भीड़ की हिंसा पर सख्त कानून की जरूरत
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गोवध के संदेह में गौरक्षकों द्वारा की जाने वाली हत्याओं के समाचार अब आए दिन पढ़ने को मिलने लगे हैं। अनेक जनजातीय समूहों, मुसलमानों और दलितों को भीड़ की हिंसा से जुड़ी हत्याओं के इन मूर्खतापूर्ण कृत्यों का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।
कानून क्या कहता है ?
सन् 1958 के पशु वध कानून में कृषि व पशुपालन में उपयोगी पशुओं का वध प्रतिबंधित किया गया था।
सन् 2005 में, उच्चतम न्यायालय द्वारा राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों की की गई विस्तृत व्याख्या और संविधान के अनुच्छेद 48, 48ए और 51(ए) के द्वारा पशुवध पर पूर्ण प्रतिबंध को उचित ठहराया गया है।
राजनीतिक दुष्चक्र
कानून की विस्तृत व्याख्या का लाभ उठाते हुए भाजपा व उसकी गठबंधन वाली राज्य सरकारों ने गो-हत्या पर कड़े कानून बना दिए हैं। इससे क्षेत्र के दलितों और मुसलमानों तथा पशु मांस खाने और बेचने वाले समुदायों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।
गो-हत्या के संदर्भ में की जाने वाली भीड़ की हिंसा को अपराध ठहराने के लिए राजस्थान, झारखंड, पश्चिम बंगाल और मणिपुर ने कानून पारित किए थे। परंतु वे केंद्र सरकार के अधीन कार्यान्वयन की उम्मीद में लटके हुए हैं। केंद्र सरकार अभी भी यह सिद्ध करने में लगी हुई है कि भारतीय दंड संहिता के तहत भीड़ की हिंसा या हत्या कोई अपराध नहीं है।
हाल में हुई मध्यप्रदेश के सिवनी की घटना के बाद अब जल्द-से-जल्द पशु-वध के कानून पर पुनर्विचार कर उसकी पुनः व्याख्या की जानी चाहिए। भीड़ की हिंसा पर कठोर कानून बनाए जाने चाहिए।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 7 मई, 2022