आस्था का संकट

Afeias
27 Feb 2018
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Date:27-02-18

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  • धर्म के विषय में जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं को ‘हिन्दू अनिश्वरवादी’ या ‘वैज्ञानिक मानवतावादी’ कहा था। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है :‘‘भारत या कहीं भी, धर्म का जो तमाशा किया जाता है, उसने मुझे भयाक्रांत कर रखा है। यह हमेशा अंधविश्वास, हठधर्मिता, कट्टरता और शोषण के साथ-साथ निहित स्वार्थों की रक्षा हेतु खड़ा दिखाई देता है।’’ यदि धर्म और राजनीति के आपसी संबंधों को देखें, तो स्वतंत्रता के 70 वर्षों में इसका कांटा दूसरी ही तरह से घूमा दिखाई देता है। लगभग हर चुनावों में उम्मीदवारों द्वारा धार्मिक आस्थाओं का खुला प्रदर्शन किए जाने के क्या कारण हो सकते हैं?
  • हिन्दू धर्म अपने आपमें बहुत उदार रहा है, जिसने नेहरु की अनीश्वरवादी वृत्ति को भी सहज ही पचा लिया। इसके बावजूद भारत की अधिकांश जनसंख्या और धार्मिक आस्था का चोली-दामन का साथ रहा है। सन 1947 में और इसके बाद सांप्रदायिकता के विरोध में किए गए गांधीजी के अनशनों और नेहरू की ‘आधुनिक वैज्ञानिक प्रवृत्ति’ ने धार्मिक उन्मादियों पर शिकंजा कसे रखा। वर्तमान की बदली हुई परिस्थितियों के पीछे दो कारण हो सकते हैं।
  • तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्ष’ राजनीतिक वर्ग और उदारवादियों ने अपनी दिशा बदल दी है। धर्मनिरपेक्षता का यह कतई अर्थ नहीं है कि आप चुनाव जीतने के लिए मुसलमानों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल में लाएं। वर्षों तक चली तुष्टिकरण की नीति ने हिन्दुओं के अंदर विपरीत प्रतिक्रिया को जन्म दे दिया है।
  • कुछ अंग्रेजीनुमा संभ्रांत वर्ग; जिसने न कभी रामायण को समझा और न ही राष्ट्रगान को समझा, के लिए धर्म और धार्मिक आस्थाएं मध्ययुगीन संस्कृति के समान हो गई थीं। इसी तिरस्कारपूर्ण वृत्ति ने उन्हें एक तरह से उनके बनाए ‘प्रगतिशील द्वीप‘ में ही नष्ट कर दिया है। ये लोग उन धार्मिक-सांस्कृतिक आवेगों से बिल्कुल कट गए हैं, जो अधिकांश भारतीयों की चेतना में रचे-बसे थे।
  • राजनीति में आए धार्मिक दिखावे का दूसरा कारण उस हिन्दुत्व ब्रिगेड को माना जा सकता है, जिसने एक बार फिर वोट बैंक के लिए जानबूझकर सामाजिक परिवेश को साम्प्रदायिक बनाया। वोटों के लिए हिन्दु-मुस्लिमों को विभाजित करने की प्रक्रिया कई दशकों से चल रही है। इसका स्पष्ट उदाहरण गुजरात चुनावों में देखने को भी मिला, जहाँ मुस्लिम समर्थक दलों को ‘खिलजी की औलाद’, औरंगजब या बाबर-भक्त आदि कहकर संबोधित किया जा रहा था।
  • हिन्दू धर्म नाम की भी समझ न रखने वाले कुछ अशिक्षित छोटे-मोटे समूहों ने कुछ लोगों को ‘हिन्दू-विरोधी’ का दर्जा दे दिया। उन्हें यह नहीं पता कि ऐसी घृणा और हिंसा का रूप हिन्दू-धर्म की आत्मा से बिल्कुल परे है। हाल ही में बंगाल में ‘लव जिहाद’ के नाम पर एक मुस्लिम मजदूर को मार दिया जाना इसी घृणित राजनीति का एक उदाहरण है। इन सबके बीच में यह भी भुला दिया जाता है कि इस प्रकार की सामाजिक अस्थिरता से आर्थिक प्रगति पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
  • अतः हिन्दू धर्म को धर्मनिरपेक्षतावादियों और कट्टरवादियों, दोनों से ही अपने को बचाते हुए अस्तित्व को बनाए रखना है। अब हिन्दुस्तान के पास एक रास्ता बचता है कि वह गांधी जी की सांप्रदायिक सद्भावना को अपनाए। गांधीजी ने अपने धार्मिक विश्वासों को कभी पर्दे में नहीं रखा। इस मामले में वे एक उदार आत्मा थे और सभी धर्मों के प्रति उनका सम्मान सहज ही उनके वक्तव्यों और लेखनी में दिखाई दे जाता था। उनका मानना था कि धर्म, व्यक्ति को शांति और मेल-जोल से रहने की शिक्षा देता है। धर्मनिरपेक्षता का यही रूप हमारे देश की जड़ों में बसा हुआ है, और इसे ही हमें बचाए रखना है।

टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित पवन के. वर्मा के लेख पर आधारित।