जीरो बजट प्राकृतिक कृषि

Afeias
06 Jul 2018
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Date:06-07-18

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जून की शुरूआत में, आंध्रप्रदेश के मुख्य मंत्री चंद्रबाबू नायडू ने घोषणा की थी कि उनका राज्य जल्द ही पूरी तरह से जीरो बजट प्राकृतिक कृषि (नेचुरल फार्मिंग) को अपना लेगा। यह एक ऐसी कार्यप्रणाली है, जो पूर्णतः रसायनमुक्त है। नायडू सरकार को उम्मीद है कि 2024 तक राज्य के सभी किसानों को इस पद्धति से जोड़ लिया जाएगा।

प्राकृतिक कृषि को एक प्रकार से जापानी कृषक भासानोबू फुकुओका की देन माना जाता है। उनके अनुसार खेती में जुताई और रसायन का प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं है। उनका मानना है कि कृषि में प्रकृति के सिद्धांत को महत्व दिया जाना चाहिए।

रासायनिक कृषि को विफल होता देखकर भारत में भी इसके लिए प्रयास शुरू किए गए। इस कृषि पद्धति को स्थानीय रूप से विद्यमान चार मुख्य तत्वों की सहायता से करने की प्रणाली विकसित की गई है। (1) गौमूत्र और गोबर में रखे बीजों का उपयोग (2) मिट्टी में सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या बढ़ाने के लिए गोबर, गौमूत्र एवं अन्य सामग्री का उपयोग; (3) मृदा की नमी और हम्मस को बनाए रखने के लिए भूसे एवं अन्य ऑर्गेनिक पदार्थों का प्रयोग; तथा (4) मृदा को अनुकूल रखने के लिए उसमें पर्याप्त वायु संचारण। इन तत्वों के साथ आवश्यकतानुसार प्राकृतिक कीट प्रबंधन पद्धति का भी उपयोग किया जाता है।

लाभ

  • इससे रासायनिक कृषि की तुलना में काफी ज्यादा ऊपज प्राप्त की जा सकती है।
  • इनपुट लागत नहीं के बराबर है। खाद और कीटनाशकों की भी जरूरत नहीं पड़ती।
  • प्राकृतिक कृषि मॉडल अकाल और बाढ़, दोनों ही स्थितियों के अनुकूल है। अतः जलवायु परिवर्तन की वर्तमान स्थितियों में यह सर्वथा उपयुक्त है।
  • इस प्रणाली में विभिन्न प्रकार की फसल लगाई जा सकती है। खेतों के किनारों पर भी फसल उगाई जा सकती है। इससे पोषण और आय, दोनों में ही लाभ हुआ है।
  • इन सबके साथ बिजली और पानी की खपत कम हुई है। किसानों का स्वास्थ्य अच्छा हुआ है। स्थानीय पारिस्थितिकीय तंत्र और जैव-विविधता फल-फूल रहे हैं। वातावरण में हानिकारक रासायनिक अवशेष नदारद हो गए हैं।

अन्य राज्यों के लिए आदर्श

  • 2016 में सिक्किम को सबसे पहले ऑर्गेनिक राज्य का दर्जा दिया गया था। ऑर्गेनिक कृषि के लिए बड़ी मात्रा में ऑर्गेनिक खाद, वर्मी कॉम्पोस्ट एवं अन्य सामग्री की आवश्यकता थी। छोटे किसानों के लिए यह अत्यंत महंगा सौदा था। अतः यह विफल हो गया।
  • आंध्रपदेश में शुरू की गई कृषि प्रणाली अत्यंत व्यवस्थित है। यह कृषि-पारिस्थितिकीय सिद्धांतों पर आधारित है। समय के साथ-साथ इसे अनेक नागरिक एवं कृषि संस्थाओं के सहयोग से लगातार विकसित किया गया है।
  • आंध्र-प्रदेश ने इसे डेल्टा, शुष्क एवं पहाड़ी-जंगली क्षेत्रों में भी आजमाया है। अतः यह देश के कई हिस्सों में कारगर सिद्ध हो सकती है। आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा भी इसके परिणामों पर लगातार नजर रखी जा रही है।
  • प्राकृतिक कृषि प्रणाली को देश के कई कृषि-पारिस्थितिकीय क्षेत्रों में लागू किया भी जा रहा है। इसके लिए कृषकों में ही नवाचार की प्रवृत्ति विकसित करना आवश्यक है।
  • आंध्रप्रदेश का रयालसीमा क्षेत्र सूखा संकट से जूझता हुआ क्षेत्र है। इस कृषि से वहाँ भी अनेक सकारात्मक परिवर्तन हो रहे हैं।

इस कार्यक्रम से धारणीय विकास के अनेक लक्ष्यों; जैसे-मृदा की गुणवत्ता में सुधार, जैव-विविधता, जीविका, जल, रसायनों में कमी, स्वास्थ्य, नारी सशक्तीकरण एवं पोषण आदि को प्राप्त करना आसान हो सकेगा।

कृषकों की आत्महत्या के मामले में आंधप्रदेश प्रथम पाँच राज्यों में से एक है। अतः यदि हम इस कृषि प्रणाली के माध्यम से किसानों के जीवन की रक्षा कर सकें, तो इससे बड़ी उपलब्धि कोई नहीं हो सकती।

देश के कृषि संकट को सुलझाने का सबसे बड़ा नारा यह हो सकता है कि ‘विज्ञान की नहीं, कृषकों की सुनो।’

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित सुजाता बायखन के लेख पर आधारित। 21 जून, 2018