जी आई पंजीकरण के पुनरावलोकन की आवश्यकता
Date:13-12-17
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भौगोलिक संकेतक या ज्यॉगरॉफिकल इंडीकेशन्स (GI) के सिद्धांत का संबंध किसी उत्पाद के जन्म स्थान के कारण उसको मिली उसकी गुणवत्ता से है। इस प्रकार जी आई किसी वस्तु के स्थानीय उत्पादन को प्रोत्साहित करता है। इसी श्रृंखला में वह ग्रामीण एवं आदिवासी समुदायों के आर्थिक आधार को विकसित करने का माध्यम भी बनता है। यह बौद्धिक संपदा अधिकार की तरह व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामूहिक अधिकार की गारंटी देता है।
औपचारिक परिचय
भारत विश्व व्यापार संगठन का सदस्य है। इस नाते वह ट्रेड रिलेटेड आस्पेक्टस् ऑफ इंटेलेक्च्यूअल प्रापर्टी राइटस् (WTO-TRIPS) से भी जुड़ा हुआ है। इसके मद्देनजर सन् 1999 में भारत ने जीआई से संबंधित सुई जेनेरिस कानून बनाया।
जी आई को ट्रिप्स में सम्मिलित किए जाने के पीछे यूरोपीयन यूनियन का हाथ है, जो अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपने उत्पादों को संरक्षित करना चाहता था। जबकि अमेरिका जी आई का पक्षधर नहीं है।
दूसरी ओर, भारत में जी आई को ट्रिप्स के अनुच्छेद 23 से ऊपर उठकर देखा ही नहीं गया। अन्य उत्पादों की अपेक्षा वाइन और अल्कोहल से जुड़े उत्पादों को प्राथमिकता दी गई। कुछ विशेषज्ञों को इस बात का दुख रहा है कि कृषि एवं हस्तकला की भूमि होने के बावजूद भारत के जी आई में वाइन और अल्कोहल को प्राथमिकता दी जाती रही है।
भारतीय जी आई विधान की कमियाँ
ट्रिप्स में जी आई के संरक्षण के लिए कोई प्रावधान नहीं है। यहाँ तक कि यह सुई जेनेरिस प्रकार का संरक्षण भी प्रदान नहीं करता।
भारत में जी आई में पंजीकरण के लिए उत्पत्ति के प्रमाण मांगे जाते हैं। यह प्रावधान यूरोपियन यूनियन से लिया गया है। भारत में प्रमाण के रूप में ऐतिहासिक दस्तावेज भी मांगे जाते हैं। जी आई 2002 के नियमों के अंतर्गत इसे जी आई कार्यालय के कंट्रोलर जनरल द्वारा स्पष्ट किया जाना आवश्यक होता है। भारत में ऐसा नियम कितना प्रासंगिक है, जबकि ट्रिप्स में ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है।
अगर ऐसे दस्तावेजों के प्रमाण मांगे जाने को किसी प्रकार से जायज ठहरा भी दिया जाए, तो, प्रश्न उठता है कि भारत के उत्तर-पूर्व जैसे राज्य दस्तावेज कहाँ से लाएं, जहाँ लिखित इतिहास की तुलना में मौखिक इतिहास अधिक मिलता है?
इसी संदर्भ में असम अपने प्राकृतिक, कृषि एवं पारंपरिक उत्पादों को जी आई मान्यता दिलवाने के लिए जूझ रहा है। उदाहरण के लिए, वहाँ के आदिवासियों द्वारा बनाई गई वाइन ‘जूडीमा’ के पंजीकरण की नाकाम कोशिश की जा रही है। इसकी उत्पत्ति से संबंधित दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं ।
ऐसा ही एक अन्य उदाहरण भारत की हल्दी के तब संबंध में सामने आया था, जब अमेरिका के दो वैज्ञानिकों ने इसकी उपचार क्षमता के संबंध में इसका पेटेंट करवा लिया था। बाद में पौराणिक दस्तावेज प्रस्तुत करके इसे भारत के नाम करवाया गया।
समस्या यही है कि लिखित इतिहास के अभाव में क्या किया जा सकता है? क्या ऐसे होने पर कई भारतीय उत्पाद जी आई पंजीकृत नहीं हो पाएंगे? कुछ एक मामलों में व्युत्पत्ति का आधार मानकर उसे जी आई पंजीकृत किया गया है। परन्तु ऐसे मामले अपवाद हैं। अतः जी आई से संबंधित अधिकारियों को इसमें शीघ्र सुधार करने के लिए कदम उठाने चाहिए।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित जूपी गोगोई के लेख पर आधारित।