विश्लेषणात्मक क्षमता का विकास

Afeias
06 Mar 2016
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इसमें कोई शक नहीं हैं कि आपने उन सफल उममीदवारों की बातचीत जरूर सुनी होगी, जो अभी-अभी सिविल सेवा की परीक्षा में सफल हुए हैं। इनमें से कई के विडियो यू-ट्यूब पर उपलब्ध हैं, और यदि अभी तक आपने ऐसा नही किया है, तो और अधिक वक्त गवाएं बिना आपको ऐसा कर लेना चाहिए। उन सभी सफल स्टूडेन्टस् में आपको कुछ जो बातें बिल्कुल एक जैसी मालूम पडे़ंगी, वे हैं-

– ज्यादा किताबों और मटेरियल बटोरने के फेर में न पड़ें।
– अपने विषय को अच्छी तरह समझें।
– विषय को व्यावहारिक पक्ष से जोड़ना जरूरी है।
– एनालिसिस पॉवर के बिना काम नहीं चलेगा और
– उत्तर लिखने की खूब प्रैक्टिस करें।

स्टूडेन्ट्स ने सफलता के ये जितने भी सूत्र बतायें हैं, ध्यान से पढ़ने पर आप पायेंगे कि इन सबके केन्द्र में केवल एक ही बात है, और वह है विष्लेषण करने की क्षमता का होना। जिसमें यह क्षमता आ जाती है, उसका थोड़ा पढ़ने से ही काम चल जाता है, क्योंकि वह उस थोड़े से ही को अपनी एनालिसिस पॉवर से अधिक बना देता है। जाहिर है कि यह एनॉलिसिस तब तक पूरी नहीं होती, जब तक कि आपके पास विषय की व्यावहारिक समझ न हो, और साथ ही यह भी कि कॉमन सेन्स न हो। यह संयोग कतई नहीं है कि इसी पत्रिका के पिछले कई अंकों से मैं इसी विषय पर इतने विस्तार से चर्चा करता आ रहा हूँ। सन् 2013 के सिविल सेवा परीक्षा से प्रष्नों के स्वरूप में, चाहे वे वैकल्पिक विषयों के ही प्रष्न क्यों न हों, जो बदलाव किए गये हैं, उन्हें देखने के बाद इसकी अनिवार्यता के बारे में किसी भी तरह के तनिक भी संदेह की गुंजाइष रह ही नहीं जाती। काष कि हमारी विद्यालयीन षिक्षा इसी पैटर्न के अनुकूल हुई होती। खैर…… अब हम लोग इस टॉपिक के लगभग-लगभग अंत में ही पहुचँ गये हैं। अब मैं इसके निहायत ही व्यावहारिक पक्ष पर आपसे बातें करना चाहूँगा, जो सीधे-सीधे आपको परीक्षा में उत्तर लिखने की एक वैचारिकता एवं अन्तर्दृष्टि भी प्रदान करेगा।
तो अब सबसे पहले मैं अपने पिछले लेख में किए गये वायदे को पूरा करने से शुरु करता हूँ कि मनोवैज्ञानिक स्तर पर विष्लेषण की प्रक्रिया कैसे संचालित होती है।

मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया-
इसे मैं रसायनषास्त्र की भाषा में बताना अधिक पसंद करूंगा।
तत्व (element) एक होता है। यह एक ऐसी इकाई होती है, जिसमें कोई दूसरा शामिल नहीं होता। जैसे ही इसमें कोई दूसरा शामिल होता है, यानी कि जैसे ही दो तत्व आपस में मिलते हैं, वे यौगिक (compound) में बदल जाते हैं। यौगिक में परिवर्तित होने के बाद इनके गुण भी बदल जाते हैं। लेकिन इन दोनों का यौगिक में बदलना तभी संभव होता है, जब या तो ये स्वयं ही या किसी माध्यम के सहयोग से आपस में क्रिया करें। इसे ही हम कहते हैं- रासायनिक क्रिया। आइए, अब देखते हैं कि मनोवैज्ञानिक स्तर पर यह कैसे काम करती है।
इससे पहले कि आप इस लेख को आगे पढ़ें, बेहतर होगा कि आप शुरुआत के कुछ उन लेखों को याद करने की कोषिष करें, जिनमें मैंने विस्तार से बताया था कि विष्लेषण करने के लिए आपको जिन तत्वों की जरूरत होगी, उन्हें आप कैसे हासिल करेंगे। दरअसल आप जो कुछ भी पढ़ते हैं या किसी भी अन्य तरीके से आपका दिमाग जो कुछ भी ग्रहण करता है, वे सब मूलतः सूचना के रूप में ही रहते हैं, जिन्हें हम गलती से ‘ज्ञान’ मान बैठते हैं। इन्हें ही आप मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के तत्व कह सकते हैं। यदि तत्व ही नहीं होंगे, तो फिर कौन किससे मिलेगा, और मिलकर क्या यौगिक (कुछ मौलिक) बनाएगा। सच पूछिए, तो सिविल परीक्षा में पढ़े गये या यूं कह लीजिए कि रटे गये तथ्यों का योगदान केवल इतना ही होता है कि ये विष्लेषण के लिए ‘कन्टेन्ट’ उपलब्ध करा देते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह मत निकाल लीजिए कि यह किसी भी मायने में दोयम दर्जे का है। अगर यही नहीं है, तो फिर शुरुआत ही कैसे होगी। बस, आपको यहाँ समझना केवल इतना है कि अत्यंत महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य होते हुए भी यही सब कुछ नहीं है, सम्पूर्ण नहीं है। इस बारे में मैं आप लोगों को अभी-अभी की टॉपर इरा सिंघल की उस आत्मस्वीकृति की याद दिलाना चाहूंगा, जो उन्होंने अहमदाबाद में सरदार पटेल एडमिनिस्ट्रेषन इंस्टीट्यूट में छात्रों के प्रष्नों के उत्तर देते हुए कही थी। यह इरा का चौथा अटैम्प्ट था, जिसमें उन्होंने टॉप किया, हांलाकि इससे पहले भी उनका इसी परीक्षा में सेलेक्षन हो चुका था। उन्होंने अपने इस टॉप करने के रहस्य को बड़े साफगोई के साथ इस रूप में सामने रखा कि ‘‘कन्टेन्ट तो मेरे पास पहले भी यही थे। लेकिन इस बार मैंने अपने प्रजेन्टेषन पर ध्यान दिया।’’ और प्रस्तुति की इस कला ने उन्हें अपने बैच का ‘हिन्दुस्तान टॉपर’ बना दिया। स्पष्ट है कि यह कोई सजावट या पेंटिग्स की प्रतियोगिता नहीं थी। यह लिखने की प्रतियोगिता थी, और इसका प्रजेन्टेषन इसी बात पर टिका होता है कि आप लिखते क्या हैं, न कि इस बात पर कि आप लिखते कैसे हैं। वैसे यदि इन दोनों का संयोग हो जाए, तो फिर तो सोने में सुहागा हो जाता है। फिर भी सोना, सोना होता है, और सुहागा, सुहागा। सुहागा सोने की जगह नहीं ले सकता।
आपके दिमाग में तत्व हैं, सूचनाएं हैं। अब ये सूचनाएं निम्न चार चरणों से होकर विष्लेषण की अपनी अंतिम मंजिल तक पहँुचकर स्वयं को एक नये रूप को समर्पित कर देती हैं। अब हम इन चारों चरणों को देखेंगे।

चरण प्रथम- यह ठोस पदार्थों का तरल पदार्थ में परिवर्तित होने का चरण है। लेकिन क्या यह अपने आप हो जाएगा? यदि नहीं, तो फिर यह होगा कैसे? दरअसल इसके लिए किसी माध्यम की आवष्यकता होती है, और मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया में ‘चिंतन’ एक प्रकार से ताप के रूप में माध्यम का काम करते हैं। सूचनायें, चाहे कम हों या अधिक, तकरीबन-तकरीबन सभी स्टूडेन्ट के दिमाग में रहती ही हैं। लेकिन उन्हें ‘चिंतन का ताप’ कोई-कोई विद्यार्थी ही उपलब्ध करा पाता है। शेष सूचनाओं के ढेर पर बैठकर उसी तरह अपने को महाज्ञानी समझने की गलतफहमी पाले रहते हैं, जैसे कि कोई आलू के ढेर पर बैठकर खुद को खानासामां समझ बैठे।
स्थिति तब बदलती है, जब आप इन सूचनाओं के साथ छेड़खानी करना शुरू करते हैं। आप इन्हें उलटते-पलटते हैं। एक के साथ दूसरे को और दूसरे के साथ तीसरे को जोड़कर देखते हैं, और इस तरह देखते चले जाते हैं। स्थिति तब बदलती है, जब आप अपनी ओर से किसी नये विचार की कल्पना करते हैं, और फिर उस काल्पनिक विचार को यथार्थ में सिद्ध करने के लिए अपने पास संग्रहित इन सूचनाओं को उसी तरह पेष करते हैं, जैसे कि कोई परिपक्व-अनुभवी वकील अपनी दलीलों को, चाहे वे कितने भी गलत क्यों न हों, सही ठहराने के लिए जज के सामने पेष करता है। ऐसा सब करने में दिमाग को मषक्कत करनी पड़ती है। वह परेषान हो जाता है, जैसा कि संत कबीर ने लिखा था, ‘सुखिया सब संसार है, खाये और सोये। दुखिया दास कबीर है, जागे और रोये।’’ जो जागेगा, जो सोचेगा, वह परेषान तो होगा ही और जान बूझकर भला परेषान होना कोई क्यों चाहेगा। यही कारण है कि ज्यादातर लोग इस सोचने-साचने के लफड़े में पड़ना ही नहीं चाहते। नतीजा यह होता है कि सफलता भी, प्रतिष्ठा भी, सुविधा भी उनके चक्कर में पड़ना नहीं चाहती। मैं सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने वाले प्रत्येक स्टूडेन्ट से कहता हूँ कि ‘उत्तर लिखने का अभ्यास करो।’ लेकिन मुझे इस बात का तनिक भी दुख नहीं है कि वे मेरी बात नहीं सुनते, क्योंकि मैंने अब इस बात पर दुखी न होने का फैसला कर लिया है। वे उत्तर नहीं लिखते, क्योंकि लिखने के लिए सोचना पड़ेगा और सोचना एक तकलीफदेय काम है।
जब आप सोचते हैं, तो सोचने की इस गर्मी को पाकर सूचनाएं पहले तो नर्म और बाद में तरल हो जाती हैं। इनमें हलचल पैदा हो जाती है, और वे बहने के लिए उतावले होने लगते हैं। ऐसा होगा ही, क्योंकि तरल पदार्थ एक जगह पर टिककर रह ही नहीं सकता। बहना उसका स्वभाव है, और उसे जहाँ भी ढलान दिखाई देगा, वह उस ओर चल देगा।
यहाँ आपको ऐसा लग सकता है कि मैं व्यर्थ का एक रूपक बाँधकर आपको शब्दों के जाल में उलझाकर सम्मोहित कर रहा हूँ। लेकिन विष्वास कीजिए कि ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, शून्य दषमलव जीरो-जीरो एक प्रतिषत भी नहीं। जो भी स्टूडेन्ट चिंतन की इस प्रक्रिया से थोड़ा-बहुत भी गुजरे हैं, वे जानते हैं कि ऐसा होता है, ऐसा ही होता है। हाँ, यह जरूर है कि वे यह नहीं जानते कि ऐसा क्यों होता है, और कैसे होता है। मैं जानता हूँ, इसलिए मैं बता रहा हूँ, ताकि आप सब भी इसे समझकर, इसे अमल में लाकर इसका फायदा ले सकें।

दूसरा चरण- तरल पदार्थ स्थिर नहीं रहता। उसकी यह प्रवृति ही है कि वह बहेगा ही। जब वह बहेगा, तो बहकर कहीं पहुँचेगा भी, और वह वहाँ पहुँचकर थमेगा, जहाँ पहले से ही कोई मौजूद हो, फिर चाहे यह ठोस तत्व ही क्यों न हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इनमें से एक तरल है और दूसरा ठोस। दोनों के मिलन से बदलाव की प्रक्रिया शुरु हो जाएगी। हाँ, यह जरूर है कि यदि दोनों ही द्रव हुए, तो यह प्रक्रिया अपेक्षाकृत सरल हो जाएगी, विषेषकर मनोवैज्ञानिक रासायनिकरण के संदर्भ में।
इस प्रकार एनालिसिस के इस दूसरे चरण में हमारे दिमाग की सूचनाएं बह-बहकर एक-दूसरे से सम्पर्क करती हैं। दो आपस में मिलने के बाद ये फिर किसी तीसरे से सम्पर्क बनाती हैं। और इस प्रकार यौगिक बनते चले जाते हैं। इस स्तर पर हमारे दिमाग में मौजूद सूचनाओं के पहले का स्वरूप विस्तार पाने लगता है। आपको उन बातों की झिलमिलाहटें दिखाई देने लगती हैं, जिनके बारे में इससे पहले आप को कुछ सूझा ही नहीं था। यही इस बात का प्रमाण है कि तत्व अब यौगिक में बदलने लगे हैं।

तीसरा चरण- यह यौगिकों के व्यवस्थित होने का चरण है, जिसे आप समीकरणों (equation) का बनना कह सकते हैं। निःसंदेह रूप से इस स्तर पर दिमाग में हलचल बढ़ जाती है, जिसे आप परेषानी का बढ़ जाना मान सकते हैं। मन बेचैन होने लगता है। भूख-प्यास मरने लगती है। नींद की प्रतीक्षा करनी पड़ती है, आदि-आदि।
लेकिन यह स्थिति आपके साथ नहीं आएगी, निष्चिंत रहें। यह स्थिति तब आती है, जब चिंतन बहुत जटिल और गहरा होता है। सिविल सेवा में चिंतन की इतनी जटिलता और गहराई की जरूरत नहीं होती। वैसे भी अभी आप उम्र के जिस दौर में हैं, उससे यह अपेक्षा भी नहीं की जाती। किन्तु यह आषा जरूर की जाती है कि आगे चलकर जब आप कुछ सिनियर हो जायेंगे, तो चिंतन की इस ऊँचाई को पा लेंगे। फिलहाल आपको अपनी विष्लेषण क्षमता के द्वारा परीक्षक को यही विष्वास दिलाना होता है।
विष्वास रखें कि इस तीसरे चरण में जो मानसिक उलझन हो रही है, वह स्थायी नहीं है। हो केवल यह रहा है कि हँड़िया में जो रखा हुआ है, वह पक रहा है। कुछ ही समय बाद सब कुछ ठीक हो जायेगा। आप पायेंगे कि धीरे-धीरे विचारों की आवाजाही और छीना-झपटी शांत पड़ती जा रही है। फिर वे विचार धीरे-धीरे अपने अपने साथी ढूंढ लेंगे और एक-दूसरे की गलबहियां डालकर कुछ नई भी बन गई हैं। और इन नई सूचनाओं ने स्वयं को वगीकृत करके आपको निष्कर्षों के लिए स्पेस उपलब्ध करा दिया है।

चौथा चरण- यह एनालिसिस की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का अंतिम चरण हाता है। अब तक आपका चिंतन मथ-मथकर काफी परिपक्व हो चुका होता है। इस परिपक्वता के कारण अनजाने में ही आप में एक अन्तर्दृष्टि पैदा हो जाती है। यह अन्तर्दृष्टि तीसरे चरण में प्राप्त ‘स्पेस’ को देख लेती है। इसमें उसे निष्कर्षों की आकृतियां दिखाई देने लगती हैं, निष्कर्षों की ध्वनियां सुनाई पड़ने लगती हैं। हम इन्ही आकृतियों को, इन्हीं ध्वनियों को शब्द दे देते हैं। और इसी के साथ विष्लेषण करने की यह मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया सम्पन्न हो जाती है।
मित्रो, मैं जानता हूँ कि इस बारे में अभी तक मैंने जितनी भी बातें बताई हैं, वे आपको काफी कुछ अबूझ पहेली सी, भुलभुलैया सी, अटपटी, उलझी और अदृष्य सी मालूम पड़ रही होगीं। लेकिन आप बिल्कुल भी परेषान और निराष न हों। आप इस सिद्धांत को बहुत अच्छी तरह से समझ सकें, इसके लिए मैं बाकायदा सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा में पूछे गये कुछ प्रष्नों की एनालिसिस करके इसे स्पष्ट करूंगा। हाँ, यह जरूर है कि इस काम को अगले अंक में किया जाना संभव हो सकेगा।
फिलहाल यहाँ मैं इसी से जुड़ी हुई दो अन्य अत्यंत महत्वपूर्ण बातों की चर्चा करना चाहूंगा। मुझे विष्वास है कि इन दो बातों की जानकारियां आपकी उन अधिकांष जिज्ञासाओं को शांत कर देंगी, जो इसे पढ़ने के बाद फिलहाल आपके मन में उठ रही होंगी। इनमें से एक है- ऑटोमेटिक सिस्टम का, और दूसरा है- पै्रक्टिस के अनोखे जादू का।

(I) ऑटोमेटिक सिस्टम- हमारी अधिकांष मनोवैज्ञानिक गतिविधियां हमारी असर्तकता की स्थिति में अपने-आप ही काम कर रही होती हैं। ये वे गतिविधियां होती हैं, जो हमारे जीवन के अस्तित्व की रक्षा के लिए अनिवार्य होती हैं। हम सोच-समझकर साँस नहीं लेते। दिल अपने आप धड़कता रहता है, और किडनी को चलाना नहीं पड़ता। यह तो हुआ एक पक्ष।
लेकिन यही सब कुछ नहीं है। यह तो सबके साथ होता है। आपके साथ भी हो रहा है। लेकिन यदि आप इनके फंक्षन को विषिष्ट बनाना चाहते हैं, मजबूत बनाना चाहते हैं, दुरुस्त रखना चाहते हैं, तो यह अपने-आप नहीं होगा। इसके लिए आपको सजग रहना पड़ेगा, सतर्क होकर कुछ करना भी पड़ेगा। और यही न केवल आपकी इन गतिविधियों को ही विषिष्ट बना देगा, बल्कि आप को भी विषिष्ट बना देगा। प्राणायाम भी आखिर साँस लेेने और छोड़ने के मूल सिद्धांत पर ही तो आधारित है। फर्क केवल इतना है कि इसमें श्वास की नैसर्गिक प्रक्रिया को एक निष्चित वैज्ञानिक पद्धति के तहत साधना पड़ता है।
एनॉलिसिस पॉवर भी दिमाग की एक तरह की नैसर्गिक गतिविधि ही है। जीवन में हमें न जाने कितने-कितने निर्णय लेने पड़ते है। क्या उन निर्णयों का आधार ‘विष्लेषण’ नहीं होता है? इस बारे में हमारे पास उस समय तक जितनी भी जानकारियां उपलब्ध होती हैं, हमारी जो जरूरतें होती हैं, हमारी जो परिस्थितियां होती हैं, इन सबका विष्लेषण करके ही हम कोई निर्णय लेते हैं।
बस दिमाग की इसी स्वाभाविक नैसर्गिक क्षमता को हमें सिविल सर्विसेस की परीक्षा के अनुकूल थोड़ा सा विषिष्ट रूप देना पड़ता हैं। आप उसे थोड़ा सा सहारा दे दीजिए, शेष अपने-आप ही होता चला जाएगा। मैंने इससे पहले इस प्रक्रिया के जितने चरणों की बात की है, उन चरणों में आपको शामिल होकर कुछ करना नहीं होता है। हाँ, चिंतन के ताप से तपना जरूर पड़ता है, और यही वह उपाय है, जो दिमाग के सोचने की स्वाभामिक प्रक्रिया को विषिष्ट बना देता है- प्राणायाम की तरह।

(II) प्रैक्टिस- सिविल सेवा परीक्षा आपके सामने समय के दबाव की जबर्दस्त चुनौती पेष करती है- प्रारम्भिक परीक्षा में और मुख्य परीक्षा में भी। यह चुनौती मुख्यतः इस बात की होती है कि आपका दिमाग कितनी जल्दी एक विषय विषेष से संबंधित अपने यहाँ बिखरे ढेर सारे तथ्यों को एक स्थान पर समेट पाता है। और दूसरा यह कि तथ्यों को समेटने के बाद वह कितनी जल्दी इन सभी में तालमेल बैठाकर अपनी बातों को परीक्षक के सामने रख पाता है। तो संकट यहाँ यह है कि दिमाग के लिए यह सब कर पाना संभव कैसे हो पायेगा।
खुद से हटकर जरा उस क्रिकेट खिलाड़ी के बारे में सोचिए, जिसे सामने से सवा सौ किलोमीटर की रफ्तार से आती हुई गेंद को हिट करना होता है, और उसके पास आती हुई गेंद को मात्र कुछ ही मीटर की दूरी तय करनी है। या फिर बेडमिंटन अथवा टेनिस के खिलाड़ी के बारे में विचार करें कि उनके दिमाग को कितना समय मिलता है कि वे भ्रमित करने वाली तेजी से आ रही शटल को कुछ इस तरह हिट करें कि सामने वाला उसे वापस ही न कर सके।
यह कोई आष्चर्य की बात नहीं है। हमारे दिमाग के पास इतनी तेजी से और एक साथ कई-कई दिषाओं में सोचने की अद्भूत क्षमता है, और वह भी नैसर्गिक रूप में। प्रैक्टिस के जारिए हम इसकी धार को तेज करते हैं, और पै्रक्टिस के द्वारा ही हम इसकी धार की तेजी को बनाये रख सकते हैं। खिलाड़ी, गायक, वादक, नर्तक और चित्रकार इसी सूक्ष्मता को पाने के लिए हमेषा पै्रक्टिस करते रहते हैं।
यदि आप चाहें तो इसे दिमाग की ट्रेनिंग (प्रषिक्षण) कह सकते हैं। यह ट्रेनिंग ही तो है, जिसके कारण बन्दर, व्हेल, बाज तथा तोता जैसे अनेक जीव अपने कारनामों से हमें दाँतांे तले ऊंगली दबाने को मजबूर कर देते हैं। जाहिर है कि आप भी एनालिसिस करने की प्रैक्टिस कर-करके ही सिविल सर्विस एक्जाम की चुनौती से पार पा सकेंगे।

NOTE: This article by Dr. Vijay Agrawal was first published in ‘Civil Services Chronicle’.

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