एक कलाकार जैसा हो नागरिक

Afeias
07 Mar 2018
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Date:07-03-18

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स्वतंत्रता को किसी परिचय, व्याख्या या संवैधानिक विवरण की आवश्यकता नहीं होती। जब हम इसे बिना किसी बाहरी या आंतरिक दबावों के अभिव्यक्त, प्राप्त या बाँट पाते हैं, तभी हम इसकी पवित्रता का सही आनंद ले पाते हैं। यह सच है, क्योंकि इसके आलिंगन में ऐसा कुछ है, जो अमूल्य और पवित्र है। यहाँ तक कि उपेक्षित वर्ग भी इसके उल्लास को महसूस कर पाता है। ऐसे क्षणों में वह किसी भी प्रकार के उत्पीड़न की आह को भूल जाता है। यह एक विडंबना ही है कि स्वतंत्रता, हमारे अंदर या हमारे बीच में स्थायी नहीं रह पार्ती। स्वतंत्रता के 70 वर्षों के बाद भी हर भारतीय के अंदर स्वतंत्र जीवन से भरपूर विचार नहीं बन पाया है।

कला एक ऐसा माध्यम है, जो मानवीय क्षितिज का विस्तार करके उसे आनंद की पराकाष्ठा तक पहुँचाने की क्षमता रखता है। इस प्रकार वह एक बेहतर प्रजातांत्रिक समाज के निर्माण को भी अंजाम देता है। यह एक ऐसी व्यंजना है, जो किसी कलाकार को अनुकूल आभास देती है। दूसरे शब्दों में कहें, तो एक कलाकार स्वयं को एवं अपनी कला को इतना विकसित कर लेता है, जहाँ यथार्थ एक धूल के कण से अधिक कुछ नहीं रह जाता। लेकिन कला, समाज के लिए अभिव्यक्ति का ऐसा साधन है, जो उसकी पहचान, विश्वास, समुदायों के परस्पर संबंधों, रीति-रिवाजों और जीविका के जोड़-तोड़ की राजनीति को ऊजागर करता है। कला, उत्सव मनाती है, संचालन करती है, स्वप्न दिखाती है, अवसर देती है, जीवन के प्रत्येक क्षण पर प्रश्न करती है। दूसरे शब्दों में कला, हमें आगे बढ़ने का मौका देती है, हमारा दोहन करती है और जीवन को एक मंच प्रदान करती है। इस तरह कला अपने प्रतिभागियों का सौंदर्यीकरण करती है। इसका अर्थ है कि सौंदर्य का हर क्षण, असमानता और हिंसा की तुलना में अधिक पनपता है।

उपेक्षित समुदायों की तरह ही कला के कुछ उपेक्षित रूप हैं, जिन्हें व्यापक क्षेत्र में स्थान नहीं मिल पाता है। कला भी असमान, अप्रजातांत्रिक है। यह स्वतंत्र नहीं है।

सर्वप्रथम, हमें यह स्वीकार करना होगा कि कला इच्छा-शक्ति से निर्मित किया गया एक कार्य है। यह ईश्वरीय कृपा का परिणाम नहीं है। अगर हम कला को एक बार प्रजातंत्र के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो यह प्रश्न सहज ही आ खड़ा होता है कि अगर कला-जगत अपनी जड़ों को हिला डालने वाली रुकावटों को जगह न दे, तो क्या सृजनात्मक का उत्कृष्ट रूप सामने आ सकेगा? दुर्भाग्यवश कला जगत के मठाधीश इस प्रकार का सृजनात्मक नियंत्रण रखते हैं। इन सबके साथ क्या हम वास्तविक सृजन कर पा रहे हैं?

किसी कलाकार का सबसे पहला प्रजातांत्रिक कत्र्तव्य यह है कि वह इस प्रकार के दमघोटूं हाथों को दूर हटाए और सहनशीलता की बार-बार बात करने वालों को चुप कराए। इसके बाद ही एक कलाकार स्वयं को एवं अपनी कला को उन्मुक्त कर सकता है और उसे रूपांतरण का एक साधन बना सकता है। कला में परिवर्तन तभी लाया जा सकता है, जब उसे थोपी गई महन्तशाही पर ऊँगली उठाने का साहस दे दिया जाए। इसके बाद ही कला, अपने विभिन्न रूपों और माध्यमों से मस्तिष्क के हर विचार को प्रभावित करने योग्य बन पाएगी। जब तक समाज के अलग-अलग समुदायों, व्यक्तित्वों, जातिगत भूमिकाओं के स्वतंत्र कलाकार विचारों को नहीं मथेंगे, तब तक कला और प्रजातंत्र के वास्तविक औचित्य को नहीं पाया जा सकेगा। तब तक स्वतंत्रता भी एक मायाजाल ही बनी रहेगी।

प्रजातंत्र में नागरिको की सक्रिय भागीदारी होती है। प्रजातंत्र प्रतिदिन उदित होता है, और विकृत रूप में अस्त भी हो जाता है। एक नागरिक होने के नाते हम सबको अपने अस्तित्व, निवास, संबंधों एवं इर्द-गिर्द के वातावरण की जटिलताओं में बने रहना होता है। एक नागरिक वह होता है, जो दूसरे को अपने से आगे रखे। अक्सर हम देखते हैं कि समाज के जो उपेक्षित, प्रताड़ित और वंचित लोग हैं, वे बड़े आराम से नागरिकता के कत्र्तव्य को निभा जाते हैं। लेकिन हम जैसे तथाकथित सभ्य और सुसंस्कृत लोग स्वार्थपरता से घिरे अपने आप में सिमटे रहते हैं।

एक नागरिक अपने अधिकारों और सुविधाओं का केवल उपभोक्ता नहीं होता। उसे अपने नागरिक होने के हर पहलू को सोचना, समझना और व्यवहार में लाना होता है। उसकी भूमिका अपने-आप से शुरू होकर आसपास तक फैल जाती है। इस पूरे प्रकरण में उसे रोज की जद्दोजहद से गुजरना पड़ता है। इसलिए एक नागरिक को आत्म-विवेचक और खुले दिमाग का होना बहुत जरूरी है।

अंतःसंबंधित समाज में अपनी भूमिका और लोगों एवं वातावरण की असमानता को समझते हुए उसे स्वीकार करना ही नागरिकता है। हम जिसे अपना सामान्य जीवन समझते हैं, वास्तव में वह दूसरों की स्वतंत्रता और अधिकारों को कई तरह से बाधित करता है।

एक नागरिक का जीवन तब जीवंत माना जाता है, जब वह उत्तरदायी बने और उसके लिए कर्म भी करे। इसी माध्यम से पुनर्निर्माण होता है। समाज के लिए हमारी भागीदारी का खाता खुलता है।

एक कलाकार और नागरिक का अस्तित्व तभी बनता है, जब वह अभिव्यक्त करता है, साझेदारी करता है, आत्मनिरीक्षण करता है और असहमति के बीच जीता है। पिछले 70 सालों में, अनेक ऐसे अवसर आए हैं, जब हमारी जनसंख्या का कुछ भाग नागरिक बन पाया है और उसने प्रजातंत्र में सक्रिय भागीदारी की है। बाकी समय में हम चुप रहे और अपने पंखों को खोलने से डरते रहे।

समय आ गया है, जब हमें भारत का नागरिक बनना चाहिए। अपनी सोच को प्रजातांत्रिक करना चाहिए और स्वतंत्रता को अपने दैनिक जीवन का हिस्सा बना लेना चाहिए। जब हम इन विचारों को आत्मसात कर लेंगे, तभी सृजनात्मक हो सकेंगे। तभी मुक्त हो सकेंगे। जब ऐसा होगा, तभी नागरिक कलाकार बन सकेंगे और तभी कलाकार अपनी नागरिकता की पहचान कर सकेंगे।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित टी.एम.कृष्णा के लेख पर आधारित।

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