विश्लेषण क्षमता विकसित करने केे टूल्स-2

Afeias
02 Mar 2016
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मित्रो, इससे पहले के अंक में मैंने विस्तार के साथ बताया था कि आप अपने दिमाग के बाक्स में वे टूल्स (उपकरण) कहाँ से और कैसे लायेंगे, जो विश्लेषण करने के लिए जरूरी होते हैं, ठीक वैसे ही, जैसे कि किसी मोटर-मैकेेनिक को कार ठीक करने के लिए आवश्यक होते हैं। लेकिन क्या किसी के पास इस टूल बाक्स का होना ही पर्याप्त होगा? यदि मुझे वे सारे उपकरण मिल जायें, जो किसी भी सर्जन के पास होते हैं, तो क्या मैं किसी का ऑपरेशन कर सकूँगा? उत्तर स्पष्ट है कि ‘नहीं, कदापि नहीं।’’ इसके लिए अनिवार्य है कि मुझे उन उपकरणों का उपयोग करना आना चाहिए, जो अभ्यास से आता है।
तो अब इस अंक में हम विश्लेषण क्षमता विकसित करने के टूल्स के उपयोग करने के तरीकों के बारे में चर्चा करेंगे।

  • पढ़ाना- मैं जानता हूँ कि यह सभी के लिए आसान नहीं है, क्योंकि पढ़ाने के लिए कुछ ऐसे लोगों की जरूरत होती है, जो पढ़ने को तैयार हों। इसे आप सुनना भी कह सकते हैं। कोशिश कीजिए कि यदि आपको कहीं पढ़ाने का अवसर मिले, भले ही इसके बदले में आपको कोई आर्थिक लाभ न हो रहा हो, फिर भी आप पढ़ायें। इसलिए मैं अपने स्टूडेन्ट्स को हमेशा यह सलाह देता हूँ कि वे सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी के दौरान यदि किसी स्कूल, कॉलेज आदि में जाकर वहाँ के स्टूडेन्टस् के साथ बातचीत करने का अवसर निकाल सकें, तो उन्हें ऐसा करना चाहिए।
    वैसे तो सुनने में ‘पढ़ाना’ शब्द बहुत आसान-सा लगता है, लेकिन यदि एक बार आप पढ़ाने का फैसला कर लेंगे, तो आप देखेंगे कि आपका यह फैसला आपके पढ़ने के तरीके को बिल्कुल ही बदल देगा। इसका कारण यह है कि अब आप खुले मंच पर जा रहे हैं। यह किसी नाटक में अभिनय करने जैसा है न कि फिल्म की शूटिंग करने जैसा। नाटक में गलती करने की कोई गुंजाइश नहीं रहती। इसलिए आपकी कोशिश हमेशा अधिक से अधिक नहीं, बल्कि पूरी तरह से परफेक्शन हासिल करने की होती है। फिल्म में आप ऐसा नहीं करते। वहाँ तो आपको लगता है कि यदि गलती हो भी जाएगी, तो फिर से टेक हो जाएंगे। टेक फिर री-टेक और फिर री-टेक। इसलिए जब बात पढ़ाने की आती है, तो उसके कारण कुछ अलग तरीके से, अधिक से अधिक परफेक्शन के साथ पढ़ने की बात अपने-आप जुड़ जाती है। और इससे कमाल हो जाता है।
  • जहाँ तक मैं समझता हूँ, जो भी स्टूडेन्ट सिविल सर्विस की तैयारी करते हैं, उनके पास एक ग्रूप तो होता ही है, फिर चाहे वह दो लोगों का ही ग्रूप क्यों न हो। इन्हें चाहिए कि वे अपने पढ़े हुए पर डिबेट करें, बातचीत करें। लेकिन यह अच्छे से तभी संभव हो पाता है, जब बातचीत में भाग लेने वाले सभी स्टूडेन्टस् एक टॉपिक को अच्छे से तैयार कर लें। इससे हम अपने पढ़े हुए को दोहराने का एक अवसर निकाल लेते हैं। शायद आपने अनुभव किया होगा कि बातचीत के दौरान कई बार हम बहुत सी ऐसी बातें कह जाते हैं, जिनके बारे में न तो हमने पढ़ा था और न ही इससे पहले इस तरह से सोचा ही था। लेकिन यहाँ जब बात होने लगी, तो अपने-आप ही यह बात निकल गई। मित्रो, यहाँ प्रकृति का ठीक वही सिद्धान्त काम करता है कि अग्नि तो पत्थर में ही होती है। लेकिन दिखती तभी है, जब दो पत्थरों को आपस में रगड़ा जाए। हमारे दिमाग के अन्दर मौजूद विचार बातचीत के दौरान चिनगारियों की तरह छलक पड़ते हैं।
  • मैं जानता हूँ कि स्टूडेन्टस् के लिए ऐसा कर पाना बहुत मुश्किल होता है। लेकिन यदि वे ऐसा कर सकें, तो उन्हें ऐसा करना चाहिए। उन्हें चाहिए जिस टॉपिक को उन्होंने पढ़ा है, उस पर कुछ लिखें। अभ्यास के लिए ही लिखें, लेकिन लिखें। यह काम उन्हें तो करना ही चाहिए जिन्हें न तो पढ़ाने का मौका मिल पा रहा है और न ही किसी से बातचीत करने का। दूसरों से न सही, लेकिन आप अपने से तो बातचीत कर ही सकते हैं। यदि आप सतर्कतापूर्वक किसी टॉपिक पर लिखते हैं, तो यह एक प्रकार से खुद से बातचीत करना ही होता है।
  • इस तरह का एक अन्य उपाय है-अपने ही निष्कर्षों को काटना। किसी भी लेख को पढ़ने के बाद उसके बारे में आपकी कोई न कोई धारणा बन ही जाती है। या तो आप उससे सहमत हो जाते हैं या उससे असहमत होते हैं। यदि असहमत होते हैं, तो उसके स्थान पर आपकी अपनी कोई स्थापना तैयार हो जाती। अब आपको चाहिए कि आप अपनी ही धारणाओं का विरोध करें, अपने ही निष्कर्षों को काटें।

यह एक बहुत अच्छा अभ्यास होता है। इसे आप खुद से ही डिबेट करना कह सकते हैं। आप अपनी बात कहते हैं, फिर उसे काटते हैं। काटने के लिए जो बात कहते हैं, फिर उसे काटते हैं। फिर आप देखेंगे कि आप उस स्थान पर पहुँच जाएंगे, जब आपके पास कहने के लिए कुछ नहीं रह जाएगा। यानी कि वाद-विवाद खत्म हो गया। यह बहुत रोचक होता है। इससे आपका दिमाग, आपके विचार बहुत लचीले होने लगेंगे। उनमें फ्लेक्सेबिलिटी आने लगेगी। लचीले होने का अर्थ आप यहाँ लिजलिजे या पील-पीले होने से मत लगाइएगा। यहाँ इसका अर्थ यह है कि अब आपका दिमाग जड़ नहीं रह गया है। उसमें सोचने की क्षमता है और वह दूसरों को भी पर्याप्त मार्जिन देकर चलता है। क्या किसी सिविल सर्वेन्ट के अंतर्गत यह गुण नहीं होना चाहिए?
विरोधी तर्कों पर विशेष रूप से सोचना
मित्रों, सामान्य रूप से हम सभी अपनी-अपनी धारणाओं के विक्टिम होते हैं। यदि कोई हमारे विचार से सहमत होता है, तो वह हमें अच्छा लगता है। यदि कोई हमारे विचारों का विरोध करता है, तो हम सबकांशस लेवल पर कहीं न कहीं विरोधी उसे आपका और यहाँ तक कि कभी-कभी तो दुश्मन तक मान लेते हैं। मैं समझता हूँ कि एक पढ़ा-लिखा और तार्किक व्यक्ति होने के रूप में यह सबसे खतरनाक बात है? केवल हम ही सही कैसे हो सकते हैं? दूसरा पूरी तरह से गलत कैसे हो सकता है। अगर कोई तीसरा व्यक्ति इन दोनों से अलग-अलग मिले, तो दोनों अपने-अपने बारे में जो बताएंगे, सुनने के बाद उसे ऐसा लगेगा कि ये दोनों अपनी-अपनी जगह पर पूरी तरह से सही हैं। इसलिए एक बात आपको अपने मन में पूरी तरह से बैठा लेनी चाहिए कि दूसरे में भी सही होने की उतनी ही संभावनाएँ होती हैं, जितनी कि मुझमें गलतियाँ होने की आशंकाएँ। इस मनोवैज्ञानिक स्थिति में आना इसलिए जरूरी है, ताकि जब आप अपनी बात के विरोध में किसी दूसरे की बात सुने या अपनी बात के विरोध में किसी दूसरी की बात सुनें, तो उसे बड़े खुले दिल और दिमाग से स्वीकार कर सकें।
यह मूलतः एक प्रकार से विचार-विमर्श करने का चरण है। यहाँ आपको चाहिए यह कि जो बात आपके विरोध में कही गई है या यूँ कह लीजिए जिससे आप सहमत नहीं है, उस पर विशेष रूप से सोचें। सामान्यतः हम उन्हें छोड़ देते हैं। उनकी उपेक्षा कर देते हैं और ऐसा करके हमारे हाथ में जो एक अवसर आया था जिसका हम बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल करके अपने कद को बढ़ा सकते थे, उसे खो देते हैं। दोस्तों, मैं जानता हूँ कि ऐसा करने से निश्चित रूप से आपको परेशानी होगी। झुंझलाहट भी होगी। आप ऊब भी जाएंगे। लेकिन यदि आपमें सचमुच एक जबर्दस्त विश्लेषणात्मक शक्ति पैदा करने की गहन इच्छा है, तो आपको ऐसा करना ही पड़ेगा।
हाँ, मैं यहाँ एक बात और कहना चाहूँगा कि यदि कुछ बार आपने ऐसा कर लिया, तो धीरे-धीरे आपके दिमाग की जकड़न टूटने लगेगी। शुरू में तो दिमाग अपनी बातों के विरोध में कही गई बातों के खिलाफ बिल्कुल अकड़कर खड़ा होता है और फिर उनसे मुँह मोड़ लेता है। लेकिन जब आपके दिमाग को यह इंसट्रक्शन मिल जाएंगे कि यह स्टूडेन्ट मानने वाला नहीं है, तो धीरे-धीरे वह उनके साथ आँखें मिलाना शुरू कर देगा और फिर आप बहुत जल्दी उस स्तर को पा लेंगे, जब आप अपने विरोधियों के साथ तालमेल बैठाकर या तो उनके सामने सद्भाव के साथ समर्पण कर देंगे या उन्हें समर्पण करने के लिए सद्भाव के साथ बाध्य कर देंगे। या फिर तीसरी स्थिति यह भी हो सकती है, कुछ आप समर्पण करें और कुछ वे समर्पण करें। और इस तरह बहस का सिलसिला लगातार जारी रहे।
यहाँ मैं फिर से कहना चाहूँगा कि जो बात आपके पक्ष में ही आपने पढ़ी या सुनी है, उसे भूल जाएँ। यह मानकर चलें कि वह चीज़ रेखांकित हो गई, अन्डरलाइन हो गई। बल उस पर दें जो आपके विरोध में है, जिससे आप असहमत हैं।
तथ्यों को उपयोग में लाना
बहुत से स्टूडेन्टस् एक बात को लेकर बहुत परेशान रहते हैं। वह यह कि पढ़ते समय उन्हें लगता है कि यह पढ़ा हुआ अच्छी तरह याद हो गया है। कुछ दिनों तक वह याद भी रहता है। लेकिन बाद में वह भूल जाता है। कुछ को तो यह भी शिकायत रहती है कि वह इतनी बुरी तरह से भूल जाता है कि याद ही नहीं आता कि उसने कभी इसे पढ़ा भी था। या तीसरी शिकायत यह भी रहती है कि जब जरूरत पड़ती है, तब याद नहीं आता, बाद में याद आता है।
देखिए, इन सभी समस्याओं की जड़ एक ही है और यह कि यह प्रकृति के द्वारा दिया गया एक विशेष गुण ही है। आप प्रकृति को देखिए। आप देखेंगे कि वहाँ ऐसा नहीं होता कि एक मौसम एक बार आकर फिर लम्बे समय के लिए चला जाता है। साल भर के बाद वही चक्र फिर से शुरू होता है। तो क्या हम कह सकते हैं कि प्रकृति भी अपने-आपको कम से कम एक साल में एक बार तो दोहरा लेती है, ताकि कहीं ऐसा न हो कि वह भूल जाए? वह अपने क्रम को ही भूल जाए? पूरे के पूरे नेचर में आपको यह बात देखने को मिलेगी और यही बात हमारे जीवन पर भी लागू होती है। कितनी सारी घटनाएँ हमारे जीवन में घट रही हैं। कितनी सारी चीज़ों को हमारा दिमाग रिसीव कर रहा है। अगर वह हर चीज को याद रखने लगे तो हमारी हालत क्या हो जाएगी?
सच पूछिए तो हमारे दिमाग की क्षमता इतनी अधिक नहीं है कि वह इतनी सारी सभी चीज़ों को याद रख सके। हाँ, यह जरूर है कि वह उतनी चीज़ों याद रखने की क्षमता अवश्य रखती है, जो हमारे लिए जरूरी हैं। चाहे सिविल सर्विस की तैयारी की बात हो या जिन्दगी के लिए हो, हमें सारी चीज़ें याद रखने की कतई जरूरत नहीं होती यह ठीक वैसे ही है, जैसे कि आखिर घर का कचरा बाहर रखते हैं या नहीं? हम घर की पुरानी सड़ी-गली बेकार हो गई चीज़ों को बाहर निकालते हैं और उसकी जगह पर नई जरूरत के हिसाब से नई चीज़ें लाते हैं। कुछ समय के बाद वे भी पुरानी पड़ती हैं और उन्हें भी बाहर करते हैं। तो जब जीवन में यही सब कुछ है, प्रकृति में भी यही सब कुछ है, तो फिर हमें इस बात का क्यों अफसोस है कि दिमाग में यह सब कुछ नहीं होना चाहिए। तो मित्रो, पहली बात इस बारे में यह कि आप खुद को इस मानसिक परेशानी से मुक्त कीजिए कि मुझे सारी बातें याद क्यों नहीं रहतीं।
जैसा कि मैंने कहा, प्रकृति भी अपने-आपको दोहराती हैं। ठीक ऐसे ही मैं यहाँ यह कहना चाहूँगा कि जो भी बातें आपको महत्वपूर्ण लगती हैं, आपको भी चाहिए कि आप उन्हें समय-समय पर दोहराते रहें। कुछ स्टूडेन्टस् को लगता है कि यदि हम पिछला भी दोहराएंगे, आगे जो पढ़ना है, उसके लिए समय कहाँ से निकलेगा। यह एक बहुत ही बचकाना और हास्यास्पद तर्क है और जो इस तर्क को देते हैं, मैं उनके उस समय की सोच को बहुत अच्छे तरीके से जानता हूँ, जिस समय वे यह बात कहते हैं। उस समय उनके दिमाग में यह बात चल रही होती है कि जितना वक्त हमें इसे पढ़ने में लगा था, याद करने में लगा था, अब उतना ही समय इसे दोहराने में लगेगा। ये उस समय इस बात को याद नहीं रख पाते कि दोहराने में उसका सौंवाँ भाग भी नहीं लगता है। बहुत थोड़ा वक्त लगता है, दोहराने में। हमारे दिमाग में उसकी पहले से ही पृष्ठभूमि बनी होती है और दिमाग की यह विलक्षण क्षमता होती है कि जैसे ही उसे लगता है कि हाँ, इसे उसने कहीं पढ़ा है, वैसे ही वह एक सैकेण्ड के सौंवें भाग में ढे़र सारी चीज़ें एक साथ सोच लेता है और आपके दोहराने का काम पूरा हो जाता है।
यह आपके इसलिए भी बहुत जरूरी है, क्योंकि आप जिन तथ्यों का इस्तेमाल करने जा रहे हैं, वे आपको अभी तुरन्त चाहिए। उदाहरण के लिए यदि मुझे एक लेख लिखना है और इत्मीनान के साथ अपनी लायब्रेरी में लिखना है, तो मेरे पास बहुत सी सहूलियतें हैं। पहला तो यह कि मुझे मालूम है किस विषय पर लेख लिखना है। मुझे यह भी मालूम है कि मेरे पास कौन-कौन सी सामग्री है। तो मैं इसकी तैयारी करूँगा और पहले से ही सामग्री निकालकर पढ़ लूँगा। उनमें जो मुझे महत्वपूर्ण प्वाइंटस् मिलेंगे उन्हें मैं अलग से नोट कर लूँगा। इसके बाद अपने दिमाग में उस लेख का पूरा खाका बनाकर लिखना शुरू कर दूँगा और इत्मीनान से लिखूँगा। बीच में रुकने की भी सहूलियत मुझे है। जब जरूरत पड़ेगी तब मैंने जो मटेरियल इकट्ठा करके रखा है, उसकी मदद भी ले लूँगा। लेकिन क्या सिविल सर्विस परीक्षा के हॉल में आपके पास ऐसी सहूलियत हैं? कतई नहीं। यही तो सबसे बड़ा चैलेंज है और मैं समझता हूँ कि यही इसकी सबसे बड़ी ताकत है और सबसे बड़ी खूबसूरती भी। तभी तो हमारा देश अपनी बागडोर थमाने के लिए उन हाथों को चुन सकेगा, जिन्हें अभी वह सर्वोत्तम समझ रहा है। मुझे विश्वास है कि आप मेरी बात से सहमत होंगे।
अब मैं आता हूँ कुछ उन विन्दुओं पर, जिनका इस्तेमाल करके आपने जो कुछ भी पढ़ा है, जो कुछ भी सुना है, देखा है, उन्हें दोहरा सकते हैं। मित्रो, दोहराने को मैं एक तरीके से रोज जूते पर पालिश करना, रोज स्नान करना या रोज अपने कमरे में झाडू लगाना या अपनी स्टड़ी टेबल पर रोज कपड़ा मारना, जैसी एक दैनिक क्रिया मानता हूँ। लेकिन यहाँ जो मैं दोहराने की बात कर रहा हूँ, यह कुछ इस तरह का दोहराना है जिसे आप न केवल चलते-फिरते, उठते-बैठते, कभी भी मन ही मन दोहरा सकते हैं, बल्कि बातचीत के दौरान, लिखने के दौरान भी इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। जनरल स्टडीज के विषयों को आप सतर्क होकर यदि इनके इस्तेमाल के अवसरों की खोज करेंगे, तो आपको मिल जाएंगे। ऐसा इसलिए हो सकता है, क्योंकि जनरल स्टड़ीज का संबंध ही हमारी जिन्दगी की रोजमर्रा की बातों से है। ऐसा कौन-सा दिन होता होगा, जिस दिन आप राजनीति पर बात नहीं करते होंगे। बाजार और देश की अर्थव्यवस्था पर बात नहीं करते, रोज देश और दुनिया में जो घटनाएं घट रही हैं, उन पर बातें नहीं करते होंगे। भूगोल, इतिहास, सामान्य विज्ञान इन सब पर हम लगातार बातें करते रहते हैं। नैतिकता, सिविल सर्वेन्ट, देश के नेता, देश के लोग, समाज, मौसम, खेती-बाड़ी; यही सब तो जनरल स्टड़ीज है और इन सब पर रोज बातेे होती रहती हैं। तो अब आपके सामने एक जो छोटी-सी चुनौती है, वह केवल यह है कि कैसे आप अपने पढ़े हुए नॉलेज या इंफारमेशन का इस्तेमाल अपनी बोलचाल के दौरान करते हैं। बस केवल इतना ही। इसके लिए मैं आपको कुछ व्यावहारिक बिन्दु देता हूँ।

  • मान लीजिए कि आप किसी से राजनीति पर बात कर रहे हैं। सामान्यतया स्टूडेन्ट राजनीति पर जब बात करते हैं, तो वे संविधान में घुस जाते हैं या अपने-आपको दो, चार, पाँच दिन के आसपास के अखबारों में पढ़ी हुई घटना तक समेट लेते हैं। मेरी सलाह है कि उसे आप थोड़ा सा एक्सटेंड कीजिए। पीछे चले जाइए और सोचने की कोशिश कीजिए कि क्या आपने इसी तरह की घटना से जुड़ी हुई कोई घटना इससे पहले पढ़ी थी। आप अलग-अलग तरीके से कुछ-कुछ याद करने की कोशिश कीजिए कि क्या कोई ऐसी ही घटना घटी थी? यदि घटी थी तो उसके परिणाम क्या रहे थे? उस घटना के बारे में किस-किस तरह की बहस चली थी? क्या कोर्ट-कचहरी ने भी उस घटना के बारे में अपना कोई निर्णय लिया था? उस घटना के परिणाम क्या हुए थे तथा क्या प्रभाव पड़े? क्या अभी जिस घटना पर आप चर्चा करने जा रहे हैं, उसके बारे में कोई आँकड़े, कोई अन्य तथ्य या संवैधानिक प्रावधान आदि-आदि आपको याद आ रहे हैं?
    यदि आप बात शुरू करने से पहले थोड़ी-सी इस तरह की तैयारी कर लेंगे, तब आप देखेंगे कि आपकी वह बातचीत कितनी वजनदार हो गई है और सच पूछिए तो यदि आप यह बातचीत सिविल सर्विस परीक्षा की तैयारी की दृष्टि से कर रहे हैं, तो बिना पूर्व तैयारी के बात करने का कोई विशेर्ष अर्थ भी नहीं है। इस तरह आप एक प्रकार से उस विषय के अतीत की यात्रा करने लगेंगे और अतीत की यही यात्रा आपको भविष्य की सुखद यात्रा के सबसे योग्य पात्र के रूप में तब्दील कर देगी। साथ ही साथ आपके दिमाग की क्षमता भी बढ़ेगी कि वह फटाफट पिछली बातों को भी याद कर सकेगा।
    ऽ मैं अक्सर सिविल सर्विस की तैयारी करने वाले स्टूडेन्ट को यह जानने के बावजूद भी सलाह देने से अपने-आपको रोक नहीं पाता कि उसे मेरी यह सलाह न तो अच्छी लगेगी और न ही वह इसे मानेगा। लेकिन चूँकि यह जरूरी होता है इसलिए मुझे वह देनी पड़ती है। मेरी वह सलाह होती है कि ‘‘लिखने की आदत डालो’’। लेकिन कोई नहीं डालता। मैंने तो यहाँ तक देखा है कि यदि मैं स्टूडेन्डटस् से कहता हूँ कि ‘मैं उसे जाँच करके तुम्हें बताऊँगा कि इसमें क्या अच्छा है और सही नहीं है’’, तब भी वे अपने स्वार्थ को समझ नहीं पाते और मुझे यह मौका उपलब्ध कराके मुझे उपकृत करने से अपने-आपको रोक लेते हैं। मुझे नहीं मालूम कि मेरी यहाँ दी गई हिदायत आपको कितनी सही लगेगी और इसका आप कितना इस्तेमाल करेंगे, लेकिन मैं आपको भी लिखने की आदत डालने की सलाह देने से अपने-आपको रोक नहीं पा रहा हूँ।
    आपको लिखने की आदत डालनी चाहिए और लिखने की शुरूआत करने से पहले आपको चाहिए कि आप इस बात की बहुत अच्छे से तैयारी करें कि आप क्या लिखने जा रहे हैं और उसमें क्या-क्या लिखने जा रहे हैं। यानी कि पहले से अपने दिमाग में प्रश्न बना लीजिए और फिर कुछ घंटे लगातार उस पर सोचिए। यहाँ तक आप एक दिन उस पर सोचिए और फिर लिखिए। अगर आपको कल कुछ लिखना है, तो उसके बारे में आज सोचिए और आज उस पर लिखिए जिस पर आपने कल लिखने का फैसला किया था। बाकायदे उनके प्वाइंटस् नोट कीजिए और जब आपके पास प्वाइंटस् इकट्ठे हो जाएं, तो आप बैठकर उसे शेप दीजिए, तब सही मायने में लिखना होगा। सिर्फ लिखने के लिए लिखना नहीं है। आपने सोच लिया, लिखने बैठ गए और लिखना पूरा हो गया। मित्रो, यदि आप ऐसा करते हैं, तो यह सिर्फ आपके आत्म-सम्मोहन की स्थिति है। आप अपने-आपको गलत तरीके से सन्तुष्ट करना चाह रहे हैं। आप सतर्क हो जाइए। आप सही नहीं कर रहे हैं। आपको पूरी तैयारी के साथ लिखना है, और तैयारी सोचे बिना होती नहीं है।
  • इससे पहले मैं मन ही मन दोहराने की बात कह चुका हूँ। मैंने इस तकनीक का इस्तेमाल बहुत ज्यादा किया है। उसका कारण शायद यह रहा हो कि मेरे पास कभी ऐसा नहीं हुआ कि समय का एक बहुत बड़ा टुकड़ा मेरे डिस्पोजल पर हो और मैं उसका इस्तेमाल अपने तरीके से कर सकूँ। तो अब मैं क्या करता। मैंने समय के छोटे-छोटे टुकड़ों का इस्तेमाल करना शुरू किया और उसके लिए मेरा अपना जो मन था, वही मेरा स्टड़ी रूम था, वही मेरी टेबल-कुर्सी थी और वही मेरा स्टड़ी लैम्प भी था। जब भी मुझे मौका मिलता था, मैं एक टॉपिक चुनता था और मन ही मन उसे दोहराता जाता था। ऐसा एक दिन में न जाने मैं कितनी बार करता था और इस प्रकार एक ही दिन में न जाने कितने टॉपिक बिना अतिरिक्त समय निकाले ही मैं दोहरा लेता था। इससे मुझे जबर्दस्त दो फायदे हुए।
    पहला तो यह कि भूलने की शिकायत बहुत कम हो गई। मैं ऐसा तो नहीं कह सकता कि यह समस्या खत्म ही हो गई, लेकिन बहुत कम अवश्य हो गई। मैं कंफर्टेबल लेवल पर रहता था। दूसरा लाभ यह हुआ कि मेरा दिमाग मेरा आज्ञाकारी सेवक बन गया। जैसे ही मैं किसी टॉपिक पर सोचता था या परीक्षा हॉल में लिखने बैठता था, वैसे ही वह मेरे प्रायवेट सेक्रेटरी की तरह मुझे चीज़ें फटाफट उपलब्ध करा देता था। शायद उसे मालूम रहता था कि मुझे क्या-क्या चीजे़ं चाहिए। मित्रों, यह केवल आदत डालने की बात है। यह न तो कोई चमत्कार है और न ही कोई जादू। यह एक ऐसी क्षमता है, जिसे हासिल किया जा सकता है और इसे कोई भी हासिल कर सकता है। जी हाँ, आप भी।
    आप सोचकर देखिए कि आपके पास रोजाना समय के कितने ऐसे छोटे-छोटे टुकड़े होते हैं, जिन्हें आप यूँ ही जाया कर देते हैं। आप चाहे बस में यात्रा कर रहे हों, या पाँच मिनट के लिए ही एक जगह से दूसरी जगह जा रहे हों या बाजार में ही क्यों न हों, मार्निंग वॉक कर रहे हैं, जिम में हैं, चाय पी रहे हैं, पता नहीं क्या-क्या कर रहे हैं। समय के उन छोटे-छोटे टुकड़ों में यदि आप किसी भी टॉपिक के बारे में प्वाइंटस् सोचने लगेंगे, तो कितना समय बचा लेंगे। साथ ही आपका दिमाग उन बातों दोहरा लेगा। इस प्रकार आपकी स्मृति की टेबिल पर जो धूल पड़ी हुई है, वह साफ हो जाएगी। वे तथ्य आपके दिमाग में चमकने लगेंगे।

सरसरी निगाह डालना
दिमाग की एक बहुत अद्भूत विशेषता होती है, जो अक्सर मुझे चमत्कृत कर देती है। वह यह कि उसे जैसे ही किसी का एक छोर दिखाई देता है, वह तत्काल यात्रा करते हुए अंतिम छोर तक पहुँच जाता है। मुझे लगता है कि हमें अपने दिमाग की इस अद्भूत क्षमता का इस्तेमाल अपनी सिविल सर्विस परीक्षा की तैयारी में करना चाहिए। हो सकता है कि आप नोट्स बनाते हों या नहीं बनाते हों। किताबों से पढ़ते हो या केवल प्वाइंटस् पढ़ते हों। मुझे नहीं मालूम। मालूम होना जरूरी भी नहीं है। आप जिस तरीके से भी पढ़ते हों, आपके लिए यह बहुत उपयोगी होगा कि आप बीच-बीच में अपने पूरी पढ़ी हुई सामग्री पर सरसरी निगाह डाल लें। सरसरी निगाह डालने का मतलब यह नहीं कि दो मिनट के लिए आप तीन सौ पेज की किताब पलटें। सरसरी निगाह डालने का मतलब है-किताब के एक-एक पेज को पलटें। वहाँ लगभग आधे मिनट के लिए रुकें और शुरू से आखिरी तक एक बार मन ही मन सोचें कि इसमें क्या कहा गया है। फिर अगले पेज पर जाएं और सोचें कि इसमें क्या कहा गया है। इसके बाद फिर अगले पेज और ऐसा करते-करते धीरे-धीरे उस किताब को पूरा कर लें। मैं यहाँ यह बिल्कुल नहीं कह रहा हूँ कि आप एक बार में एक किताब पूरी कर लें। आप उसके एक चैप्टर को देख लें। कोई एक नोटस् देख लें। यदि आपने कोई आँकड़े इकट्ठे कर रखें हैं, अलग से कोई तथ्य इकट्ठे कर रखे हैं, तो उन्हें देख लें। जितना समय आपके पास हो, उस हिसाब से अपने लिए चुन लें। और उन पर एक बार सरसरी निगाह डाल लें। आप देखेंगे कि किस तरीके से आप लगातार थोड़े से समय में ढेर सारे सिलेबस और तथ्यों को दोहरा ले रहे हैं और यह आपके लिए संजीवनी बूटी का काम करेगी। जी हाँ, संजीवनी बूटी का।
मैंने यहाँ इसे संजीवनी बूटी क्यों कहा है? मैंने ऐसा इसलिए कहा है, क्योंकि सिविल सर्विस के पेपर में आपको कई प्रश्न ऐसे मिलेंगे कि आपको समझ में नहीं आएगा कि इस पर आप लिखें क्या क्योंकि आपने उसके बारे में कभी कुछ पढ़ा ही नहीं है। लेकिन मैं विश्वास दिलाता हूँ कि यह सरसरी निगा मार-मारकर जो पढ़ाई की थी, आपने जो छोटे-छोटे तथ्य इकट्ठे किए थे, आँकड़े इकट्ठे किए थे, वे आपके दिमाग में अभी तरोताजा बने हुए हैं। उनसे ही आपको ऐसे अद्भूत निष्कर्ष निकलते हुए दिखेंगे कि आपको लगेगा कि मैं इनको आधार बनाकर इस प्रश्न का कुछ न कुछ तो उत्तर लिख ही सकता हूँ। तो जो प्रश्न आपके लिए बिल्कुल मृत था, वह जीवित हो उठेगा। मैं जानता हूँ कि मेरी इस बात को पढ़ने पर आपको भरोसा नहीं होगा। भरोसा हो भी कैसे सकता है? लेकिन यदि आप मेरे इस तरीके का इस्तेमाल करने लगेंगे, तो आपके पास इसके सिवाय कोई दूसरा चारा नहीं बचेगा कि आप इस पर भरोसा करें। फिर एक दिन ऐसा आएगा कि आप दूसरों को ऐसा करने के लिए कहेंगे।
इसका लाभ आपको परीक्षा हॉल में दिखाई देगा। दरअसल इस तरह सरसरी निगाह डालकर जब आप किसी चीज को दोहराते हैं, तो एक साथ ढेर सारी सामग्रियों को आप दोहरा लेते हैं। मुझे लगता है कि यदि मुझे दो सौ पेज की किताब सरसरी निगाह डालकरदोहरानी हो, तो यह काम मैं बड़े आराम से न्यूनतम डेढ़ घंटे और अधिकतम दो घंटे में कर सकता हूँ। जबकि मैंने इस किताब को पढ़ने में और याद करने में डेढ़ से दो महीने लगाए होंगे। ज्यादा भी लग गया होगा और वह भी टुकड़ों-टुकड़ों में। तो अब, जबकि मैं यहाँ इस पूरी किताब को सरसरी निगाह से दोहरा रहा हूँ, मेरे दिमाग में उस किताब का पूरा परिदृश्य, पूरी सामग्री एक साथ सिलसिलेवार बैठती जा रही है। यह कुछ इसी तरीके से है, मानो कि मैं तीन घंटे की फिल्म को एक बार बैठकर देख रहा हूँ, जबकि इससे पहले मैंने इसी तीन घंटे की फिल्म को तेरह दिनों तक छोटे-छोटे टुकड़ों में बैठकर देखा था। यानी कि अब मेरे दिमाग में पूरी फिल्म की एक-एक फ्रेम एक-दूसरी से जुड़कर स्थापित हो गई है। और जब नॉलेज के अलग-अलग टुकड़े इस तरह से कड़ियों के द्वारा एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं, तो आप कल्पना नहीं कर सकते हैं कि उनमें कितनी अधिक क्षमता पैदा हो जाती है। क्षमता इसलिए पैदा हो जाती है कि जब आप नॉलेज के किसी एक टुकड़े को उसमें से उठाते हैं, तो आपको पता चलता है कि वह अपने साथ पिछले कई टुकड़ों को लेकर आ गया है और अगला टुकड़ा भी कहीं न कहीं उससे जुड़ा हुआ है। इस प्रकार बात आप एक की कर रहे हैं और बात हो जाती हैअपने-आप तीन की। यानी कि उसमें कुछ नयापन आ जाता है। सरसरी निगाह डालकर तैयारी करने की यह एक जबर्दस्त शक्ति है। इसका भी अनुभव आप तभी कर पाएंगे जब आप ऐसा करने लगेंगे।

NOTE: This article by Dr. Vijay Agrawal was first published in ‘Civil Services Chronicle’.

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