निरस्त कानूनों का चलन क्यों है ?

Afeias
21 Dec 2018
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Date:21-12-18

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2015 में, उच्चतम न्यायालय ने सूचना प्रौद्योगिकी विधेयक 2000 के अनुच्छेद 66ए को असंवैधानिक घोषित कर दिया था। श्रेया सिंघल बनाम केन्द्र सरकार के मामले में दिए गए इस निर्णय को देश एवं विदेश की मीडिया ने भी काफी जगह दी थी। 2017 में इसी अनुच्छेद के अंतर्गत मुजफ्फरनगर पुलिस ने जाकिर अली त्यागी को फेसबुक पर कुछ कमेन्टस डालने पर गिरफ्तार कर लिया।

इस प्रकार घटने वाली यह कोई एकमात्र घटना नहीं है। मीडिया के तमाम स्रोत बताते हैं कि संविधान के इस अनुच्छेद के अंतर्गत पुलिस ने कई बार लोगों पर कार्यवाही की है। सवाल उठता है कि इस प्रकार के कानूनों के न्यायिक निरस्तीकरण के बाद भी इनका इस्तेमाल क्यों किया जा रहा है ?

व्यापक प्रचलन

अधिक जाँच करने पता चलता है कि निरस्त किए गए इस अनुच्छेद का प्रचलन पुलिस थानों से लेकर ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालय तक है।

1983 में उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 303 को निरस्त कर दिया था। 2012 में राजस्थान उच्च न्यायालय ने एक व्यक्ति को फांसी की सजा से बचाने के लिए इसी धारा का इस्तेमाल किया था।

निरस्त धाराओं के प्रचलन के पीछे क्या कारण है ?

निरस्त की जाने वाली धाराओं से संबंधित न्यायिक घोषणाओं का ठीक से प्रसार नहीं किया जाता। इसके लिए सरकार के विभिन्न विभाग उत्तरदायी हैं।

आज सर्वोच्च न्यायालय के काम ने इस प्रकार की सार्वजनिक चेतना को जगाए रखने का भार ले लिया है। अक्सर यह पढ़ने-सुनने में आता है कि न्यायालय ने राज्यों या अन्य वादियों को कोर्ट के आदेशों के अनुपालन को अपडेट रखने को कहा है या कह रहा है। परन्तु इस प्रकार निगरानी कोर्ट तभी तक रख सकता है, जब तक मुकदमा चल रहा हो। मुकदमे का निर्णय हो जाने के बाद यह कार्यपालिका और विधायिका की जिम्मेदारी बनती है कि वह न्यायालय के आदेशों के प्रवर्तन की दिशा में सही कदम उठाए।

हाल ही में न्यायालय के निर्णय का अनुपालन न किए जाने का एक उदाहरण, सबरीमाला मंदिर विवाद, हम सबके सामने है।

भारतीय न्याय व्यवस्था में मुकदमों के निर्णयों के बारे में सूचना साझा करने का कोई तंत्र नहीं है। यही कारण है कि इसके आदेशों के अनुपालन में सरकार को और ढील मिल जाती है, क्योंकि ये सार्वजनिक नहीं हो पाते हैं।

क्या किया जाना चाहिए ?

किसी भी नौकरशाही व्यवस्था को ठीक प्रकार से चलाने के लिए, उसमें सूचना प्रसारित करने का माध्यम होने चाहिए। इसके अलावा किसी भी सूचना की प्रभावशीलता तब सफल होती है, जब वह उच्च अधिकारियों द्वारा दक्षतापूर्वक निचले स्तर तक पहुँचाया जाए। वर्तमान में, न्यायपालिका को किसी ऐसे ही तंत्र की मदद की आवश्यकता है।

अतः जब तक संसद, असंवैधानिक घोषित किए गए प्रावधानों को कानून पुस्तिका से हटाने के लिए कोई प्रस्ताव नहीं लाती, तब तक निरस्त कानूनों को लागू किया जाता रहेगा।

संबंद्ध मंत्रालयों को निरस्त कानूनों के बारे में अधिसूचनाएं और परिपत्र जारी करने चाहिए। लेकिन अभी इनको जारी किए जाने के बारे में कोई अनिवार्यता नहीं है।

न्यायपालिका के पास निरस्त कानूनों के बारे में सूचना साझा करने का कोई तंत्र नहीं है। इसको बनाने के प्रयास किए जाने चाहिए। कुछ उच्च व जिला न्यायालय महत्वपूर्ण निर्णयों से संबंधी सूचना-परिपत्र जारी करते हैं।

ऐसा तकनीकी तंत्र विकसित करने की आवश्यकता है, जिसमें सूचनाएं साझा करने के लिए न्यायालय को अधिकारियों पर निर्भर न रहना पड़े। साथ ही उसमें मानवीय गलतियों की भी गुंजाइश न हो।

असंवैधानिक कानूनों का प्रचलन सार्वजनिक धन का अपव्यय है। जब तक इस त्रुटि को सुधारा नहीं जाता, बहुत से लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार की स्वतंत्रता का हनन होता रहेगा।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित अपार गुप्ता और अभिनव सेखरी के लेख पर आधारित। 5 नवम्बर, 2018.

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