भ्रष्टाचार का एक नया रूप
Date:02-11-18 To Download Click Here.
भारत में विजय माल्या जैसे व्यवसायी के चलते याराना पूँजीवाद के दो रूप सामने आ रहे हैं। (1) इन पूँजीपतियों का नाता किसी एक ही राजनैतिक दल से नहीं होता। (2) राजनैतिक दलों को ऐसे पूँजीपतियों की जरूरत होती है।
आर बी आई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने इस दुष्चक्र पर टिप्पणी करते हुए बताया था कि, ‘‘सार्वजनिक सुविधाओं की उपलब्धता के लिए गरीब लोग नेताओं का मुँह देखते हैं। गरीबों का संरक्षण देने और चुनाव लड़ने के लिए नेताओं को भ्रष्ट व्यवसायियों की ओर देखना पड़ता है। इस मदद के एवज में व्यवसायी, सरकार से प्राकृतिक संसाधन के दोहन की छूट ले लेते हैं।’’
इतना ही नहीं, ये व्यवसायी सस्ते दामों पर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के साथ-साथ निवेश के लिए ऋण भी चाहते हैं। शासक वर्ग, अपने मित्र व्यवसायियों को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से ऋण दिलवाते हैं। इस उपक्रम में यह भी नहीं देखा जाता कि व्यवसायों द्वारा प्रस्तुत योजनाएं संतोषजनक हैं या नहीं। इसका कारण यही है कि इस ऋण के बदले नेताओं को भी कुछ लाभ मिलता है।
याराना पूँजीवाद की सूची में अकेले विजय माल्या का नाम नहीं है। गुजरात के अडानी समूह के अलावा अनेक ऐसे समूह हैं, जिनके कारण गैरनिष्पादित सम्पत्ति लगातार बढ़ती जा रही है। साथ ही, ऐसे मित्र व्यवसायिों का राजनैतिक दलों के टिकट पर संसद में प्रवेश का प्रतिशत भी लगातार बढ़ता जा रहा है। 1991 से 2014 के बीच इनका प्रतिशत 14 से बढकर 26 हो गया है। भाजपा के 282 सांसदों में से 43 सांसद इसी वर्ग से आए हुए हैं। इस प्रकार की स्थितियों में दोनों पक्षों के लिए जीत ही जीत होती है। एक ओर, ऐसे धनी उम्मीदवारों के चुनावों पर पार्टी को धन नहीं लगाना पड़ता, तो दूसरी ओर, चुनाव जीतकर आने वाले व्यवसायिों का नीति निर्माण में शक्ति मिल जाती है। सांसद होने के नाते ये व्यवसायी, अपने व्यवसाय के लिए लाभकारी सूचनाएं जुटाने के साथ ही नीतियों को भी प्रभावित करने में सक्षम हो जाते हैं।
नीतियों के कार्यावयन के लिए उत्तरदायी नौकरशाहों से भी इनकी अच्छी सांठ-गांठ हो जाती है। बात यहाँ तक आ जाती है कि सेवानिवृत्ति के बाद इन नौकरशाहों को सांसद बने उद्योगपतियों के यहाँ अच्छे वेतन वाली नौकरी पर रख लिया जाता है। एल आई सी, सेबी और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के पूर्व अध्यक्षों को किंगफिशर में बतौर बोर्ड आॅफ डायरेक्टर शामिल कर लिया गया था।
नौकरशाहों के लिए भी यह एक संकेत होता है कि यदि सेवानिवृत्ति के बाद अपना भविष्य बनाए रखना चाहते हैं, तो नेता बने उद्योगपतियों का काम आसानी से होने दें।
आर्थिक उदारवाद की शुरूआत के 30 वर्ष बाद, यह एक ऐसा अध्याय शुरू हुआ है, जिसने न केवल भारत की अर्थव्यवस्था, बल्कि भारतीय राजनीति और समाज को भी प्रभावित किया है। यह एक नए प्रकार का भ्रष्टाचार है। इस गोल-गोल घूमती प्रक्रिया में एक दुखद तथ्य ऊभरकर सामने आता है; और वह यह कि ये राज्य की स्वतंत्रता को कमजोर करते हैं। ऐसा होने के कारण ही आज सार्वजनिक सुविधाओं का अकाल है, और जनता को उसका अधिकार नहीं मिल रहा है। जिन नेता बने व्यवसायियों ने अपने निजी स्कूल, अस्पताल और सुरक्षा एजेंसियां खोल रखी हैं, वे जनता के लिए स्कूल, अस्पताल और अन्य ढांचे खड़े करने में रुचि क्यों दिखाएंगे।
‘द इंडियन एक्सपेस’ में प्रकाशित क्रिस्टोफी जेफरलोट के लेख पर आधारित। 19 सितम्बर, 2018