देश का सिमटा हुआ कल्याणकारी स्वरूप

Afeias
14 Apr 2020
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Date:14-04-20

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राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन का निर्णय अचानक किया गया है। ऐसा होना उच्च स्तर पर सरकारी शक्तियों के केन्द्रीकरण को दर्शाता है। सरकार का यह आदेश राष्ट्र का संकुचन करता हुआ प्रतीत हो रहा है। 2014 से ही प्रधानमंत्री ने न्यूनतम सरकार, अधिकतम प्रशासन का नारा दिया था। इसको एक भिन्न तरीके से व्यवहार में लाया जा रहा है।

सर्वप्रथम, देश को अपना ध्यान स्वयं रखने को कहा जा रहा है। अपने हाल ही के एक वक्तव्य में प्रधानमंत्री ने देश के अमीर वर्ग से गरीबों का ध्यान रखने को कहा था। उन्होंने नवरात्र के अवसर पर प्रतिदिन नौ भूखे लोगों को खाना खिलाने की भी अपील की थी। वह अपील राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से प्रेरित लगती है, जिसकी विचारधारा में सदा ही सरकारी तंत्र से ऊपर सामाजिक तंत्र को माना जाता है। संघ परिवार की सामाजिक कल्याण योजनाएं इसी के चलते अस्तित्व में आई हैं।

संघ परिवार यह भी मानकर चलता है कि समाज को आत्म-अनुशासन के माध्यम से अपनी देखभाल स्वयं करनी चाहिए। ‘जनता कफ्र्यू’ इसी धारणा का एक नर्म उदाहरण था। इस विचारधारा का दूसरा पक्ष जनता का पुलिस और रक्षक की भूमिका में उतर जाना है। उत्तरप्रदेश में सीएए प्रदर्शनकारियों के नामों का सरेआम प्रदर्शन कर उनको शर्मसार करना, और दूसरी ओर निगरानी रखने वालों का सम्मान करना यही दिखाता है।

सरकार ने तो सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे अनिवार्य पहलुओं से अपने कदम पीछे खींच लिए हैं। सकल घरेलू उत्पाद में स्वास्थ्य पर मात्र 1.2 प्रतिशत ही व्यय किया जाता है। इंडोनेशिया, मैक्सिको, कोलंबिया आदि इससे कहीं ज्यादा व्यय करते हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य पर इनता कम व्यय करने से ही निजी अस्पतालों की मांग बढ़ती जा रही है।

कल्याणकारी योजनाओं का संकुचन आर्थिक मोर्चे पर भी देखा जा रहा है। भारत का वित्तीय घाटा बढ़ रहा है, और यह बढ़कर सकल घरेलू उत्पाद के 9 प्रतिशत तक पहुँच गया है। (इसमें केन्द्र, राज्यों और सार्वजनिक इकाइयों का घाटा शामिल है)। यह घाटा आर्थिक मंदी से प्रभावित है (विकास दर 7 प्रतिशत से 4.5 प्रतिशत तक नीचे आ गई है)। इससे कर-संग्रहण में गिरावट आई है।

इसका प्रभाव यह हुआ कि भारत सरकार आज कोरोना संकट के राहत पैकेज को बढ़ाने की स्थिति में नहीं है। सरकार द्वारा घोषित 1.7 लाख करोड़ रुपये, सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 0.8 प्रतिशत है। यह यूपीए सरकार द्वारा शुरू की गई मनरेगा के बराबर कहा जा सकता है। जन-धन योजना से मात्र 500 रुपये की राशि का दिया जाना, और मनरेगा की राशि में मामूली बढ़ोत्तरी से बात नहीं बनने वाली है।

लॉकडाउन से सबसे ज्यादा प्रभावित सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्योग हैं। यही इकाइयां 40 प्रतिशत कार्यबल को काम देती हैं। राहत पैकेज में इनके सावधि जमा को शामिल नहीं किया गया है। यह इन इकाइयों की कुल लागत का 30-40 प्रतिशत है। इसके न मिलने से इकाइयां, श्रमिकों को नौकरी से निकाल रही हैं।

हमारे देश में 50 करोड़ से अधिक गैर कृषि-कर्म वाला कार्यबल अनौपचारिक क्षेत्र में काम करता है। ये श्रमिक अनुबुंध के बिना काम करते हैं। इन्हें ट्रेड़ यूनियन का सुरक्षा कवच और सहयोग प्राप्त नहीं है। इन श्रमिकों को आवास भी खाली करने को कह दिया गया है, क्योंकि इनकी जीवन-शैली अस्वास्थ्यकर है।

देश के वंचित वर्ग का असंतोष, केवल आर्थिक स्तर तक ही नहीं है। लॉकडाउन इस प्रकार से किया गया है कि वे अपने को अशक्त महसूस कर रहे हैं। केरल को छोड़ दें, तो अन्य राज्यों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए दिया गया अतिरिक्त अन्न कोष पर्याप्त नहीं है।

निर्धनों और वंचितों के कल्याण हेतु प्रबंधन करना सरकार और निजी क्षेत्र का दायित्व है। इसे दान-पुण्य से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। भारत की आर्थिक स्थिति अनिश्चितता के दौर से गुजर रही है। बैंकों पर गैर निष्पादित सम्पत्ति का बोझ है। भारत का ऋण अनुपात बहुत अधिक है। 69 प्रतिशत के स्तर पर यह ब्राजील जैसी कई उभरती अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में अधिक है। इसके बावजूद इस समय भारत को एक कल्याणकारी देश की भूमिका पर खरा उतरना ही होगा।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित क्रिस्टोफर जेफरलॉट एवं उत्सव शाह के लेख पर आधारित। 30 मार्च, 2020

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