विश्लेषण की क्षमता में संकलन की शक्ति

Afeias
04 Mar 2016
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दोस्तो, अभी तक आपसे मैंने जितनी भी बातें की हैं, यदि आप उन्हें गौर से देखें, तो पाएंगे कि उन सभी का संबंध केवल दो मुख्य बातों से है। पहला तो यह कि कैसे आप अपने दिमाग में तथ्यों को लाएं। दूसरा यह कि कैसे आप उन तथ्यों को लाने के बाद ऐसा क्या कुछ करें कि आपके दिमाग में वे तथ्य लम्बे समय तक मौजूद रह सकें। यदि आपने मुझे पहले कभी पढ़ा हो, या सुना हो, तो मैं सूचनाओं को ज्ञान में तथा ज्ञान को प्रज्ञा में बदलने की बात करता हूँ। और यहाँ मैं जितनी भी बातें कर रहा हूँ, वे एक तरह से सूचनाएँ इकट्ठी करने की ही बातें हैं। लेकिन जब मैं इन सूचनाओं के साथ प्रश्न खड़े करने की बात करता हूँ, विरोधी तर्कों पर विशेष ध्यान देने की बात करता हूँ, अपने विचारों को एक्टेंड करने की बात करता हूँ, पढ़ाने की बात करता हूँ, तो निश्चित रूप से ये सभी ऐसी प्रक्रिया की ओर संकेत करते हैं कि कैसे उस सूचना को ज्ञान में परिवर्तित किया जाए। ऐसा हो जाता है। यदि एक बार ऐसा हो जाएगा, तो आगे जो कुछ भी होगा, विलक्षण बात यह है कि वह सब अपने-आप होगा। अब आपको सिवाय इसके कुछ भी नहीं करना होगा कि आपको अपनी दृष्टि और अपने दिमाग को खुला रखना है, ताकि अब जो कुछ भी हो रहा है, उसे आप देख सकें और जो कुछ भी आगे होगा, आपका दिमाग उसे स्वीकार कर सके। और यह बहुत बड़ी बात होगी।

देखिए, आपके दिमाग में तथ्य इकट्ठे हो चुके हैं। जो तथ्य इकट्ठे हुए हैं, वे बहुत ही वैज्ञानिक तरीके से इकट्ठे हुए हैं। इकट्ठे किए गए इन तर्कों पर आपने पूरी तरह से विचार-विमर्श कर लिया है, यानी कि आपने इनके साथ वैसा ही व्यवहार किया है जैसा कि रूई धूनने वाला धुनकर रूई को रजाई में भरने से पहले उसके साथ करता है। या फिर यह कि जैसे कोई ग्वालन दूध की अच्छे तरीके से मथाई कर लेती है या कोई कुम्हार मिट्टी को बहुत अच्छे तरीके से कुचल-कुचलकर, हाथों से दबा-दबाकर एकदम ऐसा बना देता है कि उसके सभी कण एक-दूसरे से मिलकर एक जैसे हो जाते हैं। अगले चरण में आपने यह भी कर लिया है कि ये तथ्य आपके दिमाग में तरोताजा बने रहें। यानी कि आपने अपने दिमाग के पर्यावरण को बिल्कुल एक अलग तरह का बना लिया है। जमीन तैयार कर ली है। उसमें बीज की मौजूदगी भी है। अब उस बीज को अंकुरित होना है। याद रखिए कि आप बीज को केवल वातावरण उपलब्ध कराते हैं ताकि वह अंकुरित हो सके। आप बीज को अंकुरित नहीं कर सकते। हाँ, यदि आप वातावरण उपलब्ध नहीं कराएंगे तो वह अंकुरित नहीं होगा, फिर चाहे बीज कितनी भी अच्छी क्वालिटी का क्यों न हो। यानी कि यदि आपने बहुत अच्छी किताबें पढ़ भी ली हैं, जो बीज के रूप में आपके दिमाग में मौजूद हैं, लेकिन यदि आपने अपने उन पढ़े हुए तथ्यों के बीज को पूरी तरह से सही मनोवैज्ञानिक परिवेश उपलब्ध नहीं कराया, तो उसके अंकुरित होकर फल-फूल देने की स्थिति कभी नहीं आएगी। यहाँ इसे ही मैंने संकलन की शक्ति कहा है। अब जो कुछ भी होगा अपने-आप होगा। अब आपको कुछ नहीं करना है। आपको जो कुछ करना था, वह तो आपने इससे पहले कर लिया है।
तो अब आपको मैं बताता हूँ कि अब क्या-क्या होगा और अब जो कुछ भी होगा, सच यही है कि यही-यही होना चाहिए था। आपने जो कुछ भी अब तक किया है, वह यही-यही होने के लिए किया है और इन्हीं सबका होना आपको सिविल सर्वेन्ट बनाएगा।

पहली बात तो यह कि निःसंदेह रूप से कल्पनाओं में भी विचारों को जन्म देने की शक्ति होती है, जैसा कि हमारे दार्षनिक करते रहे हैं। लेकिन केवल कल्पना के माध्यम से उन विचारों का आकार लेना लगभग-लगभग असंभव होता है, जिनकी जरूरत सिविल सर्विसेस के लिए होती है। बहुत से स्टूडेन्टस को अपने-आप पर इस बात का बहुत विष्वास होता है कि ‘‘जब परीक्षा में पूछा जाएगा, तो वे लिख लेंगे।’’ और वे लिख भी लेते हैं। लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि यह लिखना उस तरह का लिखना नहीं बन पाता, जो कि होना चाहिए था। ऐसा लिखना उन्हें नम्बर तो दिला देता है, लेकिन उतने नहीं, जितने कि होने थे। सोचने की बात यहाँ यह है कि आखिर कोई तो ऐसी वजह होगी, जिसके कारण यूपीएसी को यह साफ-साफ निर्देष देना पड़ा कि उत्तर तर्कसंगत एवं सारगर्भित होने चाहिए। आखिर इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि उत्तर कल्पना की तलवारबाजी पर आधारित न होकर तथ्यों की ठोस जमीन पर आधारित होने चाहिए। यह ठीक भी है, क्योंकि यहाँ उन प्रषासकों की भर्ती की जा रही है, जिन्हें ठोस रूप में परिणाम उपलब्ध कराने है, न कि कलाकारों और साहित्यकारों की भर्ती हो रही है, जहाँ कल्पना की शक्ति ही सबसे बड़ी योग्यता होती है।
इस बारे में मैं यहाँ आपको जानबूझकर सतर्क कर रहा हूँ। ऐसा इसलिए, क्योंकि जब आप मुख्य परीक्षा के जनरल स्टडीज के चारों पेपर्स को पढ़ते हैं, निबंध का पेपर देखते हैं, और यहाँ तक कि आर्ट्स के कुछ वैकल्पिक विषयों के भी पेपर्स के कुछ प्रष्नों पर अपनी निगाह डालते हैं, तो आपको ऐसा लगता है कि ‘यह हो जाएगा।’ और यहीं आप अपने साथ सबसे बड़ा धोखा कर रहे हैं। यह धोखा इसलिए और भाी एक बड़े धोखे में तब्दील हो जाता है, क्योंकि उत्तर लिखने की शब्द संख्या कम होती है। ऐसे में लगता है कि ‘इतना तो लिख ही लेंगे।’ आपको स्वयं को इस सरलीकृत आम धारणा से बचाना होगा। और फिलहाल जब तक आप सिविल सिर्वस के लिए तैयारी कर रहे, मानकर चलना होगा कि ‘कोई भी विचार शून्य में उत्पन्न नहीं होता।’’

लेकिन यहाँ एक बात ऐसी है, जो इस वक्तव्य से थोड़ी अलग है। वह यह कि जहाँ तक आपके अपने मौलिक विचारों का सवाल है, वे तो कल्पना पर ही आधारित होंगे, क्योंकि वे मौलिक हैं, नए हैं, इस बारे में भी यहाँ मैं आपसे दो बातें करना चाहूंगा। पहला यह कि आप काल्पनिक एवं व्यावहारिकता को समझ लें। आपके विचार काल्पनिक तो हो सकते हैं, लेकिन इसके साथ ही जरूरी है- उनका व्यावहारिक होना। यानी कि उन्हें कार्यरूप दिया जा सकता है। दूसरा यह कि यह तो बहुत ही अच्छा होगा, यदि आप अपने उत्तर में यह भी बता सकें कि इस तरह का काम अमूक स्थान पर सफलतापूर्वक किया जा चुका है। यदि आप इन दोनों बातों का या फिर इन दोनां में से किसी एक का भी ध्यान रखते है, तो आपके विचार काल्पनिक होते हुए भी काल्पनिक नहीं होंगे।
तथ्यों के संकलन के जिन तरीकों के बारे में आपने इससे पहले पढ़ा, और पढ़कर उन्हें बनाए रखने के जिन उपायों के बारे में आपने जाना, दरअसल उनकी सबसे बड़ी उपयोगिता ही यही है कि ये आपके विचारों को शून्य से उतारकर एक ठोस धरातल प्रदान करते हैं। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह वह धरातल ही होता है, जिससे विचार उत्पन्न होते है। तब काल्पनिक जगत का अस्तित्व रह ही नहीं जाता। क्या आप कभी भी इस तरह के अनुभव से गुजरे हैं, यहाँ जरा सोचें। इससे आपके लिए जहाँ इस सत्य को समझना आसान हो जाएगा, वहीं यह सत्य अत्यंत मूल्यवान भी बन जाएगा।

अब क्या-क्या होगा
जाहिर है कि यदि आपके दिमाग में तथ्यों का संकलन है, तो वहाँ से शून्य की स्थिति समाप्त हो चुकी है। यह बात अलग है कि फिलहाल अभी आपको अपना दिमाग एक ऐसे चरिटल मैदान की तरह महसूस हो रहा है, जिसमें हरियाली का दूर-दूर तक कोई नामोनिषान ही नहीं है। लेकिन भरोसा रखिए कि यह स्थिति लम्बे समय तक बनी नहीं रहेगी। वह दौर आएगा ही, जब यह जमीन वनस्पतियों से हरिया जाएगी। हाँ, ऐसा कब होगा, इसमें कितना वक्त लगेगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आप इसके लिए कितना कुछ क्या कर रहे हैं। आपको क्या-क्या करना चाहिए, इसके बारे में हम लोग इससे पहले बातें कर चुके हैं, और वह भी बहुत विस्तार के साथ। फिलहाल उन बातां को थोड़ा याद करने की जरूरत है। यदि आप अपने द्वारा इकट्ठे किए गए तथ्यों के साथ वैसा व्यवहार करते हैं, जैसा कि आपको बताया जा चुका है, तो आपके मस्तिष्क में निम्न तीन में से कोई भी एक स्थिति निर्मित हो सकती है, और यहाँ तक कि इनमें से कोई भी दो, या तीनों भी। वस्तुतः ये तीनों अलग-अलग होने के बावजूद एक-दूसरे से पूर्णतः अलग भी नहीं हैं। तो आइए, देखते है कि वे तीन स्थितियां क्या हो सकती हैं।

(1) अपने निष्कर्षों पर संदेह- हमारा दिमाग प्रत्येक उन मामलों पर, जिनमें हमारी तनिक भी रुचि होती है, अपने पूर्वाग्रहः एवं दुराग्रह बना लेता है- सही या गलत कुछ भी। उसकी अपनी पक्की धारणायें बन चुकी होती हैं, जिन्हें वह अपनी पूरी दावेदारी के साथ समय-समय पर जरूरत पड़ने पर प्रस्तुत करता रहता है। राजनीति, भ्रष्टाचार, आरक्षण, मीडिया, नैतिक मूल्य, नौकरषाही, पूंजीवाद, अपराध, धर्मनिरपेक्षता, चुनावी परिदृष्य, प्रषासन, धर्म अदि इन सभी में क्या कोई विषय ऐसा है, जिसके बारे में आपकी अपनी कोई भी धारणा न हो? विषयों की यह लिस्ट बहुत लम्बी की जा सकती है। यहाँ तो बानगी भर है।

प्रेक्टिकल के तौर पर आप इनमें से किसी भी एक टॉपिक को चुनकर उस टॉपिक के बारे में अपने मुख्य विचारों को लिख लें। ये विचार ही आपकी इसके बारे में बनी हुई धारणायें हैं, निष्कर्ष हैं।
अब आप इस टॉपिक पर तथ्य जुटाना शुरु करें। ध्यान रहे कि तथ्यों के इस संकलन में अपनी पसंदगी-नापसंदगी को कोई भूमिका न निभाने दें। जो भी तथ्य आ रहे हैं, आने दें। खुले दिमाग से इन सभी का स्वागत करें।

तथ्यों के इकट्ठे हो जाने के बाद आप कुछ समय तक उन्हें उपयोग में लायें, जैसा कि इसके पहले वाले अंक में विस्तार के साथ बताया गया है। यह एक प्रकार से मथने की प्रक्रिया है। इससे ये तथ्य आपके दिमाग में उसी तरह रच-बस जायेंगे, जैसे कि भोजन शरीर में। तभी यह आपके काम का भी होगा।

अब आप उसी टॉपिक पर अपने विचारों की मूलभूत बातों को फिर से लिखें। बेहतर होगा कि उन्हीं-उन्हीं तथ्यों के बारे में लिखें, जिन-जिनके बारे में आपने पहले लिखा था।

फिर आप पहले लिखे हुए विचारों को अब लिखें हुए विचारों से मिलायें। आप पायेंगे कि अब आपके निष्कर्ष पहले जैसे नहीं रह गये हैं। हो सकता है कि वे पूरी तरह उलट न गये हों, लेकिन उनमें उतना ठोसपन नहीं रह गया है, जितना कि उनमें इससे पहले था। हो सकता है कि यह भी हो जाये कि आपके पहले के निष्कर्ष अब और भी अधिक पुख्ता हो जायें। लेकिन इस बात कीसंभावना इसलिए थोड़ी कम रहती है क्योंकि अभी आप उम्र के जिस दौर में हैं, उसमें आपके दिमाग के सामने से अभी छोटी सी दुनिया ही गुजरी है। अभी वह इतना परिपक्व नहीं हुआ है कि उसकी धारणाओं को हिलाया न जा सके। और मुझे लगता है कि जीवन के इस सत्य को मनोवैज्ञानिक स्तर पर आपको स्वीकार करना भी चाहिए। इसे स्वीकार न करने का अर्थ कहीं न कहीं हठी होना ही होगा, दुराग्रही होना ही होगा। अंततः शंकराचार्य जैसे विलक्षण दार्षनिक को भी वाराणसी में घटित एक घटना के बाद अपनी बड़ी मूलभूत धारणा को उलटना पड़ा था। और यह इस बात का भी प्रमाण है कि आपके दिमाग में लचीलापन है, जो सही एवं गलत के चुनाव के लिए हमेषा तैयार रहता है। यह एक प्रकार से इस बात की भी निषानी है कि आप ग्रो कर रहे हैं, आगे बढ़ रहे हैं। देष को ऐसे ही मस्तिष्क वाले प्रषासकों की जरूरत है, न कि ऐसों कि जो हर हाल में अपने को ही सही मानते हैं, और उसी के अनुसार सब कुछ करते हैं। ऐसे लोगों से भगवान बचाये।

एक ठोस एवं पपड़ी पड़ी हुई सूखी जमीन से कुछ उपजे, उसकी पहली शर्त होती है कि उसकी सतह थोड़ी गीली हो, थोड़ी नर्म पड़े, ताकि उसके अंदर चुपचाप पड़े हुए बीज अपना सिर उठाने की हिम्मत जुटा सकें। अपने निष्कर्षों के प्रति संदेह भी भावना का उदय होना दिमाग की ठोस जमीन का कोमल होने जैसा ही है।

(2) नई संभावनाओं के दर्षन- संदेह के बार फिर आगे क्या? क्या यह प्रक्रिया आपको अपने ही विचारों के प्रति शंकालू बनाकर अधर में छोड़ देगी? तब तो फिर यह नकारात्मक स्थिति हो गई। इससे तो बेहतर यही था कि आप पहले जैसे ही रहते।
नहीं, ऐसा कभी नहीं होगा। इस प्रक्रिया की शुरुआत तो थोड़ी नकारात्मकता और दुखद जरूर होती है, किन्तु इसका समापन हमेषा सकारात्मकता और संतोषपूर्ण होता है, क्योंकि यह आपको बीच में छोड़ती ही नहीं है। हाँ, समय जरूर लग सकता है।

संदेह के बाद का अगला चरण संभावनाओं के दिखाई देने का होता है। आपके दिमाग में उस विषय से जुड़े तथ्यों का जमघट लगा है। अब ये सारे तथ्य आपके संदेह के साथ टकरायेंगे, उनके साथ अन्तर्कियायें करेंगे। इससे अपके दिमाग में विचारों की धारायें प्रवाहित होने लगेंगी। इस प्रक्रिया के बारे में मैं अलग से एक उपषीर्षक के अन्तर्गत चर्चा करूंगा, ताकि आप इस प्रोसेस को एक ही स्थान पर सम्पूर्णता के साथ समझ सकें।

फिलहाल यहाँ मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि इस स्तर पर आकर ये तथ्य नई-नई संभावनाओं की झांकियां प्रस्तुत करेंगे। आपको लगेगा कि ‘नहीं, वही नहीं, यह भी हो सकता है।’ जैसे ही आपको ऐसा लगेगा, स्वाभाविक है कि आप इसको लपक लेंगे। संभावना के दिखते ही आप उस संभावना को सत्य में परिवर्तित करने के लिए लालयित हो उठेंगे, और यहाँ तक कि कभी-कभी बेहद बेंचैन भी।
यहाँ से आपके सोचने-विचारने की एक नई धारा की शुरुआत हो जायेगी। अब आप अपने दिमाग में मौजूद तथ्यों में काँट-छाँट करना शुरु कर देंगे। आपका दिमाग इन कई संभावनाओं में सर्वाधिक उपयुक्त संभावना को चुनेगा, और उसे अपने पास मौजूद तथ्यों की कसौटी पर जाँचे-परखेगा। वह देखेगा कि इससे क्या निकलता है। कुछ निकलता भी है या नहीं। यदि कुछ नहीं निकला या जो कुछ निकला, वह संतोषजनक नहीं लगा, मन नहीं भरा, तो फिर दिमाग दूसरी संभावना को लेकर उसके साथ भी ऐसा ही करेगा। और इस तरह तब तक करता रहेग, जब तक कि उसे उसका निष्कर्ष नहीं मिल जाता।

(3) नये निष्कर्ष से भेंट- और अंततः आपके हाथ एक ऐसा निष्कर्ष आता है, जो अब तक की आपकी धारणाओं के या तो बिल्कुल विपरीत होता है या अलग होने के बावजूद आपके काफी करीब होता है या फिर बिल्कुल वही ही होता है। लेकिन यहाँ आप इस बात को न भूलें कि यदि यह निष्कर्ष पहले जैसा भी हुआ, तो वह यहाँ नया इस मायने में होगा कि उसकी चमक पहले से बहुत अलग और अधिक होगी। वह अब ज्यादा ठोस होगा, जिसके कारण उसकी प्रभावषीलता काफी बढ़ जाएगी। और यही तो वह तत्व है, प्रभावषीलता का तत्व, जो आपको अन्य विद्यार्थियों की तुलना में अधिक नम्बर दिलवाकर सिविल सर्वेन्ट बनवा देगा। क्या ऐसा ही नही है?

NOTE: This article by Dr. Vijay Agrawal was first published in ‘Civil Services Chronicle’.

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