियों और परम्परावादियों के बीच के द्वंद्ववाद को आंशिक रूप से दर्शाते हैं। यहाँ महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इससे कई भारतीय अपने आप को पीछे छूटा हुआ महसूस करते हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे धार्मिक हैं, जो परम्परा के साथ-साथ निरन्तरता चाहते हैं। लेकिन वे एक हिन्दू राष्ट्र नहीं चाहते। वे ‘हिन्दूवाद’ के स्थान पर राष्ट्रीयता को प्रमुखता देते हैं। कुछ अन्य हैं, जो समाजवाद जैसे यूटोपिया पर संदेह करते हैं। क्या परम्परावादी उन्हें कोई आश्वासन दे सकते हैं?

स्वतंत्रता के बाद ही काँग्रेस ने अपनी परम्परावादी मितव्ययी आर्थिक व्यवस्था को त्यागकर समाजवादी व्यवस्था को अपना लिया। इसका विरोध परम्परावादी स्वतंत्र दल ने किया। इस दल ने काँग्रेस के लाइसेंस राज से आर्थिक स्वतंत्रता का बचाव किया। हांलाकि 1991 में समाजवाद को पीछे छोड़कर काँग्रेस पार्टी अनिच्छा से सुधारवादी बन गई। काँग्रेस के भीतर उदारवादियों ने परम्परावादियों पर हमेशा हमला किया है। भले ही आज इसके राजवंश का पतन हो गया हो, परन्तु ऐसा नहीं लगता कि पार्टी अपने केन्द्र में रही गरीब समर्थक, उदारवादी, धर्म-निरपेक्ष नीति को छोड़ देगी। जो लोग इसे आधुनिक समय की स्वतंत्र पार्टी में परिवर्तित करना चाह रहे हैं, वे एक प्रकार से अटपटे सपनों का पीछा कर रहे हैं।

अपने धार्मिक राष्ट्रवाद के आधार पर भाजपा, रूढ़िवाद का मजबूत दावा कर सकती है। अमेरिका के रिपब्लिकन, इंग्लैण्ड के टोरी और जर्मनी के ईसाई डेमोक्रेटस् भी धार्मिक और राष्ट्रवादी परम्परावादियों को स्थान देते हैं। 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रभावशाली भाषणों को सुनकर कई लोगों ने एक मजबूत भाजपा के पक्ष मेंं मतदान किया था। चायवाले की जीत की तुलना सामाजिक संदर्भ में, ब्रिटिश कंजरवेटिव डिसरायल टोरी प्रजातंत्र से की गई थी। हांलाकि मोदी के नए समर्थक धार्मिक थे, परन्तु उन्होंने हिन्दुत्व की परवाह नहीं की, और सोचा कि मोदी का अर्थिक एजेंडा प्रबल होगा।

इनमें से एक जयतीर्थ राव थे, जिनकी आगामी पुस्तक ‘द इंडियन कंजरवेटिव‘ अनेक परम्पदावादी भारतीयों की चली आ रही लंबी विचार श्रृंखला  से प्रेरित है। इनमें राजाराम मोहन राय, विवेकानंद, लाजपत राय, बंकिम चन्द्र व अन्य हैं। एक अच्छे परम्परावादी की तरह ही राव निरन्तरता को महत्व देते हैंं, और आधुनिक भारतीय शासन को ब्रिटिश राज का उत्तराधिकारी मानते हुए उसे सम्मान देते हैं।

वे हमारे संविधान में निहित भारत को एकीकृत करने और ज्ञान-मूल्यों की विरासत को छोड़ने के लिए अंग्रेजों की सराहना करते हैं। वे प्रश्न करते हैं कि अगर सिलोन के गवर्नर की तरह ही मद्रास और बॉम्बे के गवर्नर सीधे लंदन को रिपोर्ट करते, तब स्वतंत्र भारत एक अपेक्षाकृत संकुचित राष्ट्र रह जाता। सब मानते हैं कि अगर बाल्डविन, चर्चिल पर भारी पड़ जाता, और 1930 में ही भारत को प्रभुत्व मिल जाता, तो भारत को दुखद विभाजन नहीं झेलना पड़ता।

19वीं शताब्दी में राममोहन राय चाहे थे कि भारतीय अपने समृद्ध बौद्धिक परम्पराओं का पालन करें। उनका आधुनिकीकरण और सुधार करें। बंकिम, आर्य समाज, और अन्य लोगों  ने उन्हें पुनर्जीवित करना पसन्द किया। यह विरोध आज भी जारी है। कुछ वर्ष पहले रामचन्द्र गुहा ने पूछा था, ‘भारत के परम्परावादी बुद्धिजीवी कहां हैं?’ जयतीर्थ राव की तरह उनका आधार यही था कि परम्परावादी बुद्धिजीवी शायद भाजपा की विचारधारा को आधुनिक बनाने में मदद कर सकते हैं। इससे भाजपा को अपनी विभाजनकारी, बहुसंख्यकवादी मानसिकता को बदलने में मदद मिलेगी, और वह युवा व आकांक्षी भारतीयों में अपना विस्तार कर सकेगी।

एडमंड बर्क (परम्परावाद के पिता) जैसा कोई शायद विभाजन के उन घावों को भरने में मदद कर सके, जिन्हें कश्मीर की स्थिति में बदलाव के साथ ही खोल दिया गया है। नेहरू के समय से लेकर अब तक उदारवादियों ने ऐसा प्रयत्न किया है। परन्तु वे कश्मीरियों का भारत में संतोषपूर्ण विलय करने में विफल रहे। क्या राजगोपालाचार्य जैसा कोई अनोखा परम्परावादी, इस विलय को सफल बना सकता था? बर्क ने फ्रेंच क्रांति के बाद के बेचैन अंग्रेजी मनों को सामंजस्य देने का सफल प्रयास किया था। उनका संदेश था यूटोपिया का पीछा करना बंद करो, और साधारण शालीनता के बारे में सोचो।

समकालीन भारतीय सार्वजनिक जीवन में हम उदारवादी हिन्दुओं या मुसलमानों की आवाज नहीं सुनते हैं। दोनों को ही हिन्दू राष्ट्रवादियों और वामपंथी धर्मनिरपेक्षतावादियों की तीखी आवाजों ने दबा दिया है। दोनों ने ही हमें असफल कर दिया है। कभी गांधी, मौलाना आजाद और विवेकानन्द ने विश्वास के साथ धार्मिक मानसिकता रखने वाले भारतीयों के मूक बहुमत से बातचीत की थी। क्या हम ऐसे व्यक्तियों से आज ऐसी बातचीत कर सकते हैं, जो यह पूछने की हिम्मत करें कि 80 प्रतिशत हिन्दू जनता वाले देश में हिन्दू राष्ट्रवाद की क्या आवश्यकता है?

दूसरी ओर, धर्मनिरपेक्षतावादियों के साथ समस्या यह है कि वे कभी समाजवादी थे, और धर्म के अंधेरे पक्ष को ही देखते हैं, जिसमें असहिष्णुता, जानलेवा युद्ध और राष्ट्रवाद आता है। वे भूल जाते हैं कि धर्म ने सभ्यता के बाद से मानवता को अर्थ दिया है। इसका कारण धर्मनिरपेक्षवादियों और हिन्दू राष्ट्रवादियों का ऐसी भाषा बोलना है, जिसे आम आदमी नहीं समझता है। वे लोग साम्प्रदायिक हिंसा की केवल आलोचना कर सकते हैं, लेकिन 1947 में गांधीजी ने पूर्वी बंगाल में जैसे इसे रोका था, वैसे रोक नहीं सकते।

आज हमें स्वतंत्र जैसी परम्परावादी समकालीन पार्टी के उदय पर किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए। हमारी सर्वश्रेष्ठ आशा तो दोनों राष्ट्रीय दलों में परम्परावादी आदर्शों के प्रसार की होनी चाहिए। परम्परावादी स्वभाव से भारतीय सहज हो सकेंगे। इससे बाजार मुक्त होंगे, और सरकार को दल का सहारा नहीं लेना पड़ेगा। इससे साम्प्रदायिक सद्भाव बढ़ेगा। लोगों को धर्म से दूर भगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी, बल्कि धार्मिक नेताओं को एक शालीन, समावेशी राजनीति पर बोलने के लिए बढ़ावा दिया जा सकेगा। भारत जैसे घोर परम्परावादी समाज में, परम्पराओं के आधुनिकीकरण के रूढ़िवादी आदर्श को स्थापित कर पाना एक सार्थक प्रयास है।

द टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित गुरचरण दास के लेख पर आधारित। 17 अक्टूबर, 2019

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