भीड़ द्वारा की गई हिंसा को रोका जा सकता है
Date:09-08-18 To Download Click Here.
भीड़ द्वारा की गई हिंसा की घटनाओं का अंत नहीं है। इनकी संख्या को देखते हुए सरकार पर इसके लिए विशेष कानून बनाने का दबाव आ पड़ा है। सवाल उठता है कि इन घटनाओं का आधार क्या सत्य होता है ? अगर होता भी है, तो लोग इतने उग्र क्यों हो जाते हैं कि अपराधी को कानून के हवाले करने की अपेक्षा स्वयं ही उसका न्याय करने पर उतारु हो जाते हैं? 2012 में सोशल मीडिया पर उड़ी अफवाहों और एस एम एस ने बेंगलुरु में बसे बहुत से पूर्वोत्तर क्षेत्रीय लोगों को वापस जाने पर मजबूर कर दिया था। 2013 में हुए मुजफ्फरनगर के दंगों की शुरुआत फेसबुक पर जारी हुए एक वीडियो से हुई थी। 2014 में इंटरनेट पर जोड़-तोड़कर बनाई गई फोटो के कारण बड़ोदरा में दंगे हुए।
हाल ही में महाराष्ट्र में धुले में एक वीडियो के चलते बच्चा उठाने वाले के संदेह में निर्दोष को मार दिया गया। इन घटनाओं का कारण बनने वाली कुछ तस्वीरें बेंगलुरु, कराची या सीरिया से आई हुई थीं। इन घटनाओं से यह अर्थ लगाया जा सकता है कि इनके पीछे तकनीक का बहुत बड़ा हाथ है। जब तक यह सुरक्षित हाथों में है, तब तक जनता का भला कर सकती है। जहाँ यह गलत हाथों में पड़ी, तो कहर भी ढा सकती है। अब सोशल मीडिया चलाने वाली कंपनियों को चाहिए कि वे इसका हल ढूंढें। सरकार ने भी इस दिशा में प्रयास तेज कर दिए हैं। फोटो, वीडियो और मैसेज को पाँच लोगों को शेयर करने तक ही सीमित कर दिया गया है।
इसके अलावा फेक न्यूज को चेक करके उस पर कार्यवाही करने की भी बात कही गई है। भीड़ द्वारा हिंसा को रोकने के लिए जहाँ तक कानून बनाने की बात है, वह सही है। परन्तु केवल कानून इस पर लगाम नहीं लगा सकता, क्योंकि जहाँ लोगों की प्रवृत्ति ही दूषित हो, और जहाँ घृणा को उकसाने वाला मौन समर्थन मौजूद हो, वहाँ इसे कानून से रोकना मुश्किल हो जाता है। पिछले चार सालों से हम देख रहे हैं कि किस प्रकार दलितों और मुसलमानों को सार्वजनिक रूप से मारा गया, और भीड़ चुप खड़ी देखती रही। यहाँ तो जाँच-पड़ताल करने वाले भी मिले हुए हैं, और उल्टे दोष पीड़ित पर ही लगा देते हैं।
इस प्रकार की हिंसा को रोकने के लिए तीन तरह से काम करने की जरूरत है।
- सभी नेता एक सुर में बात करें। ऐसी घटनाओं के प्रति वे एकजुट होकर अपना भाव स्पष्ट करें। समाज को बता दें कि इसे किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। ऐसा करने के लिए नेताओं को वोट की राजनीति को त्यागना होगा।
- चुनाव आयोग को चाहिए कि वह नेताओं के भाषणों में घृणा तत्व को चुनावी अपराध की श्रेणी में रखे।
- सोशल मीडिया पर तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत की गई फोटो या खबरों का स्रोत और पहचान प्रकट की जाए। कानून के द्वारा उस व्यक्ति को दंडित करने का प्रावधान हो।
सरकार को उन्हें ही लक्ष्य करना चाहिए, जो सोशल मीडिया जैसे मंचों का दुरुपयोग करके समाज में जहर फैलाने का काम कर रहे हैं। तभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा भी हो पाएगी, और भीड़ द्वारा हिंसा से कई निर्दोष बच जाएंगे।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित कपिल सिब्बल के लेख पर आधारित। 26 जुलाई, 2018