भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (Prevention of Corruption Act)

Afeias
12 Sep 2016
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cc-12-09-16Date: 12-09-16

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ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि सरकार सन् 1988 के प्रिवेन्शन आॅफ करप्शन एक्ट (PCACET) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में सुधार करना चाहती है।

(1) सरकार इस संशोधन में सैक्शन 13(I) (d) (iii) के उस प्रावधान को हटाना चाहती है, जो किसी नौकरशाह का जनहित के विरोध में किसी व्यक्ति से आर्थिक एवं अनुचित लाभ लेने से संबंध रखता है।
जनता के सेवक को जनहित का संरक्षक समझा जाता है। उनसे उम्मीद की जाती है कि समय पड़ने पर वे जनहित में बात करेंगे। सैक्शन 13(II) इस बात का समर्थन करता है। परंतु अब गलत कामों को देखते हुए भी आँख मूंद लेने की प्रवृत्ति नौकरशाहों में बढ़ती जा रही है। यह सैक्शन नौकरशाहों को जनविरोधी कार्याें के विरोध में खड़े होने का आह्नान करता है। क्या एक वरिष्ठ नौकरशाह से ऐसी उम्मीद रखना गलत है? गलत तो जनविरोधी नीतियां या काम हैं और ऐसा करने वाले को सजा मिलनी ही चाहिए।
(2) सरकार पी.सी. एक्ट में सैक्शन 17 के नए संस्करण को लाना चाहती है। इस संशोधित संस्करण में किसी भी नौकरशाह के विरूद्ध कोई केस दायर करने से पहले किसी सक्षम अधिकारी से अनुमति लेना आवश्यक होगा। इसका अर्थ हुआ कि अब रंगे हाथों पकड़े जाने वाले पुलिस कर्मचारी या पासपोर्ट अधिकारी आसानी से तब तक मुक्त रहेंगे, जब तक कि वरिष्ठ अधिकारी से उन पर केस चलाने की अनुमति न मिल जाये। यह बहुत ही हास्यास्पद या बकवास लगता है। आज सभी विभागों में निचले स्तर पर ली जाने वाली रिश्वत का कुछ अंश उच्चतम अधिकारी तक भी पहुँचता है। सवाल यह है कि सोने का अंडे देने वाली मुर्गी को क्यों कोई अधिकारी केस चलवाकर मारना चाहेगा? सच्चाई यह है कि हमारी जाँच एजेंसियां अपने आप में ही भ्रष्ट हैं। वे तो राजनैतिक पिंजरे में बंद तोते की तरह हैं, जिसे जैसी पट्टी पढ़ाई जाएगी, वह वैसा ही बोलेगा।
दरअसल सैक्शन 13(I) (d) के प्रावधानों को असंवैधानिक करार देने का पूरा मामला कोयला सचिव हरीश गुप्ता पर कोयला घोटाले के संबंध में केस चलाए जाने के मुद्दे को लेकर शुरू हुआ है। इससे पहले 25 वर्षों तक उच्चतम् न्यायालय को कभी ऐसा कुछ असंवैधानिक नहीं लगा था। हरीश गुप्ता की छवि एक ईमानदार अधिकारी की रही है और नौकरशाह वर्ग उन पर किसी तरह की कानूनी कार्यवाहीं को लेकर विचलित है।
नौकरशाहों की दलील है कि वर्तमान पीसी एक्ट एक शिकारी कुत्ते की तरह ईमानदार नौकरशाहों को भी भयग्रस्त रखता है, जिसके कारण वे खुलकर नवीन नीतियों के प्रयोग से बचते हुए सुरक्षित रहना चाहते हैं। लेकिन अगर उनकी नवीन नीतियाँ जनहित साधने वाली हों , तब क्या? इससे जनता का नुकसान होता है।
इस दलील के पीछे की सच्चाई यह है कि पिछले कुछ वर्षों में नौकरशाही जिस गति और गुणवत्ता के साथ सटीक और त्वरित निर्णय ले रही है एवं काम कर रही है, उसे देखते हुए पीसी एक्ट के शिकारी कुत्ते वाली सोच बिल्कुल गलत सिद्ध होती है।
हरीश गुप्ता जैसे एकाध ईमानदार अधिकारी की आड़ में दर्जनों बेईमान अधिकारी दिनोदिन बढ़ रहे हैं। पिछले कुछ दशकों में वरिष्ठ नौकरशाहों में एक तरह की बौद्धिक बेईमानी नजर आ रही है। विशेष तौर पर राज्यों में तो आपसी आर्थिक लाभ के लिए नौकरशाहों एवं राजनेताओं के बीच साझेदारी बनी हुई है।
हमारे जर्जर और अप्रभावशाली कानूनों को बदलना इस समस्या का कोई खास समाधान नहीं लगता। आवश्यकता है, हमारी जाँच एजेंसियों की सफाई एवं त्वरित न्याय प्रक्रिया की। राजनैतिक पक्ष अब जिस प्रकार केंद्र में निर्णय-क्षमता का उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है, उसे राज्यों तक ले जाने की आवश्कयता है। भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए संपूर्ण प्रणाली में आमूल परिवर्तन से ही सुधार आने की उम्मीद की जा सकती है।

‘इंडियन एक्सप्रेस’ में टी.एस.आर. सुब्रमण्यम के लेख पर आधारित।
टीप- लेखक कैबिनेट सचिव रह चुके हैं।

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