कानूनों की बाढ़

Afeias
14 Jan 2020
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Date:14-01-20

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हम आम नागरिक, नए कानूनों के बनने या पुराने कानूनों में संशोधन पर सामान्यतः ज्यादा विचार नहीं करते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि जिन सांसदों या विधायकों को हमने प्रतिनिधि के रूप में चुना है, उनका मुख्य दायित्व तो कानून बनाना और उनके कार्यान्वयन का निरीक्षण करना है। हम अपने स्थानीय जीवन से जुड़ी रोजमर्रा की समस्याओं में ही उलझे रहते हैं, और चाहते हैं कि हमारे प्रतिनिधि उन्हें सुलझाने पर ही अपना दारोमदार रखें।

वास्तव में तो हर समाज को ऐसे अच्छे कानूनों की आवश्यकता होती है, जो उनके जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बना सकें। ये कानून निष्पक्ष होते हैं, किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करते और कार्यान्वयन योग्य होते हैं। ये एक ऐसा पथ तैयार करते हैं, जिस पर चलकर समाज, सरकार और बाजार तीनों की उन्नति होती है।

दूसरी ओर, बुरे कानून से जन-समाज का जीवन नर्कतुल्य बन सकता है। लोगों को सताया जा सकता है, और भय का वातावरण निर्मित किया जा सकता है। इससे अराजकता और भ्रष्टाचार का बोलबाला भी हो सकता है।

कभी-कभी लागों की जागरूकता से सरकार को अपने लचर कानूनों को सक्रिय और कठोर बनाने को मजबूर होना पड़ता है। जैसे दिल्ली के निर्भया मामले में हुआ था। दुर्भाग्यवश, ऐसे कम ही प्रमाण मिलते हैं, जब एक से अपराध के लिए ही भविष्य में भी वैसे ही कठोर एवं त्वरित दण्ड कानून का सहारा लिया गया हो। अतः नागरिकों को चाहिए कि वे कानून की धार को तेज-तर्रार बनाए रखने के लिए अधिक सक्रिय और जागरुक रहें। ऐसा होने पर कुछ कानूनों के अनुपालन न होने की स्थिति में कठोर दण्ड या कारावास की सजा सुनाई गई है।

हाल ही में संसद के कुछ सत्र कानून निर्माण और सांसदों की भागीदारी की दृष्टि से अत्यंत सक्रिय रहे हैं। हांलाकि विधेयकों पर चर्चा का कम समय मिला, लेकिन नीतियों, विधेयकों और कानूनों को जगह मिलती रही।

क्रिप्टोकरंसी एवं आधिकारिक डिजीटल करेंसी विनियमन विधेयक, 2019 के माध्यम से इस प्रकार की मुद्रा रखने वालों को 10 वर्ष कारावास के दण्ड का प्रावधान है। इसी प्रकार से सरकार ने मोटर वाहन अधिनियम, मुस्लिम महिला अधिनियम, 2019; माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम पारित किया है। इन सभी कानूनों के उल्लंघन पर पर्याप्त दण्ड का भी प्रावधान रखा गया है।

कानून निर्माण के बाद भी हम यह कह सकते हैं कि सामाजिक मामलों का निपटारा केवल फौजदारी कानून के जरिए नहीं किया जा सकता। इनमें बहुत से ऐसे मुद्दे हैं, जिनके लिए स्वयं के अंदर जागृति होनी चाहिए।

एक खुशहाल समाज के निर्माण के लिए न्यायिक संस्थाओं का चुस्त-दुरूस्त होना भी जरूरी है। देर से मिला हुआ न्याय, न्याय न मिलने के बराबर है। हमारी जेलें पहले ही इतनी भरी हुई हैं कि अब केवल कानूनी फैसलों के माध्यम से कारावास का दंड देना संसाधनों पर पड़ रहे बोझ को बढ़ाना है।

यही वह समय है, जब हमें सामाजिक मुद्दों को सामाजिक स्तर पर ही निपटाने का प्रयास करना चाहिए। अपने प्रतिनिधियों से संवाद करें। कानून निर्माताओं को उत्तरदायी बनाते हुए उन पर जनहित में कानून बनाने का दबाव डालें। आवश्यकता से अधिक कानून समाज का कल्याण नहीं कर सकते।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित रोहिणी नीलकेणी के लेख पर आधारित। 13 दिसम्बर, 2019

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