जनता की सुरक्षा में पुलिस की बदलती भूमिका को गति चाहिए

Afeias
06 Jun 2017
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Date:06-06-17

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सामान्यतः किसी अपराध के घटने में पुलिस को दोषी बताकर उसे कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। लेकिन क्या वाकई में सारा दोष अकेले पुलिस के सिर मढ़ दिया जाना उचित है ? क्या अपराधों के घटने में समाज और शासन का कोई उत्तरदायित्व नहीं बनता ?इस प्रश्न के उत्तर की जड़ें दूर कहीं कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलती हैं, जहाँ राज्य के प्रारंभ और उसमें पुलिस के उद्भव एवं उसकी भूमिका पर प्रकाश डाला गया है। हमारी आधुनिक पुलिस तो ब्रिटिश शासन के दौरान अस्तित्व में आई। उस दौरान अपने कानूनों को जनता से मनवाने के लिए पुलिस-व्यवस्था की गई थी। उस समय अपराधों की संख्या बहुत कम थी, और वे इतने संगीन भी नहीं थे। परंतु आज बढ़ते अपराधों के कारण हमारी जनता, खासतौर पर बच्चे और महिलाएं भयाक्रांत हैं। पुलिस का कर्तव्य है कि वह जनता को भयमुक्त करे। लेकिन हमारी बहुत सी सरकारें आज भी पुलिस का इस्तेमाल जनता की सुरक्षा से ज़्यादा अपने लाभ के लिए कर रही हैं।

  • पुलिस पर विश्वास क्यों नहीं ?

अगर हम पुलिस के कर्तव्यों की बात करें, तो सबसे पहले सवाल यह आता है कि आखिर एक आम आदमी पुलिस से क्या अपेक्षा रखता है, और क्या पुलिस उन अपेक्षाओं पर खरी उतर पाती है? अनेक सर्वेक्षणों में यह बात सामने आती है कि लोगों को संपत्ति से ज़्यादा अपने जीवन की रक्षा के लिए पुलिस-सहायता की आवश्यकता होती है। विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र और लोगों के जीवन की बढ़ती असुरक्षा को देखते हुए अन्य प्रजातांत्रिक   देशों की तुलना में भारत में पुलिस दल की संख्या में असाधारण वृद्धि की जा चुकी है। फिर भी यहाँ एक लाख लोगों के लिए 140 पुलिसकर्मी रहते हैं, जो कि अन्य प्रजातांत्रिक देशों की तुलना में बहुत ही खराब अनुपात है।

पुलिस की आलोचना सबसे ज़्यादा उसके महत्वपूर्ण व्यक्तियों की जी हजूरी और उनकी सुरक्षा में संलग्न रहने को लेकर की जाती है। इसे देखते हुए संवैधानिक प्रजातंत्र में दी जाने वाली समानता सिर्फ नाम की रह जाती है। यही कारण है कि देश में 10,000 से भी अधिक पुलिस थाने होते हुए भी लोग निजी सुरक्षा-व्यवस्था पर अधिक भरोसा करते है। ऐसी सुरक्षा एजेंसियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि पुलिस पर से लोगों का विश्वास उठता जा रहा है। भारत के लिए यह शर्मिंदगी वाली बात है। लेकिन ऐसा ही हो रहा है।

  • विदेशों की पुलिसव्यवस्था से सबक

पुलिस की क्षमता बढ़ाने के लिए अगर हम विदेशों में अपनाए गए साधनों को अपनाने के बारे में सोचें, तो शायद छवि बेहतर की जा सकती है। न्यूयार्क पुलिस ने लगभग एक दशक से काम्स्टेट (COMSTAT-COMPUTER STATISTIC) प्रोग्राम का सहारा लिया है। यह अपराध-प्रधान क्षेत्रों को पहचानकर उनकी सुरक्षा करने में मदद करता है। न्यूयार्क के पुलिस कमांडर को  हर हफ्ते अपने उपायुक्त को इस बात की जानकारी देनी होती है कि वह अपने क्षेत्र के अपराधों से कैसे निपट रहा है। इस प्रक्रिया से अपराध की जड़ तक पहुँचकर उसे कम करने में बहुत मदद मिली है। न्यूयार्क पुलिस ने एक निजी एजेंसी की सहायता से पुलिस के बारे में लोगों के दृष्टिकोण का भी सर्वे कराया है। प्रश्नावली बनाकर लोगों के पास उसे फोन पर भेजा गया है।

लंदन में अपराध बहुत बढ़ गए थे। इससे निपटने के लिए न्यूयार्क की तर्ज पर ‘रोको और जाँचो‘ वाला अभियान चलाया गया। यह जरूर है कि इस अभियान के लिए पुलिस दल की बड़ी संख्या लगती है, लेकिन यह प्रभावशाली है। हालांकि अमेरिका में इस अभियान की कड़ी आलोचना के बाद वहाँ की पुलिस ने इसमें थोड़ी ढील डाल दी थी। जनता की सुरक्षा के लिए कई बार पुलिस को इस प्रकार की आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है। भारत की पुलिस में तो भ्रष्टाचार इतना अधिक व्याप्त है कि यहाँ पर इस प्रकार की योजनाओं को लागू करने से इसमें वृद्धि होने की ही संभावना अधिक है।

  • भारतीय पुलिस में परिवर्तन कैसे हो ?

भारत की जनता को सुरक्षित रखने और अपराध में कमी के लिए दो तरह से काम किया जा सकता है। (1) भारतीय पुलिस के युवा अधिकारियों का एक ऐसा दल तैयार किया जाए, जो जनता के बीच जाकर नए प्रयोग करने के लिए तैयार हों। ये अधिकारी सरकार के कम-से-कम खर्च पर जनता की सुरक्षा के तरीकों को अपग्रेड करने की कार्ययोजना तैयार करें। (2) पुलिस की कार्यवाही में इंटरनेट के प्रयोग को बढ़ाया जाए। दिन-प्रतिदिन की पुलिस व्यवस्था में सोशल मीडिया को जरिया बनाया जाए। ऐसा किया भी जा रहा है। लेकिन व्यापक स्तर पर करने की जरूरत है। अपराधों और अपराधियों की जानकारी को शहर के प्रमुख केंद्रों पर प्रचारित किया जाए। लोगों को ई-मेल या सोशल मीडिया के जरिए अपराध दर्ज कराने को पे्ररित किया जाए। इस क्षेत्र में प्रकाशन जगत और टेलीविजन जैसे माध्यम बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।

भारतीय पुलिस के भीमकाय स्वरूप के बावजूद उस पर लगातार दबाव बनाए जाने की जरूरत है, जिससे वह अपनी मुस्तैदी को बरकरार रखे।

हिंदू में प्रकाशित आर. के. राघवन के लेख पर आधारित।

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