जनसंख्या एक शक्ति है, समस्या नहीं

Afeias
03 Jul 2019
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Date:03-07-19

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देश की बढ़ती जनसंख्या को लेकर अक्सर अटकलें लगाई जाती हैं। सामान्य धारणा के विपरीत हमारी जनसंख्या समस्या नहीं, वरन् हमारी सबसे बड़ी शक्ति है। बढ़ती जनसंख्या को एक चिंता का विषय मानने का विचार केवल अनुमान पर आधारित है। इसका कारण यह माना जाना है कि हमारे संसाधन सीमित हैं।

रॉबर्ट मैल्थस ने 1798 की अपनी एक पुस्तक ‘एन ऐसे ऑन द प्रिंसिपल ऑफ पॉपुलेशन‘ में इस विषय को चिंताजनक मानने की शुरूआत की थी। उनका मानना था कि हमारी जनसंख्या तो तेजी से बढ़ेगी, जबकि संसाधन तो अपने हिसाब से ही बढ़ेंगे। लोगों के कार्यबल में जुड़ने के साथ ही वेतन में कमी आती जाएगी और वस्तुएं सीमित होती जाएंगी। ऐसे में आपदा तो सुनिश्चित ही है।

मैल्थस का विचार इतना तार्किक था कि वह जल्द ही प्रसारित हो गया, और इस प्रकार की विचारधारा को ‘मैल्थसवाद‘ कहा जाने लगा। 20वीं सदी के एक मैल्थसवादी हेरीसन ब्राउन ने भी इसी प्रकार का तर्क दिया कि बढ़ती जनसंख्या से पूरी पृथ्वी उसी प्रकार मानव आच्छादिंत हो जाएगी, जिस प्रकार एक मृत गाय कीड़ों से भरी रहती है।

इसी कड़ी में पॉल एर्लिक ने ‘द पॉपुलेशन बॉम्ब‘ नामक एक पुस्तक 1968 में प्रकाशित की। इसकी शुरूआती पंक्तियां ही बहुत हिलाने वाली हैं। “मानवता को भोजन देने वाला युद्ध समाप्त हो चुका है। 1970 के दशक में किसी भी धमाकेदार कार्यक्रम के चलाए जाने के बावजूद अनेक लोग भूखे मरेंगे।” पॉल जैसे विचारक भारत के परिवार नियोजन कार्यक्रम के बड़े समर्थक थे। वे लिखते हैं, “मुझे समझ नही आता कि 1980 तक भारत 20 करोड़ बढ़ने वाले लोगों का पेट कैसे भर सकेगा।”

ऐसी कोई भी आशंका सच साबित नहीं हुई। 2007 में निकोलस इबरस्टैड के ‘टू मेनी पीपल‘ नामक अध्ययन में गरीबी और जनसंख्या के घनत्व के बीच कोई अंतर्सबंध नहीं पाया गया। ऐसा माना जाता है कि जनसंख्या का घनत्व जितना अधिक होगा; संसाधन के लिए उतनी अधिक मार-काट मचेगी। इस संदर्भ में यदि मोनेको का उदाहरण लें, तो देखते हैं कि इसका घनत्व, बांग्लादेश के जनसंख्या घनत्व की तुलना में चालीस गुणा अधिक है, लेकिन यह बड़े आराम से व्यवस्था कर रहा है। बहरीन का जनसंख्या घनत्व भारत की तुलना में तीन गुणा अधिक है। लेकिन यहां भी कोई समस्या नहीं है।

अधिक जनसंख्या से गरीबी नहीं बढ़ती, बल्कि यह हमें समृद्ध बनाती है। अर्थशास्त्री जूलियन साइमन ने 1981 की अपनी एक पुस्तक में इस तथ्य को इंगित किया है कि जब-जब जनसंख्या विस्फोट हुआ है, तब-तब उत्पादकता में भी अपार वृद्धि हुई है। उदाहरण के लिए मैल्थस के समय से लेकर आज तक की तुलना करें, तो हम देखते हैं कि 1798 के विश्व में जहाँ एक अरब लोग थे, वहीं अब 7.7 अरब लोग हैं। इसके साथ ही इस पर गौर कीजिए कि उस समय के सबसे धनवान व्यक्ति से आज आप बेहतर जीवन जी रहे हैं कि नहीं ?

इसका उत्तर साइमन की ‘द अल्टीमेट रिसोर्स‘ नामक पुस्तक में मिलता है। जब हम संसाधनों की बात करते हैं, तो हम यह भूल जाते हैं कि मनुष्य अपने आप में सर्वोत्तम संसाधन है। उसके पास कौशल की कोई सीमा नहीं है। जब मनुष्य आपस में सकारात्क आदान-प्रदान करते हैं, तो लोगों के जीवन-स्तर के साथ-साथ विश्व में भी उसकी कीमत बढ़ती है। यही कारण है कि हम अधिक-से-अधिक बड़ी अर्थव्यवस्था में रहना चाहते है, अधिकांश लोग शहरों की ओर भागते हैं।

अगर मैल्थसवादी सही होते, तो समय के साथ-साथ गेहूँ, चावल जैसी वस्तुएं कम होती जाती; महंगी भी होती जाती, लेकिन वास्तव में तो ये सस्ती होती गई। इसके लिए मानव की उत्पादकता और सृजनात्मकता को धन्यवाद दिया जाना चाहिए, जो इबरस्टैड के अनुसार “व्यवहार में सदा अक्षय है, और सैद्धांतिक रूप में अटूट ऊर्जा से भरा हुआ है।“

मैल्थस, ब्राउन और एर्लिक जैसे विचारकों ने जो त्रुटि की थी, वही गलती आज हमारे नेता कर रहे हैं। ये गलती केवल जनसंख्या के विषय में नहीं, बल्कि हर क्षेत्र में है। अगर हमारी जनसंख्या बढ़ती जाती है, और संसाधन वही रहते हैं, तो स्पष्टतः कमी तो होगी। परंतु समस्या यह नहीं है। इसके लिए हमें अपने नगरों की ओर देखकर सबक लेना चाहिए।

गलत अवधारणा ने भारत में मानवीय पतन को बढ़ावा दिया है। उन करोड़ों अजन्में शिशुओं के बारे में सोचिए, जो हमारी क्रूर परिवार नियोजन नीतियों की भेंट चढ़ गए। इनमें से कितने तेंदुलकर, रहमान और सत्यजित रे बन सकते थे। देश के गरीबों पर चलाए जा रहे अनैतिक बल के बारे में सोचिए। अंततः हमारे कृपालु नेताओं के बारे में भी सोचिए, जो जनसंख्या को हमेशा समस्या समझते रहे, लेकिन स्वयं को नहीं।

भारत की सबसे बड़ी समस्या लोग नहीं हैं, बल्कि नेताओं का दम्भ है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया‘ में प्रकाशित अमित वर्मा के लेख पर आधारित। 9 जून, 2019