दलित शक्ति का बदलता स्वरूप
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वर्तमान में दलित राजनीति का नया रुख देखने को मिल रहा है। दलितों ने अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों का जिस प्रकार विरोध किया है, संघर्ष का जो रास्ता चुना है, जिस प्रकार की संगठित शक्ति दिखाई है, और जिस प्रकार निश्चित मानदंडों पर आधारित कदम बढ़ाए हैं, वे काबिल-ए-तारीफ हैं। हाँलाकि दलित राजनीति के कोटा, संरक्षण, बहुजन, उपजाति आदि के नारे अभी भी चल रहे हैं, परंतु उनमें एक बदलाव दिखाई दे रहा है। अब इस प्रकार के मामलों का नेतृत्व स्वयं दलित ही कर रहे हैं।
इस बदलाव के कुछ पक्ष ध्यान देने योग्य हैं, जैसे; दलित अपनी राजनीति के प्रसार के लिए मीडिया के महत्व को पहचानने लगे हैं। बाबा साहब अंबेडकर की उपस्थिति को फिर से सुदृढ़ किया गया है। दलित नेतृत्व का ऐसा वर्ग उभरकर सामने आया है, जो बहुत पढ़ा-लिखा है। यह एक ऐसा वर्ग है, जो दलित-शोषण का इतिहास जानता है। और यही वर्ग चुनावों की दृष्टि से भी अहम् भूमिका रखता है। इस वर्ग ने ब्राह्मणवाद से शत्रुता साध रखी है और यह अपने लिए एक नया सामाजिक ढांचा तैयार कर रहा है।
दलितों का यह उठान भारतीय भू-भाग में एक अलग प्रजातांत्रिक राजनीति का परचम फहराना चाहता है। कोई भी एक राजनैतिक दल इनके नेतृत्व की सूची में नहीं है। परंतु लगभग सभी राजनैतिक दलों का भविष्य इन पर टिका हुआ है।
दलितों पर होते चले आ रहे अत्याचारों की एक लंबी फेहरिस्त पुलिस दस्तावेजों और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की फाइलों में दर्ज मिल जाएगी। लेकिन अब समय बदल गया है। रोहित वेमूला की आत्महत्या के पत्र में यह लिखा जाना कि ‘मेरा जन्म ही एक घातक दुर्घटना था’, यह दिखाता है कि आज दलित युवक अपनी जाति से पृथक असीम सपने संजोए हुए है। इन सपनों को पूरा करने के लिए वह निर्भय है। दलितों के अंदर यह भावना बढ़ती जा रही है कि उनके लिए न्याय और मानवाधिकार संस्थाओं के द्वार चाहे जितने भी खोल दिए गए हों, अंत में सभी द्वार एक बंद रास्ते तक ही पहुंचते हैं। किसी भी अवसर पर उनके लिए संभावनाएं अपेक्षाकृत कम ही होती हैं। इस भावना ने ही उन्हें आपस में जोड़कर खड़ा कर दिया है।
समान अवसरों और प्रतिफलों के न मिलने का प्रभाव न केवल उनके आर्थिक स्तर पर पड़ा है, बल्कि उनके जीवन जीने के तरीके और उनकी सोच पर भी पड़ा है। यही कारण है कि केवल सार्वजनिक ही नहीं, वरन् सभी क्षेत्रों में दलित वर्ग एक भेड़ चाल की तरह ही चलता जा रहा है। वह कुछ असाधारण या निर्णयात्मक नहीं कर पाया। यहाँ तक कि वे उच्च शिक्षा संस्थानों में भी अधिकतर सामाजिक अध्ययन वाले विषयों तक ही सीमित रह जाते हैं। इन क्षेत्रों में उन्हें न तो रोजगार के अधिक अवसर मिल पाते हैं और न ही कोई नई सोच मिल पाती है।
गांवों में भी अनेक भूमि व कृषि सुधारों के बावजूद भू-स्वामियों और सवर्ण समुदायों का ही बोलबाला है। इन सबमें दलित वर्ग एक कोने में ही सिमटा रहता है। कार्यक्षेत्र में भी उनकी काबिलियत के अनुकूल मौके नहीं मिल पाते। उन्हें दोस्ताना व्यवहार की जगह हीनता की भावना से ही देखा जाता है।हिन्दुत्व का नारा लगाने वाले लोग आज भी उन्हें उनकी जगह दिखाने से नहीं चूकते। इन सबने उनके अंदर अनचाहे होने की भावना को बढ़ा दिया है। हाल ही में तुगलकाबाद, उदपी, हैदराबाद या ऊना में दलितों के प्रति हुए कुठाराघात ने उनको ‘जन्म को घातक दुर्घटना’ वाले कथन से और भी गहरा जोड़ दिया है।
- संघर्ष के आयाम
समस्त दलित वर्ग आज जिस सामाजिक संघर्ष में उलझा हुआ है, उसका उद्देश्य धन, जाति या शक्ति जैसी केवल बाहरी ताकतों से लड़ना नहीं है। वह तो मानव मात्र के रुप में अपने को दास और पतित समझे जाने से मुक्ति पाना चाहता है। वह सामाजिक और मानसिक स्तर पर अपने को समान रुप से स्थापित करना चाहता है। आज की दलित राजनीति महज राजनैतिक शक्ति या धर्मांतरण तक सीमित नहीं है। वह अपने संघर्ष को एक नए मुकाम पर ले जाना चाहती है। इसके लिए उन्हें नए-नए संसाधनों का साथ भी मिला हुआ है। आज का मीडिया प्रसार का एक माध्यम न रहकर हर पहलू का समीक्षक और आकलनकत्र्ता बन गया है। रोहित वेमुला के संदर्भ में हम यह देख ही चुके हैं। गुजरात में जिस प्रकार मीडिया की सक्रियता से कर्नाटक में ‘उदर्पी चलो’ जैसा आंदोलन सफल बनाया गया, वह इसका उदाहरण हैं।
आज अपनी मांगों के समर्थन में छोटे-छोटे गांवों तक के दलित लोग शारीरिक और भावनात्मक रुप से एकजुट हो रहे हैं। आए दिन दलित वर्ग के पक्ष में नारे लगाए जा रहे है। दलितों की शौर्य-गाथाओं को दोहराया जा रहा है। जहाँ उन पर अत्याचार हुए, उन स्थानों को तीर्थों की तरह पूजा जा रहा है। उनके समर्थन में गीत गाए जा रहे हैं, नुक्कड़ नाटक खेले जा रहे हैं। इस पूरे संघर्ष में दलित स्त्री-पुरूष कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। इन सब घटनाओं के बीच डॉ.अंबेडकर को वे कहीं नहीं भूलते। आज भी वही उनके प्रधान नेता हैं।
आज दलितों के साथ सभी पिछड़ी जातियाँ और मुसलमान भी आ खड़े हुए हैं। इससे उनकी शक्ति में बहुत बढ़ोत्तरी हुई है। गौ-रक्षा के नाम पर जिन लोगों ने मुसलमानों और दलितों को सताया है, उन्हें यह नहीं पता कि ऐसा करके उन्होंने इन दोनों ही जातियों की नजदीकियों को बढ़ा दिया है।दलितों के लिए लगने वाले नारे अब स्वाभिमान, आजादी, आत्माभिमान और गरिमा की बात करते हैं। ये नारे पूर्व में दलितों के प्रति हुए अत्याचारों के विरोध में शंखनाद की तरह सुनाई देते हैं। आज के दलित महिलाओं की समानता के प्रति भी बहुत जागरूक हैं। वे चाहते हैं कि उनके समाज की महिलाएं अपना इच्छित जीवन जी सकें।
उत्तरप्रदेश के दादरी में मोहम्मद अखलाक के साथ हुई दुर्घटना ने उन्हें अपने भोजन के अधिकार के लिए भी खड़ा कर दिया है। सभी दमित वर्गों और समूहों में अब एकजुटता का बहुत अधिक संचार हो चुका है।
- मुख्य सिद्धांत एवं आदर्श
आज का दलित आंदोलन क्रमशः मानवीय गरिमा और सक्षमता पर अधिक बल देता दिखाई दे रहा है। एक भूमि के टुकड़े पर अपनी इच्छा का घर बनाकर और अपने इच्छित कर्म को अपनाने की जैसी प्रबल मांग आज के दलित वर्ग में मिलती है, वैसी पहले कभी नहीं थी। ज्योतिराव फुले के समय में ब्राह्मणवाद के विरोध में जुलूस निकालने वाले दलितों को अब नए अर्थ मिल गए हैं। अब वे समानता और गरिमा पर आधारित एक सामाजिक व्यवस्था चाहते हैं।दलितों के प्रति यह संवेदनशीलता राजनीतिक चुनावों में क्या रंग दिखाएगी, यह अभी कहना संभव नहीं है। यह जरूर है कि इन्हें जोड़ने वाले तो बहुत से मुद्दे बना लिए गए हैं, लेकिन अभी भी इस दमित-शोषित वर्ग में खाइयां बहुत सी हैं, जिन्हें पाटने की जरूरत है।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित वैलेरियल रौड्रिग्स के लेख पर आधारित।