अनुकूलन-श्रम का ही अस्तित्व रहेगा

Afeias
29 May 2020
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Date:29-05-20

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ब्रिटिश लेखक आर्चर सी क्लार्क ने अपनी एक कृति में लिखा था कि मनुष्य जैसे द्विपदीय कार्बन आधारित जीवों को इस लौकिक संसार के बाहर भी अगर जीवन मिल सके, तो यह उनके लिए एक महान आश्चर्य होगा। इस विचार को थोड़ा और विस्तार देते हुए अगर हम सूर्य की रोशनी और फोटोसिन्थे‍सिस के बिना जीवन की कल्पना करें , तो ?

जीवन को फलने-फूलने के लिए सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता होती है। ऐसा एक सिध्दांनत है, जो किसी सूक्ष्मजीवी का अध्ययन करते हुए वैज्ञानिकों ने दिया है। ये सूक्ष्मजीवी जीवन का सूक्ष्म तम रूप हैं, जो अस्तित्व  रखते हैं, सहस्राब्दियों से खनिजों और रसायनों से प्राणिक – ऊर्जा ग्रहण करते हैं। ये बर्फ से भरे समुद्र की गहराई में , तेल के कुओं और एसिड़ से भरे गड्ढ़ों में, ज्वाकलामुखी के कोर और समुद्र तल के नीचे की बेसाल्ट, चट्टानों में भी अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं, जहाँ सूर्य के प्रकाश की कोई पैठ नहीं होती है।

दूसरी धारणा यह है कि मनुष्य बहुत खास है , क्योंकि हमारे पास विभिन्न परिस्थितियों में जीवित रहने की हिम्मत , बुध्दि और इच्छाशक्ति है। हम यह भी देखते हैं कि जीवन ऐसी स्थितियों में भी पनपता है, जिसमें किसी मानव के जीवित रहने की कोई संभावना नहीं होती है। इससे स्पष्ट होता है कि किसी प्रजाति के जीवित रहने और पनपने के लिए वास्तव में जो मायने रखता है, वह है बदलती परिस्थितियों के प्रति उसकी अनुकूलनशीलता ( एडाप्टाबिलिटी)। इस कथन का श्रेय चार्ल्स डार्विन को दिया जाता है। हालांकि विव्दानों का मानना है कि उनके किसी भी लेख में ऐसा नहीं मिलता है।

ऐसा नहीं है कि प्रजातियों में , जो सबसे बुध्दिमान होता है, जो सबसे मजबूत होता है, वही जीवित रहता है। बल्कि जो बदलते पर्यावरण के अनुकूल अपने को ढाल सके, और समायोजित कर सके, वह जीवित रहता है।

कुछ विशेषज्ञ आज हमें यह बता रहे हैं कि कोरोना के जल्द खत्म होने के आसार नहीं हैं। इसलिए हमें इसका टीका बनने तक इसके साथ रहना सीखना होगा। दूसरे शब्दों में कहें, तो वे हमें इसके अनुकूल रहने की प्रेरणा दे रहे हैं या अनुकूलन करने की सीख दे रहे हैं।

अनुकूलनशीलता , जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञों द्वारा अक्सर प्रयोग में लाया जाने वाला शब्द है , जो हमें यह बताते हैं कि हमने अपने ग्रह के प्रति जो शोषण की नीति अपनाई है, उसकी कुछ हद तक भरपाई करने तक हमें बदलती परिस्थितियों को अपनाना होगा। जिसे हम वर्षों से खत्म करते आ रहे हैं, उसे एक या दो दिनों में वापस नहीं पाया जा सकता।

जब हम सतह पर रहते हैं, तो जीवों का एक संपूर्ण ब्रह्माण्ड होता है। इनमें एक वास्तविक सूक्ष्मजीवी संसार भी होता है, जो पृथ्वी की उपसतह में कठोर परिस्थितियों में रहता है। इनकी संख्या , सतह पर रहने वाले जीवों से कहीं अधिक होती है। इनके जीवन की गति बहुत धीमी होती है। वे जल्दबाजी में नहीं होते। उनका समय का पैमाना हमसे बहुत अलग होता है। ऐसे ही जब वे लंबे समय तक हमारे साथ रहते रहें, तो डायनासोर की रूपरेखा तैयार हुई।

अंग्रेजी कहावत है – ‘स्लो एण्ड स्टेडी विन्स द रेस’ यानी हम भले ही धीमी गति से चलें, परन्तु  यदि परिस्थितियों के अनुसार अपने को स्थिर रखते हुए चल सके, तो जीत निश्चित है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित नारायणी गणेश के लेख पर आधारित। 19 मई 2020