जैसा बोएंगे, वैसा ही काटेंगे

Afeias
30 Nov 2018
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Date:30-11-18

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हाल ही में सरकार ने खरीफ फसल के लिए 2018-19 के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की है। इसके माध्यम से सरकार किसानों को लागत एवं श्रम-मूल्य का 50-70 प्रतिशत लाभ देना चाहती है। इस घोषणा में सरकार ने उपज की खरीद की मात्रा के संबंध में कुछ भी स्पष्ट नहीं किया है।

  • आदर्श स्थिति के रूप में तो सरकार को उपज की इतनी मात्रा खरीदनी चाहिए, जिससे बाजार में उपज का मूल्य बढ़ सके और न्यूनतम समर्थन मूल्य के उच्च होने का लाभ सरकारी एजेंसियों को उपज बेचने वाले किसानों के अलावा अन्य किसानों को भी मिल सके।

इस प्रकार, सरकार द्वारा उचित मात्रा में उपज खरीदे जाने पर लंबे समय से चला आ रहा कृषि-संकट कम हो सकेगा।

न्यूनतम समर्थन मूल्य के बाजार भाव के बराबर रहने पर खरीद में होने वाले भ्रष्टाचार पर लगाम कसी जा सकेगी।

  • आदर्श स्थिति से अलग अगर वास्तविकता को देखें, तो बुनियादी ढांचों और भंडारण सुविधा के अभाव में सरकार के लिए बड़ी मात्रा में उपज खरीद पाना संभव नहीं है। इसके लिए अनेक वित्तीय समस्याएं भी हैं। इस स्थिति में बढ़े हुए समर्थन मूल्य के साथ बाजार भाव नहीं बढ़ सकेगा, क्योंकि ऐसी स्थिति में व्यवसायियों को यह लगने लगता है कि विभिन्न कारणों से सरकार उपज की खरीद नहीं करेगी। या उन्हें यह आशंका हो जाती है कि अपने अतिरिक्त भण्डार को खत्म करने के लिए सरकार राष्ट्रीय बाजार में स्टॉक का कुछ भाग कभी भी बेचने को उतार सकती है।
  • विश्व बाजार में दुग्ध-उत्पादों के गिरते दामों के चलते सरकार ने 1960-70 की अमेरिकी नीति का अनुसरण करते हुए, दुग्ध उत्पादों के निर्यात की अनुमति दे दी है। साथ ही मित्र राष्ट्रों को धनराशि की जगह दुग्ध-उत्पादों की आपूर्ति करने का भी निर्णय लिया है। परन्तु कृषि के क्षेत्र में समर्थन मूल्य की उच्चता को बनाए रखने के लिए सरकार ने ऐसी किसी नीति पर निर्णय नहीं लिया है।
  • उपज की खरीद की निश्चित मात्रा की घोषणा न करने के बावजूद सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी की कीमत की घोषणा कर दी है। 15,000 करोड़ रुपए की इस घोषित राशि को देखते हुए तो यही लगता है कि सरकार बहुत सीमित मात्रा में ही उपज की खरीद कर सकेगी। क्योंकि सरकार के पास पहले ही कुछ उपजों का अतिरिक्त भंडार है, जिसके कारण उसे वित्तीय समस्याएं आ रही हैं।
  • सीमित खरीद का अर्थ है कि बढ़े हुए समर्थन मूल्य पर केवल 7 प्रतिशत किसानों को ही लाभ मिल सकेगा। बाकी के किसानों, विशेषकर छोटे किसानों को अपनी उपज बाजार में कम कीमत पर ही बेचनी पड़ेगी।
  • सरकार को चाहिए कि वह अधिकांश किसानों को लाभ पहुँचाने के लिए समर्थन मूल्य को बढ़ाने के साथ-साथ बाजार मूल्य में स्थिरता बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध रहे। सरकारी भंडार के अधिक हो जाने पर या चाहे तो उसे निर्यात करे या जरूरत पड़ने पर इसके लिए सब्सिडी भी दे।
  • फिलहाल बहुत गरीब और पिछड़े किसानों को राहत देने के उद्देश्य से, बाजरा, ज्वार, रागी और तुअर दाल की खरीदी की जा सकती है। इन फसलों की पैदावार अपेक्षाकृत कम पानी वाले उन सूखे क्षेत्रों में हो जाती है, जिन क्षेत्रों के गरीब किसानों को हरित क्रांति का कोई लाभ नहीं मिल पाया है। साथ ही, इनमें से तीन अनाजों के उच्च पोषण स्तर को देखते हुए उन्हें पोषक अनाज के रूप में गिना जा रहा है। अतः इनकी खरीदी से देश की कुपोषण की समस्या को भी सुधारा जा सकता है।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित प्रकाश चंद्र के लेख पर आधारित। 18 अक्टूबर, 2018

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