न्यायालयों की गति बढ़ाने की आवश्यकता है।
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हमारे देश के न्यायालयों में लगभग 3 करोड़ मामले लंबित पड़े हुए हैं। एक अनुमान के अनुसार अगर हमारे न्यायाधीश प्रत्येक घंटे में 100 मामले भी निपटाएं, तो भी सभी मामलों के निपटारे में लगभग 35 साल लग जाएंगे। विश्व के 189 देशों के एनफोर्सिंग कान्ट्रैक्ट इंडीकेटर में भारत का स्थान 178वां है। यह सूचक ईज़ ऑफ डुईंग बिज़नेस में भारत की बहुत खराब छवि प्रस्तुत करता है। निवेश पर भी इसका प्रभाव पड़ रहा है।मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति खेहर ने न्यायाधीशों से अपील की है कि वे अपने ग्रीष्मकालीन अवकाश में से पाँच दिन कामकाज में लगाएं, ताकि कुछ अधिक मामलों को निपटाया जा सकें। भारतीय न्याय व्यवस्था की धीमी गति के पीछे कुछ कारण हैं, जिन्हें ठीक किया जा सकता है।
- निचली अदालतों में मामलों की अधिकता ही समस्या का मुख्य कारण है। इस समस्या को जानने, समझने और इनकी सतत् निगरानी की आवश्यकता है। दरअसल, निचले और उच्च न्यायालय के स्तर पर चलने वाली न्यायिक प्रक्रिया के लिए हमें उच्च स्तरीय डाटा तक पहुंच की आवश्यकता है। बहुत से न्यायालयों का डाटा ‘डेट फाइल्ड‘ कॉलम के अंदर भरा ही नहीं जाता। मामलों के निपटारे में विलंब का यह एक बहुत बड़ा कारण है।
- अलग-अलग न्यायालयों के बीच मिलने वाले डाटा में समानता नहीं होती। उनमें लिखे जाने वाले संक्षिप्त रूपों, वर्गीकरण और प्रारूप में भिन्नता के कारण दो अलग-अलग न्यायालयों के बीच डाटा की तुलना करना एक पेचीदा और खर्चीला काम है। हालांकि न्यायालयों का कम्प्यूटरीकरण करने के काफी प्रयास किए गए हैं। इस प्रक्रिया में न्यायालयों के बीच डाटा एकत्रीकरण में समानता को ध्यान में रखा जाना चाहिए, जो कि अभी नहीं किया जा रहा है।
- इलाहाबाद का एक न्यायाधीश एक दिन में औसत रूप से 77 मामलों की सुनवाई करता है, जबकि कोलकाता का न्यायाधीश 148 मामलों की। सुनवाई की संख्या के कोई निश्चित मापदंड नहीं हैं। अगर सामान्य रूप से एक न्यायाधीश को निश्चित मामले निपटाने का नियम बना दिया जाए, तो इससे तंत्र में उत्तरदायित्व की भावना बढ़ेगी।
- मुख्य न्यायाधीश कार्यालय और उच्च न्यायालय के पास न्यायाधीशों की पदोन्नति के लिए उनके कार्य का लेखा-जोखा नियमित आधार पर होना चाहिए। निचले और उच्च न्यायालयों में उनके कार्य-संपादन से जुड़े कलर-कोडिंग वाले चिन्हों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए, जिससे उनकी हर कार्यवाही का आकलन किया जा सके।
- नई तकनीक का प्रयोग सिर्फ डाटा एकत्र करने के लिए न होकर न्यायाधीशों को अन्य तरह से सहयोग करने के लिए भी होना चाहिए। चीन में नाइन रिसर्च इंस्टीट्यूट ने एक ऐसा सॉफ्टवेयर बनाया है, जिसने 300 न्यायाधीशों को डेढ़ लाख मामले सुलझाने में मदद करके उनके काम को एक तिहाई कर दिया।
- मामलों के निपटारे में विलंब के लिए केवल न्यायाधीश को दोषी ठहराना सही नहीं है। दिल्ली उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश के कार्यालय पर वकीलों ने इसलिए जाम लगा दिया था, क्योंकि उन्होंने इन वकीलों की तारीख आगे बढ़ाने वाली बार-बार की बकवास मांगों पर शुल्क लगा दिया था। दरअसल, ये वकील अपनी हर पेशी के अनुसार अपने ग्राहक से शुल्क वसूलते हैं। मामलों के लंबा खिंचने में इनका फायदा होता है। अगर वीडियों कांफ्रेंसिंग की बात करें, तो धरातल पर इसका प्रयोग नहीं के बराबर किया जाता है।
- अलग-अलग प्रकार के मामलों के निपटारे का समय अलग-अलग है। दक्ष की एक रिपोर्ट के अनुसार एक सिविल रिविज़न याचिका के निपटान की प्रक्रिया सिविल या क्रिमिनल अपील जितनी ही लंबी है। लेकिन मुंबई उच्च न्यायालय में एक सिविल रिविज़न याचिका का निपटारा लगभग 77 दिनों में हो जाता है, जबकि सिविल अपील के निपटारे के लिए लगभग 2,303 दिन लग जाते हैं। आखिर ऐसा क्यों है ?
- सभी न्यायालयों के लिए एक ‘स्थगन दिशा निर्देश‘ तैयार किया जाना चाहिए, जिसमें यह स्पष्ट हो कि किन स्थितियों के अंतर्गत स्थगन आदेश दिया जाना चाहिए।
- कार्यपालिका के कामों में न्यायपालिका की असमय की दखलदांजी से भी न्यायालयों के कामकाज में विलंब होता है। हाल ही में तमिलनाडु उच्च न्यायालय द्वारा किसानों के कर्ज माफी के लिए सरकार को निर्देश एवं उच्चतम न्यायालय द्वारा राष्ट्रीय राजमार्ग से 500 मीटर की परिधि में शराब की बिक्री बंद करने का निर्देश, दो ऐसे ही उदाहरण हैं।
- सबसे पहले, हमें भारत में निवेश के अवसर को सकारात्मक बनाने के लिए दिल्ली एवं मुंबई में व्यावसायिक न्यायालयों की स्थापना करनी चाहिए। इस प्रकार के लंबित पड़े मामलों को जल्द-से-जल्द निपटाकर ‘ईज़ ऑफ डूईंग बिजनेस‘ में भारत के स्तर को सुधारना चाहिए।
न्यायालयों में लंबित पड़े मामलों के जल्द निपटारे के लिए प्रभावशाली उपाय, प्रक्रिया में आमूलचूल परिवर्तन, लगातार फीडबैक एवं न्यायालयों को आधुनिक तकनीक के हथियारों से लैस करने की जरूरत है। इन सब उपायों से ही भारत में ‘त्वरित न्याय‘ को साकार किया जा सकेगा। ज्ञात है कि न्याय में विलंब का अर्थ न्याय न मिलने जैसा ही होता है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया‘ में प्रकाशित अमिताभ कांत के लेख पर आधारित।