आर्थिक भागीदारी में महिलाओं के महत्व को समझा जाए
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सन् 2013 में प्रारंभ हुए भारतीय महिला बैंक को वर्तमान सरकार ने कुछ कारणों से बंद करने का प्रयत्न किया था। बैंक की शुरुआत जोर-शोर से की गई थी। परंतु अपनी शुरुआत से लेकर आज तक इस बैंक ने कुछ ख़ास बढ़ोतरी नहीं की। अगर सरकार को वाकई इस बैंक की कोई सार्थकता नहीं लग रही है, तो इसे बंद करने में उसे हिचक क्यों हुई ? क्या इस बैंक के नाम पर लिंगभेद को दूर करने का एक दिखावा मात्र किया जा रहा है ? इस सत्य को समझे जाने की बहुत आवश्यकता है कि किसी भी क्षेत्र में, चाहे वह आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी हो या अन्य कोई और, दिखावे से कभी उद्देश्यों को प्राप्त नहीं किया जा सका है।
आर्थिक सेवा क्षेत्र में हमारे सबसे बड़े राष्ट्रीय बैंक एवं निजी क्षेत्र के सबसे बड़े बैंक की प्रमुख महिलाएं हैं। बैंकिंग क्षेत्र में इन दोनों ही बैंकों की लगभग 40% की भागीदारी है। बड़ी बात यह है कि विश्व के किसी भी राष्ट्र में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है। सवाल यह है कि क्या इससे देश में आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाया जा सका है ? क्या कुछ एक महिलाओं के सरकारी एवं निजी आर्थिक संस्थानों में उच्च पद हासिल कर लेने से हमारे समाज में महिलाओं को आर्थिक निर्णय लेने का अधिकार मिल गया या मिल जाएगा ? सच्चाई यह है कि ऐसा कुछ नहीं होगा। इसके लिए हमें धरातल पर प्रयास करने होंगे।
प्रधानमंत्री जन-धन योजना के माध्यम से सरकार ने महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने का एक अच्छा प्रयास किया है। इसके परिणामस्वरूप महिलाओं के बैंक खातों का प्रतिशत 39 से बढ़कर 61% पर पहुँच गया। एक वर्ष में महिलाओं के बैंक खातों में हुई यह वृद्धि विश्व स्तर पर मायने रखती है। सरकार का यह प्रयास प्रशंसनीय रहा।
यहाँ फिर से सवाल ऊभरकर सामने आता है कि क्या केवल बैंक-खातों के खुल जाने से महिलाओं को आर्थिक स्वतंत्रता मिल जाती है? क्या बैंक खातों को खोलकर महिलाएं पहले की तुलना में हमारे आर्थिक तंत्र का अधिक मजबूत अंग बन जाती हैं ? दरअसल, जब तक महिलाएं अपने खातों का अच्छी तरह इस्तेमाल करना शुरू नहीं करतीं और जब तक बैंक महिलाओं को सही मायने में ग्राहक मानकर उनसे वैसा व्यवहार शुरू नहीं करते, तब तक महिलाओं के बैंक खातों का कोई विशेष अर्थ नहीं निकलेगा। अगर प्रधानमंत्री जन-धन योजना में खुले खातों की असलियत को देखें, तो इस योजना में खुले खातों में से एक तिहाई से ज़्यादा निष्क्रिय पड़े हैं। दूसरे, महिलाओं के नाम पर खुले खातों में लगभग 86 के खाते निष्क्रिय हैं। इन खातों का उपयोग केवल धन जमा करने जैसी बुनियादी गतिविधि के लिए ही होता है।
- बैंकिंग क्षेत्र में महिलाओं की ऐसी निष्क्रियता के कुछ कारण हैं, जो इस प्रकार हैं –
- 2015 के एक आर्थिक सर्वेक्षण में शामिल महिलाओं से पता चलता है कि भारत में 80% महिलाएं आर्थिक समझ नहीं रखतीं।
- सर्वेक्षण में शामिल महिलाओं में से कुल 44% महिलओं के पास ही मोबाइल फोन हैं। जबकि दो-तिहाई पुरूषों के पास यह सुविधा है। आर्थिक क्षेत्र में डिजीटलीकरण को बढ़ावा देने के बाद यह महिलाओं की पहुँच से और भी बाहर की बात हो गई है। इसे अगर आँकड़ों में देखें, तो दस में से छः महिलाएं डिजीटल इंडिया से बाहर हो जाती हैं।
- इन समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। खाते खोले और सक्रिय किए जा सकते हैं। मोबाइल फोन दिए जा सकते हैं। लेकिन सबसे बड़ी समस्या दृष्टिकोण की है। जब तक लोगों की सोच नहीं बदलेगी, तब तक परिवर्तन नहीं लाया जा सकेगा। मैकिंस्से और आई एफ सी (IFC) की एक रिपोर्ट के अनुसार एक-तिहाई लघु एवं मझोले उद्योगों की स्वामिनी महिलाएं हैं। लेकिन अगर इस उद्योगों में बैंकों का योगदान देखें, तो वह मात्र 6% है।
2014 की गोल्डमैन की रिपोर्ट के अनुसार इन उद्यमी महिलाओं के ऋण आवेदन के नामंजूर होने की संख्या पुरुष आवेदकों से दुगुनी हैं।
माइक्रो फाइनेंस क्षेत्र में स्वयंसेवी समूहों की कहानी कुछ और ही है। इन समूहों को अधिकतर महिलाएं ही चला रही हैं। इन संस्थाओं ने कई गरीब परिवारों की जिंदगी को बदल दिया है। भारत के सबसे बड़े माइक्रो फाइनेंस संस्थान-बंधन फाइनेंशियल सर्विसेज की 97% ग्राहक महिलाएं है। यह संस्थान अब बैंक बन चुका है। हर्ष की बात यह है कि इस क्षेत्र की डूबी हुई ऋण राशि सामान्य बैंकिंग क्षेत्र से बहुत कम है। इससे यही पता चलता है कि इस क्षेत्र ने महिलाओं के रूप में उस ग्राहक को ढूंढ लिया है, जो अन्य बैंक नहीं कर पाए। यह क्षेत्र अब इसी का लाभ भी उठा रहा है।
‘द हिंदू‘ में प्रकाशित आर. श्रीनिवास के लेख पर आधारित।