नागरिक सुरक्षा के नाम पर न्यूनतम धनराशि देना कितना सही है?
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न्यूनतम मूल आय (Basic Income) का विचार कोई नया नहीं है। बिना किसी शर्त के किसी नागरिक को सार्वभौमिक न्यूनतम आय उपलब्ध कराने का विचार सबसे पहले थॉमस मोर का था। इसके बहुत बाद में सन् 1918 में बर्नट्रेंड रसेल ने अराजकता और सामाजिकता के मुद्दे पर अपनी पुस्तक ‘प्रपोस्ड रोड्स टू फ्रीडम‘ में चर्चा करते हुए लिखा कि ‘किसी व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतू एक न्यूनतम राशि दी जानी चाहिए। चाहे वह व्यक्ति काम करे या न करे।‘ आगे भी वह लिखते हैं कि “शिक्षा की समाप्ति पर भी किसी व्यक्ति को काम करने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। जो काम नहीं करना चाहते, उन्हें जीविका हेतू न्यूनतम राशि देकर उन्हें स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए।”
वैश्वीकरण विरोधी विचार बढ़ने के साथ ही बहुत से विकसित देश अपने नागरिकों को न्यूनतम आय की सुरक्षा देने पर विचार कर भी रहे हैं। इस संदर्भ में फिनलैण्ड ने पहल की है। वहाँ लगभग 2000 बेरोजगारों को सरकार प्रतिमाह 560 यूरो का चेक भेजेगी। यह राशि करमुक्त होगी। अगर यह प्रयोग सफल हो जाता है, तो हर वयस्क फिनलैण्डवासी को इस कार्यक्रम की सुविधा दी जाएगी।
बहुत से अर्थशास्त्री न्यूनतम आय की बात का समर्थन करते हैं। उनके अनुसार इसके द्वारा असमानता, धीमी आय वृद्धि, स्वचलन एवं प्रवासियों द्वारा नौकरियों पर कब्जा किए जाने का भय समाप्त हो जाएगा। आज, जब विश्व में मुक्त व्यापार और उच्च तकनीक के कारण राष्ट्रीय आय में वृद्धि हुई है, तब भी बहुत से लोग पिछड़े हुए हैं, या गरीबी में जी रहे हैं। हर जगह विजेता भी हैं और परास्त होने वाले भी हैं। प्रत्येक व्यक्ति को न्यूनतम आय की सुरक्षा देकर सरकार इस समस्या को बहुत कम कर सकती है।
- प्रयोग से सीख
बिना किसी शर्त के न्यूनतम आय देने का प्रयोग 2014 में मध्यप्रदेश में किया गया। ‘बेसिक इन्कम ए ट्रांसफार्मेटिव पॉलिसी फॉर इंडिया‘ नामक पुस्तक में इस प्रयोग की व्याख्या की गई है। इस प्रयोग में गरीबी रेखा पर जी रहे परिवारों को उनके मासिक खर्च की एक तिहाई राशि दी गई। इस प्रयोग के बहुत से सकारात्मक परिणाम देखने को मिले।
- पोषण का स्तर बढ़ा। ये परिवार क्रमशः दालें, सब्जियां और मांस खाने लगे। इससे इनमे बिमारियां कम हो गई।
- इससे न्यायसंगत विकास को बढ़ावा मिला।
- इससे ग्रामीणों को दोहरी आय की प्रेरणा मिली। वे अधिक मेहनत करने लगे। एक तरफ खेतों में काम करने लगे और दूसरी ओर प्राप्त राशि से छोटा-मोटा व्यापार करने लगे।
- इस अवधि के दौरान ऋण लेने की प्रवत्ति में कमी आई। सुविधा प्राप्त परिवारों में बचत की प्रवृति बढ़ी।
इन परिणामों से यह संशय समाप्त हो गया कि न्यूनतम राशि देने से बहुत से कृतध्न लोग इसका दुरूपयोग शराब खरीदने में करेंगे। उल्टे इस प्रयोग से यह सिद्ध हुआ कि बहुत कमजोर, बीमार या अपंग लोगों को इस राशि से एक सामाजिक सुरक्षा की अनुभूति हुई। ये लोग श्रम करने या कमाई करने में अक्षम थे, परंतु जहाँ कौशलयुक्त लोग बहुत कम आय में जीवन यापन कर रहे थे या कर रहे हैं, उन्हें इस राशि से बहुत मदद मिल सकती है। खासतौर पर हथकरधा उद्योग से जुड़े श्रमिकों का जीवन दयनीय स्थिति में है। ऐसी किसी मदद से उनके जीवन स्तर को सुधारने में सहायता मिल सकती है।
- संभावनाएं क्या है ?
वर्तमान में खाद्य सुरक्षा अधिनियम ने प्रत्येक नागरिक की मूलभूत आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा और मकान में से एक को कानूनी सुरक्षा प्रदान कर दी है। अब जनता को धनराशि देने की अपील पर विचार कर पाना सरकार के लिए कोई बड़ी बात नहीं है।
यूपीए सरकार ने 2009 में एक न्यूनतम वेतन पर 100 दिन के काम की गारंटी योजना की शुरूआत की थी। इस योजना को देशभर के करीब 615 जिलों में चलाया गया। मनरेगा की इस योजना की तुलना में गरीब जनता के जनधन खाते में सीधे धनराशि डालना अधिक आसान एवं व्यावहारिक हो सकता है।अगर खाद्य सुरक्षा के नाम पर हो रहे अन्न वितरण और मरनेगा के स्थान पर सरकार सीधे धनराशि देना शुरू कर दे, तो उसकी आर्थिक विकास दर बहुत बढ़ जाएगी। अगर सरकार वाकई खाद्य सुरक्षा, न्यूनतम आय और वेतन पर श्रम को सुनिश्चित करना चाहती है, तो उसे पहले से चल रही खाद्य सुरक्षा योजना और मनरेगा में परिवर्तन करने होंगे।
भारत में न्यूनतम आय को सुनिश्चित करने के लिए पहले से चल रही अनेक जनहित और कल्याणकारी योजनाओं के साथ अनेक प्रकार से दी जाने वाली सब्सिडी में भी आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे। इस परिवर्तन से कई आर्थिक लाभ भी हो सकते हैं। न्यूनतम आय पाने का अधिकार भी उन्हीं को हो, जो सबसे ज्यादा जरूरतमंद हैं। इसका निर्धारण सामाजिक-आर्थिक जनगणना की मदद से किया जा सकता है। अगर हमारा देश वाकई ऐसा करने की ठान ले, तो हम अपने जनकल्याण कार्यक्रम में चार चाँद लगा सकते हैं।
‘द हिंदू‘ में प्रकाशित पूजा मेहरा के लेख पर आधारित।