पशु-मानव संघर्ष का जटिल स्वरूप

Afeias
24 Jun 2020
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Date:24-06-20

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मनुष्य और पशुओं के संघर्ष में जीत हमेशा मानवों की ही हुई है। हाल ही में बारुद से भरे अनानास को खाने से जिस प्रकार से गर्भवती हथिनी की मृत्यु हुई है , उसने इस संघर्ष के वहशियाना तरीकों पर ‘क्यों’ जैसे सवाल खड़े कर दिए हैं। अभी तक यह सिध्द नहीं हो पाया है कि इस प्रकार की हरकत क्या हथिनी को ही मारने के लिए की गई थी , या अन्य  किसी हिंस्त्र पशु के लिए यह जाल बिछाया गया था। ऐसा भी सुनने में आया है कि हाथी के मुँह में बारुद फटने की यह पहली घटना नहीं है। किसी हाथी या जंगली सूअर का इस प्रकार मारा जाना आम बात है। फर्क इतना ही है कि ऐसा समाचार सुर्खियों में नहीं आ पाता।

इस समाचार के लिए पशु-प्रेमियों की उग्र प्रतिक्रिया आने के बावजूद , यह घटना कुछ दिनों में सामान्य होकर फिर से घटित होने लगेगी। अच्छा तो यह है कि इस घटना की जड़ तक पहुंचकर ऐसा होने के कारणों का ही समाधान ढूंढा जाए।

वन्य पशुओं का वन से लगे खेतों की ओर चले आना सामान्य  बात है। कुछ जंगली सूअर , हाथी, बंदर या हिरण महज एक घंटे में पूरी फसल को बर्बाद करने की क्षमता रखते हैं। अगर पशुओं का झुंड खेत में घुस जाए , तो उन्हें खदेड़ना बहुत मुश्किल होता है। फसल की बर्बादी की क्षतिपूर्ति में सरकार भी बहुत सक्षम नहीं है। इसके अंतर्गत या तो किसान को कुछ नहीं मिलता या धन सही हाथों में नहीं जाता। फिर आखिर किसान करे तो क्या करे ?

वन्य पशुओं को फसलों से दूर रखने का सर्वोत्तम मार्ग बाड़ लगाना है। पत्थ्र या ईंट की दीवार खींचने का खर्च बहुत ज्यादा आता है। बैटरी से चलने वाली सौर ऊर्जा वाली बाड़ सस्ती होते हुए भी कुछ हद तक ही कारगर सिध्द होती है। श्रीलंका में इस प्रकार की बाड़ का चलन बहुत अधिक है। वहां के किसान अक्सर धान के मौसम में इसका अस्थायी रूप से उपयोग करते हैं , और फिर इसे हटा देते हैं। इस प्रयोग में वे बहुत सफल भी रहते हैं। साथ ही , किसान मचान से लगातार निगरानी रखते हैं।

केरल में वनों के संरक्षित क्षेत्र में बाड़ लगाई गई है। इतने बड़े क्षेत्र को बाड़ से बांधने के बजाय अगर खेतों में निजी तौर पर ऐसा किया जाता , तो यह ज्यादा आसानी से संभाला जा सकता था। लेकिन वनों के आसपास के किसान वन विभाग से ही ऐसी अपेक्षा रखते हैं। विभाग के पास इतनी निधि नहीं होती कि वह राज्य के सभी खेतों में इलैक्ट्रिक बाड़ लगवा सके। इसके अलावा हाथी जैसे शक्तिमान पशु इस बाड़ को तोड़ने की क्षमता रखते हैं।

इस समस्या  का दूसरा पक्ष उन कबीलों में देखने को मिलता है, जो सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी वनों में रहते हुए खेती कर रहे हैं। लेकिन वे कभी भी पशुओं के आक्रमण की शिकायत नहीं करते। वे इसे जीवन का हिस्सा मानते हैं, और जानते हैं कि फसल का कुछ हिसा पशुओं की भेंट चढ़ेगा ही। उनमें पशुओं के व्यावहार की समझ होती है, और वे उन्हें  चोट पहुंचाए या मारे बिना ही पूरी-पूरी रात जागकर चौकसी करते हैं।

कुछ क्षेत्रों के आदिवासी तो पेड़ों की ऐसी शाखाओं से बाड़ बनाना जानते हैं , जो पशुओं को दूर रख सकती है। मैदानी क्षेत्र के प्रवासी कृषकों को इस प्रकार के तरीकों की जानकारी नहीं होती। गर्भवती हथिनी के साथ किए गए इस जघन्य कृत्य के पीछे उन 10% शुध्द व्यावसायिक बुध्दि वाले किसानों का ही हाथ हो सकता है , जो शहरों में बड़े-बड़े खेतों के मालिक हैं।

दुर्भाग्यवश सरकार जंगली सूअर को निजी सम्पत्ति पर देखते ही गोली मारने को अनुमति देने का मन बना रही है। अच्छा तो यही है कि हम इस प्रकार की समस्या से निपटने के लिए वैज्ञानिक उपाय ढूंढें , और अमानवीय तरीकों पर रोक लगायें।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित आशा प्रकाश के लेख पर आधारित। 13 जून , 2020

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