जीरो बजट प्राकृतिक कृषि की सच्चाई

Afeias
27 Nov 2019
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Date:27-11-19

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आधुनिक कृषि प्रणाली में लिएबिग और फ्रेडरिक द्वारा शुरू किए गए रासायनिक खाद की फिलहाल सबसे ज्यादा आलोचना होने लगी है। गैर रासायनिक कृषि के लिए अनेक विकल्पों का वास्ता दिया जा रहा है। इसमें रूडोल्फ स्टाइनर का बायोडायनामिक्स, मसानोबू की वन-स्ट्रा क्रांति और मेडागास्कर सिटम ऑफ राइस इन्टेसिफकेशन (एस आर आई) जैसे उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं।

भारत में रासायनिक कृषि के विकल्प के रूप में होम्यो फार्मिंग, वैदिक फार्मिंग, नैचु-इको फार्मिंग, अग्निहोत्रा फार्मिंग, अमृतपानी फार्मिंग और जीरो बजट नैचुरल फार्मिंग प्रसिद्ध हुए हैं। इनमें जीरो बजट फार्मिंग के जनक पालेकर मानते हैं कि मृदा में प्राकृतिक रूप से पौधों के लिए सभी पोषक तत्व होते हैं। हमें केवल सूक्ष्मजीवियों की अंतरमध्यस्थता पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है। इसके चार चरणों के लिए मुख्यतः गौमूत्र और गोबर की आवश्यकता होती है। भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने पालेकर के दावों को खारिज करते हुए इसके आधार भी प्रस्तुत किए हैं-

  1. जीरो बजट फार्मिंग के यौगिकों को खरीदने, श्रमिकों का वेतन या पारिवारिक श्रम का मूल्य, गायों का रख-रखाव, बिजली और पम्पसेट आदि की लागत को नजरअंदाज किया गया है।
  2. ऐसे कोई प्रामाणिक अध्ययन नहीं मिले हैं, जो यह बता सकें कि गैर जीरो-बजट फार्मिंग से अधिक फसल जीरो बजट प्रणाली से प्राप्त की गई है। कुछ प्रामाणिक स्रोत बताते हैं कि इस तकनीक से 30 प्रतिशत कम उपज हुई है।
  3. पालेकर का यह दावा करना कि मृदा में सम्पूर्ण पोषक तत्व मौजूद होते हैं, सही नहीं ठहराया जा सकता। भारतीय मिट्टी में जिंक, आयरन, मैग्निशियम जैसे अनेक सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी है। इसके अलावा किसी क्षेत्र की मिट्टी में लवण अधिक है, तो कहीं यह एल्यूमीनियम, मैगनीज और आयरन विषाक्तता के कारण अम्लीय है। कहीं औद्योगिक कचरे के कारण इसमें धातुकरण अधिक हैं। अतः कृषि वैज्ञानिक मृदा स्वास्थ्य कार्ड पर जोर देते हैं, जिससे कि संतुलित मात्रा में रासायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग किया जा सके।
  4. पालेकर मानते हैं कि पौधों के लिए आवश्यक 98.5 प्रतिशत पोषक तत्व वायु, जल और सूर्य की रोशनी से मिल जाते हैं। केवल 1.5 प्रतिशत ही मिट्टी से मिलते हैं। उनकी एक पद्धति, जीवामृत के माध्यम से मिट्टी को दिए जाने वाले गोबर और गौमूत्र से मृदा को मात्र 750 ग्राम नाइट्रोजन, प्रति एकड़, प्रति मौसम मिल पाता है। जबकि भारतीय मिट्टी को इससे अधिक नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है।
  5. पालेकर ने जीरो बजट नैचुरल फार्मिंग को आध्यात्मिकता से जोड़ते हुए कहा कि इस प्रकार की वैदिक तकनीक का प्रयोक्ता सद्गुण अपनाता है, और संसाधनों का दुरूपयोग नहीं करता, मद्यपान या जुआ नहीं खेलता। गायों को प्रमुखता देकर उन्होंने अंधराष्ट्रीयता को बढ़ावा दिया है।

इसमें कोई शक नहीं है कि मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार करना ही हमारा मुख्य एजेंडा होना चाहिए। इसके लिए हमें अधिक से अधिक वैज्ञानिक तरीकों पर निभर्र रहना होगा।

  1. वायु और वर्षा जल से होने वाले भू-क्षरण को नियंत्रित करना होगा।
  2. पानी के जमाव, बाढ़ और पपड़ी जमने से, मृदा की गुणवत्ता में आती हुई गिरावट को रोकने के लिए नवाचार तकनीकों की आवश्यकता है।
  3. लवणीकृत, अम्लीय, क्षारीय और विषाक्त भूमि को उपजाऊ बनाने की दिशा में काम करना होगा।
  4. स्थानगत परिवर्तन और स्थितियों को देखते हुए समावेशी पोषण प्रबंधन पर ध्यान देना होगा। जैसेकिकुछ क्षेत्रों में रासायनिक खाद को प्रतिबंधित किया जा सकता है, परन्तु कुछ क्षेत्रों में इसे आवश्यकतानुसार प्रयोग में लाया जा सकता है।

इस प्रकार के दृष्टिकोण के लिए वैज्ञानिक पहुँच की जरूरत है। जीरो बजट नैचुरल फार्मिंग जैसी अवैज्ञानिक पद्धतियों को बढ़ावा देने का निर्णय विवेकपूर्ण नहीं  कहा जा सकता।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित आर.रामकुमार और अर्जुन एस.वी. के लेख पर आधारित। 9 अक्टूबर, 2019

 

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