पुलिस-सुधार

Afeias
30 Oct 2018
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Date:30-10-18

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22 सितम्बर को प्रति वर्ष “पुलिस सुधार दिवस” मनाया जाता है। इस दिन के महत्व के पीछे के इतिहास में झाँकने पर पता चलता है कि 1902-03 में फ्रेजर आयोग ने कहा था कि ‘‘पुलिस बल, अपनी क्षमता के हिसाब से बहुत पीछे है। यह एक संगठन और प्रशिक्षण की दृष्टि से अनेक कमियों से घिरा हुआ है। यह भ्रष्ट और दमनकारी है। यह जनता का विश्वास जीतने में विफल रहा है।’’ 115 वर्ष पूर्व पुलिस बल के बारे में कहे गए ये शब्द आज भी शत-प्रतिशत लागू होते दिखाई पड़ते हैं। यही कारण है कि पुलिस सुधार दिवस की आवश्यकता समझी गई, और इसकी शुरूआत की गई।

  • पुलिस बल की कमियों को दूर करने के लिए समय-समय पर अनेक प्रयास किए गए हैं। अलग-अलग राज्यों ने इससे संबंधित आयोगों का गठन किया है। दुर्भाग्यवश किसी भी आयोग ने पुलिस बल पर पड़ने वाले अवांछित दबावों से उसे बचाने के लिए कोई उपाय नहीं किए।
  • सन् 1977 में तत्कालीन केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया था। 1979-81 के बीच आयोग ने आठ विस्तृत रिपोर्ट सौंपी। लेकिन भारत की केन्द्रीय सरकार ने इन रिपोर्टों में प्रस्तावित सुधारों का उपयोग केवल दिखावे के लिए किया।
  • सन् 2006 में उच्चतम न्यायालय ने पुलिस सुधारों से संबंधित सात व्यापक दिशानिर्देश दिए। इनमें से छः राज्य सरकारों और एक केन्द्र सरकार के लिए था। इन दिशा-निर्देशों में राज्यों को तीन तरह की संस्थाएं बनाने को कहा गया था। (1) राज्य सुरक्षा आयोग (पुलिस को अतिरिक्त दबावों से मुक्त रखने हेतु।) (2) पुलिस स्थापना बोर्ड (पुलिस अधिकारियों को निर्णय लेने में स्वायत्तता प्रदान करने हेतु), और (3) पुलिस अभियोग प्राधिकरण (पुलिस वालों को उत्तरदायी बनाने हेतु।)

इन दिशा-निर्देशों में पुलिस महानिदेशक हेतु उत्कृष्ट अधिकारी के चुनाव संबंधी प्रक्रिया भी वर्णित की गई है। साथ ही, राज्यों को कानून-व्यवस्था की जाँच-पड़ताल की प्रक्रिया से अलग रखने की बात कही गई है, ताकि किसी भी मामले की गहन एवं निष्पक्ष जाँच की जा सके।

केन्द्र सरकार को राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग बनाने संबंधी दिशा-निर्देश दिए गए हैं।

  • उच्चतम न्यायालय के 12 साल पहले दिए गए इन दिशा-निर्देशों के बाद, आज तक उन पर अमल नहीं हो सका है। सत्रह राज्यों ने न्यायालय के आदेशों के पालन हेतु अधिनियम पारित किए, किन्तु उन्हें किनारे ही रखा। अन्य राज्यों ने तो ऐसे कार्यकारी आदेश जारी किए,जो न्यायालय के दिशा-निर्देशों के प्रतिकूल हैं। कुछ राज्यों में न्यायालय के आदेश के अनुकूल पुलिस संस्थाओं का गठन तो किया, परन्तु या तो उनके अधिकारों को कम कर दिया गया, या फिर उनका रूप ही बदल दिया गया। पुलिस महानिदेशक का चयन भी मनमाने तरीके से ही किया जा रहा है। कानून-व्यवस्था को जाँच-पड़ताल से अलग रखने वाले मामले में भी बहुत ढील है।
  • न्यायालय ने पुलिस सुधारों पर नजर रखने के लिए जस्टिस थॉमस समिति का गठन किया था, जिसने 2010 में अपनी रिपोर्ट पेश करते हुए राज्यों के पुलिस सुधारों के प्रति निराशाजनक रवैये की बात कही है। 2012 में हुए निर्भया कांड को लेकर बनी जस्टिम वर्मा समिति ने एक बार फिर उच्चतम न्यायालय द्वारा राज्यों को दिए गए छः दिशा-निर्देशों को संपूर्ण रूप से अंगीकृत करने पर जोर दिया है।

निष्कर्ष

किसी भी कांड का राज्यों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। दरअसल, वे औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकलना ही नहीं चाहते हैं। इसके दो कारण हैं-(1) पुलिस की शक्ति का दुरूपयोग करना उनकी सहूलियत है। (2) पुलिस बल पर नौकरशाही के आधिपत्य को छोड़ पाना उनको स्वीकार्य नहीं है। नेताओं और नौकरशाहों के बीच की यह सांठगांठ बहुत मजबूत है। यह किसी भी नीति, कांड और सुधार का गला घोंटने में माहिर है।

सत्ताधारी पक्ष इस तथ्य को स्वीकार करने में चूक रहा है कि देश की आर्थिक सुधारों की गति एवं राजनैतिक स्थिरता का आधार निष्पक्ष और कुंठारहित पुलिस बल है। एक ऐसे देश में कोई भी विदेशी निवेशक क्यों आना चाहेगा, जहाँ कानून व्यवस्था की स्थिति खराब हो? प्रधानमंत्री का स्मार्ट पुलिस का सपना तब तक पूरा नहीं हो सकता, जब तक कि राज्यों को सुधारों को अपनाने के लिए तैयार न किया जाए। पुलिस सुधारों का मूल उद्देश्य, पुलिस की शोभा बढ़ाना नहीं है। इसका लक्ष्य तो जनता की सुरक्षा बढ़ाना, कानून-व्यवस्था को कायम रखना एवं सुशासन की स्थापना करना है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित प्रकाश सिंह के लेख पर आधारित। 20 सितम्बर, 2018