03-05-2022 (Important News Clippings)
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न्यायालयों के आदेश की अवहेलना गंभीर मुद्दा है
संपादकीय
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) ने प्रधानमंत्री की उपस्थिति में कार्यपालिका और विधायिकाओं पर अपनी पूरी क्षमता से काम न करने का आरोप लगाते हुए कहा कि कार्यपालिका न्यायिक आदेशों की अवहेलना करती है। अदालत की अवमानना के बढ़ते मामले इसका प्रमाण है। यह टिप्पणी कार्यपालिका को बेहद गंभीरता से लेनी होगी, न कि इसे ‘हम बनाम वो’ के भाव से देखना होगा। यह सच है कि अगर कार्यपालिका कानून-सम्मत तरीके से बगैर राजनीतिक दबाव में आए काम करे तो आम जन को भी विश्वास होगा और वे न्यायालयों का दरवाजा नहीं खटखटाएंगे। सीजेआई का मानना है कि न्यायिक निर्देशों के बावजूद सरकारों का जानबूझकर निष्क्रियता दिखाना लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। याद होगा कि विगत सप्ताह सुप्रीम कोर्ट के स्थगन आदेश के बावजूद राजधानी दिल्ली की जहांगीरपुरी में कुछ समय तक सरकार बुलडोजर चलवाती रही। यह सच है कि पिछले 70 वर्षों में लगातार राज्य यानी सरकारें कोर्ट्स में सबसे बड़ी मुकदमेबाज हैं। लेकिन अगर ये कानून-सम्मत तरीके से शासन करें तो न्यायालयों को बीच में आना ही न पड़े। हाल के दौर में ईडी, आयकर या अनेक सरकारी एजेंसियों द्वारा राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ मुकदमों के तमाम मामले सुप्रीम कोर्ट के सामने बहस में हैं। लोकसभा में केंद्र सरकार के गृह राज्यमंत्री का बयान है कि सख्त यूएपीए के मामलों में सजा की दर मात्र 2.1% है। जाहिर है 98% मामलों में पुलिस ने गिरफ्तार तो कर लिया लेकिन अपेक्षित साक्ष्य नहीं ला सकी। इस प्रक्रिया में कोर्ट का समय भी गया और जनता का विश्वास घटा। लोकतंत्र के इन स्तंभों के बीच बढ़ती इस खाई को पाटने की जरूरत है।
Date:03-05-22
भारत में प्रेस की ‘आजादी’ का अब यह तीसरा दौर
अभय कुमार दुबे, ( अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर )
एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था ‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर’ की प्रेस फ्रीडम इंडेक्स संबंधी रपट ने भारत पर आरोप लगाया है कि पिछले कुछ वर्षों से देश में पत्रकारिता की आजादी के स्तर में गिरावट हो रही है। जबकि असलियत यह है कि भारत में प्रेस की आजादी का नजारा इस तरह के इंडेक्सों और उनके खंडन-मंडन की कवायद से कहीं पेचीदा है।
हमारे यहां प्रेस की आजादी मुख्य तौर पर तीन चरणों से गुजरकर मौजूदा मुकाम पर पहुंची है। कंधे पर झोला डाले रिपोर्टिंग करने वाले भारतीय पत्रकार की छवि पिछले साठ-सत्तर साल में लम्बा सफर तय कर चुकी है। इसमें पहला परिवर्तनकारी मुकाम तब आया, जब अंग्रेजी के एक शीर्ष दैनिक के सम्पादक ने दावा किया था कि भारत के प्रधानमंत्री के बाद देश की सबसे ताकतवर हस्ती उसी को समझा जाना चाहिए। वहीं एक अन्य ताकतवर ‘खोजी पत्रकारिता’ के रुझान को लोकप्रिय करने में लगे थे।
झोले वाले रिपोर्टर के लिए यह स्वर्णयुग था। चाहे दिल्ली जैसा महानगर हो, या कोई प्रादेशिक राजधानी अथवा छोटा कस्बाई शहर, इस पत्रकार को लगता था कि उसका रुतबा बुलंद है। वह पुलिस से लेकर नेता तक और इलाके के सबसे अमीर व्यक्ति से लेकर सबसे बड़े सट्टेबाज तक समान गति और आत्मविश्वास के साथ अपनी जरूरत के मुताबिक आवाजाही करने में सक्षम था। दिल्ली वाला रिपोर्टर अधिक संसाधन और बेहतर कौशल से लैस होता था। लेकिन छोटे शहर का अखबारनवीस भी खुद को संवाददाताओं, सम्पादकों और लेखक-पत्रकारों की उसी बिरादरी का सदस्य पाता था, जिसे लोकतंत्र का चौथा खम्भा मानने में किसी को हिचक नहीं थी। पिछली सदी में 80 और 90 के दशक तक इस पत्रकार के दिमाग में स्वयं को प्रेस की आजादी का वाहक मानने में कोई संदेह नहीं था। पत्रकार की हस्ती प्रेस की आजादी के मर्म में थी।
कहना न होगा कि यह जमाना सूचना-क्रांति और सोशल मीडिया से पहले का था। उस समय छपी हुई खबर प्रमुख होती थी। खबरिया चैनल और यूट्यूब चैनलों की कल्पना भी नहीं थी। पत्रकार का वक्ता होने से कई संबंध नहीं था। उसे लेखक ही होना पड़ता था। लेखक होने की प्रक्रिया में वह भाषा को साधता था, और यह प्रयास अपने आप पत्रकार को एक तरह का संयम और आत्मानुशासन प्रदान कर देता था। मीडिया का आकार उस समय छोटा था। इस दुनिया की पूंजी-सघनता भी आज जैसी नहीं थी। लेकिन, यह चरण बहुत दिन नहीं चल पाया। जैसे-जैसे पूंजी की मात्रा बढ़ी, नई प्रौद्योगिकी ने पत्रकार के लेखक होने की अनिवार्यता को मंद किया- वैसे-वैसे रिपोर्टर के महत्व का क्षय होता चला गया। आज अतीत का रिपोर्टर कमोबेश लुप्त हो चुका है। मीडिया की पूंजी-सघन और प्रौद्योगिकी-निर्भर दुनिया में लेखक-पत्रकार की खास हैसियत नहीं रह गई है। वह मौजूद तो है, लेकिन नए मीडिया की फ्रंट-डेस्क पर न होकर पृष्ठभूमि में चला गया है। उसका लिखा हुआ टेक्स्ट एंकर द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है। प्रिंट मीडिया में अभी भी अच्छे लेखकों का बोलबाला है, लेकिन वहां भी सम्पादक की संस्था अपदस्थ कर दी गई है, और प्रकाशक व प्रबंधक की संस्था ने उसका स्थान ले लिया है।
तीसरा चरण प्रेस की आजादी और सरकार के सबंधों को बदलने वाला साबित हुआ। सार्वजनिक जीवन और भारतीय राज्य की नीतियों ने बाजारवादी और दक्षिणपंथी रुझान ग्रहण करना शुरू किया। इस नई प्रवृत्ति ने पत्रकारों और मीडिया प्रतिष्ठान के संचालकों के मानस को कब्जे में लेने में कम से चालीस साल लगाए। देश में प्रेस इस समय तकनीकी रूप से आजाद है, लेकिन उसने बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद के मुक्त स्वर का प्रतिकार करने के अधिकार से स्वयं को वंचित कर लिया है। यदाकदा उभरकर चमक उठने वाले अपवादों को छोड़कर भारतीय प्रेस की आजादी का प्रचलित नियम यही बन गया है।
भारत और यूरोप
संपादकीय
यूक्रेन पर रूस के हमलों के बीच भारतीय प्रधानमंत्री की यूरोपीय देशों की यात्रा इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस हमले से यही देश सबसे अधिक प्रभावित हैं। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि ये देश यह चाहते हैं कि भारत रूस की उसी तरह निंदा करे, जिस तरह उनकी ओर से की जा रही है। उनकी इस चाहत के बाद भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यूरोप के तीन महत्वपूर्ण देशों-जर्मनी, डेनमार्क और फ्रांस की यात्रा पर जाना यह बताता है कि इन देशों के साथ भारत की समझबूझ बढ़ रही है। इसका पता इससे चलता है कि जहां बर्लिन में जर्मन चांसलर ने रूसी राष्ट्रपति से युद्ध रोकने को कहा, वहीं भारतीय प्रधानमंत्री ने भी यह कहने में संकोच नहीं किया कि इस युद्ध में किसी की भी जीत नहीं होगी। उनका यह कथन रूस को भी संदेश है। भारत इसके पहले भी कई बार यह कह चुका है कि न तो यूक्रेन की संप्रभुता का उल्लंघन होना चाहिए और न ही संयुक्त राष्ट्र चार्टर की अनदेखी। नि:संदेह रूस के रवैये को सही नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन अमेरिका और यूरोप को भी इस पर विचार करना चाहिए कि यूक्रेन को नाटो का हिस्सा बनाने की पहल ने रूस को उकसाने का काम किया।
चूंकि डेनमार्क में भारत-नार्डिक सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री की मुलाकात आइसलैंड, फिनलैंड, स्वीडन और नार्वे के शासनाध्यक्षों से भी होगी, इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि इससे न केवल भारत व यूरोपीय देशों के बीच संबंध और प्रगाढ़ होंगे, बल्कि यूरोपीय समुदाय के साथ मुक्त व्यापार समझौते की संभावना भी प्रबल होगी। भारतीय प्रधानमंत्री की यूरोप यात्र यह भी बताती है कि यूरोपीय देश इस नतीजे पर पहुंच रहे कि अपने पड़ोस में चीन के आक्रामक और अतिक्रमणकारी रवैये के चलते भारत चाहकर भी यूक्रेन संकट के मामले में उनकी जैसी भाव-भंगिमा नहीं अपना सकता। यह अच्छा हुआ कि इन देशों को अपनी इस अपेक्षा की निर्थकता का भी आभास हो गया कि भारत को अपनी ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति रूस से नहीं करनी चाहिए। ऐसा इसीलिए हुआ, क्योंकि भारत ने इस तथ्य को रेखांकित करने में देर नहीं की कि यूरोपीय देशों के मुकाबले भारत कहीं कम ऊर्जा सामग्री रूस से आयात कर रहा है। क्या यह विचित्र नहीं कि यूरोपीय देश भारत को जो उपदेश दे रहे, उस पर खुद ही अमल नहीं कर पा रहे? यदि उनकी कुछ विवशता है, तो ऐसी ही स्थिति भारत की भी है। यह अच्छा हुआ कि भारत ने यूरोपीय देशों के दोहरे मापदंड को बयान करने के साथ उन्हें यह भी याद दिलाया कि चीन के अतिक्रमणकारी रवैये को लेकर किस तरह उनके मुंह से उसके खिलाफ एक शब्द भी नहीं निकला था।
Date:03-05-22
बेरोजगारी का जिन्न
सरोज कुमार
महामारी से पहले भी बेरोजगारी चिंता का गंभीर विषय बनी हुई थी। लेकिन महामारी के दौरान बेरोजगारी का ठीकरा फोड़ने के लिए हमें एक मुकम्मल सिर मिल गया था। आज जब आर्थिक गतिविधियां पटरी पर लौट आई हैं तब बेरोजगारी के सवाल पर रोजगार के प्रबंधक सिर खुजा रहे हैं। मार्च 2022 के रोजगार के आंकड़े अर्थव्यवस्था की डरावनी तस्वीर पेश कर रहे हैं। एक तरफ नौकरियां घट रही हैं, दूसरी तरफ बेरोजगारी की दर भी और तीसरी तरफ दर-दर भटकने के बाद निराश हाल बेरोजगार घरों को लौट रहे हैं। अर्थव्यवस्था बंजर भूमि बन गई है, जहां रोजगार का अंकुर असंभव हो गया है।
मार्च 2022 में बेरोजगारी की दर नीचे आई तो आर्थिक पंडितों ने अर्थ निकाला कि अर्थव्यवस्था सुधार पर है। रोजगार के आंकड़े आते ही इस अर्थ में छिपा अनर्थ सामने आ गया। सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकोनामी (सीएमआइई) के आंकड़े बताते हैं कि मार्च 2022 में बेरोजगारी दर घट कर 7.60 फीसद पर आ गई, जो फरवरी 2022 में 8.10 फीसद थी। बेरोजगारी दर घटने से नौकरियां बढ़नी चाहिए थीं, लेकिन यहां तो चौदह लाख नौकरियां घट गईं। फिर बेरोजगारी दर घटने का क्या अर्थ? बेरोजगारी दर का सीधा अर्थ श्रम बाजार में श्रमिकों की भागीदारी से जुड़ता है। श्रम बाजार में उपलब्ध रोजगाररत और बेरोजगार श्रमिकों के औसत के आधार पर बेरोजगारी दर बनती है। यदि श्रम बाजार में श्रमिक काम मांगने नहीं जाएंगे तो बेरोजगारी दर स्वत: नीचे आ जाएगी। मार्च महीने में बेरोजगारी दर के नीचे आने की वजह यही रही।
मार्च, 2022 में श्रमिक भागीदारी दर (एलपीआर) घट कर 39.5 फीसद रह गई, जो फरवरी में 39.9 फीसद थी। यानी श्रमिक भागीदारी दर जितनी घटी, लगभग उतनी ही बेरोजगारी दर नीचे आई है। आश्चर्य की बात यह कि मार्च की श्रमिक भागीदारी दर महामारी की दूसरी लहर के दौरान की दर से भी नीचे रही, जब कई प्रतिबंधों के कारण आर्थिक गतिविधियां बुरी तरह बाधित थीं। उस दौरान (अप्रैल-जून, 2021) औसत श्रमिक भागीदारी दर चालीस फीसद थी और न्यूनतम श्रमिक भागीदारी दर भी जून में 39.6 फीसद थी। पिछले पांच सालों में 2017 से 2022 के बीच श्रमिक भागीदारी दर लगभग छह फीसद घट गई। देश में लगभग 90 करोड़ लोग नौकरी योग्य हैं। जबकि मार्च 2022 में श्रम बाजार में श्रमिकों की संख्या अड़तीस लाख घट कर बयालीस करोड़ अस्सी लाख रह गई। यानी अकेले मार्च में अड़तीस लाख लोग नौकरी की उम्मीद छोड़ घर बैठ गए। जुलाई 2021 से आठ महीने की अवधि में श्रम बाजार में श्रम बल की यह न्यूनतम संख्या है। मार्च का महीना आर्थिक गतिविधि के लिहाज से साल का सबसे व्यस्त महीना माना जाता है, ऐसे में श्रम बाजार में श्रमिक भागीदारी दर के साथ नौकरियों का घटना अर्थव्यवस्था में बड़े संकट की आहट है। जून 2018 के बाद तीन वर्षों की अवधि में श्रम बाजार में श्रमिकों की संख्या में इस तरह की गिरावट पहली घटना है।
रोजगार बाजार में जो नौकरियां बची हैं, अब जरा उन पर गौर किया जाए। मार्च, 2022 में चौदह लाख की गिरावट के बाद कुल नौकरियों की संख्या 39.6 करोड़ रह गई, जो जून, 2021 के बाद का सबसे निचला स्तर है। अगर कृषि क्षेत्र न होता तो नौकरियों का यह निचला स्तर रसातल में चला जाता। कृषि क्षेत्र की अधिकांश नौकरियां हालांकि छद्म श्रेणी में रखी जाती हैं, जिसे सरल भाषा में ‘बैठे की बेगार’ कहते हैं। माना जाता है कि जब दूसरे क्षेत्रों में नौकरियां नहीं मिलतीं, तब श्रमिक कृषि क्षेत्र में लौट जाते हैं। इसी कृषि क्षेत्र में मार्च 2022 में एक करोड़ तिरपन लाख नौकरियां बढ़ गईं, जिसके कारण दूसरे क्षेत्रों में एक करोड़ सड़सठ लाख नौकरियों के खत्म होने की काफी हद तक भरपाई हो गई। कृषि क्षेत्र ने रोजगार के आकड़े को रसातल में जाने से भले बचा लिया, लेकिन यहां कार्यरत श्रमिकों की हालत क्या है, किसी से छिपी नहीं है। खेती से किसान की रोज की कमाई मात्र सत्ताईस रुपए है।
पिछले पांच सालों में दो करोड़ से ज्यादा नौकरियां जा चुकी हैं। मार्च 2022 में जिन क्षेत्रों में नौकरियां गईं, उनमें वे क्षेत्र शामिल हैं जो सर्वाधिक नौकरियां पैदा करने के लिए जाने जाते हैं, जैसे- उद्योग, विनिर्माण, निर्माण, खनन और खुदरा क्षेत्र। मार्च, 2022 में औद्योगिक नौकरियां छिहत्तर लाख घट गईं। विनिर्माण क्षेत्र में इकतालीस लाख नौकरियां खत्म हो गईं, जिसमें ज्यादातर नौकरियां सीमेंट और धातु जैसे संगठित क्षेत्र की हैं। निर्माण क्षेत्र में उनतीस लाख और खनन क्षेत्र में ग्यारह लाख नौकरियां चली गईं। विनिर्माण क्षेत्र की सेहत बताने वाला इंडिया मैन्युफैक्चरिंग परचेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स (पीएमआइ) मार्च में घट कर 54.0 पर आ गया, जो फरवरी में 54.9 था। यह आंकड़ा फैक्टरी संबंधित गतिविधि में सितंबर 2021 से अब तक की सबसे धीमी वृद्धि को प्रदर्शित करता है। महामारी की भेंट चढ़े वित्त वर्ष 2020-21 के बाद जुलाई, 2021 को छोड़ दिया जाए, तो 2021-22 के पूरे वित्त वर्ष के दौरान विनिर्माण क्षेत्र में सुधार का रुख था। मार्च में भी यह सिलसिला जारी रहने की उम्मीद थी। पर परिस्थिति दगा दे गई। आर्थिक गतिविधियां बहाल होने के बाद निर्माण क्षेत्र में भी तेजी की उम्मीद थी। लेकिन छह करोड़ चालीस लाख नौकरियों तक पहुंच कर यह क्षेत्र भी ठिठक गया। वर्ष 2018 में यहां छह करोड़ अस्सी लाख से सात करोड़ बीस लाख लोग रोजगाररत थे। मार्च 2022 में तो निर्माण क्षेत्र में छह करोड़ बीस लाख से भी कम नौकरियां रह गईं। खुदरा क्षेत्र के लिए भी यह वक्त मायूसी भरा रहा, जहां नौकरियां घट कर छह करोड़ छप्पन लाख रह गईं। फरवरी 2022 में यहां सात करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ था।
गैर कृषि क्षेत्र में नौकरियों का जाना इन क्षेत्रों में सुस्ती का संकेत है। लेकिन यह सुस्ती चुस्ती में कैसे बदले? बड़ा सवाल यही है। अर्थव्यवस्था की चुस्ती आमजन की जेब से जुड़ी है। लोगों की जेब में पैसे होंगे तो वे खर्च करेंगे, तभी बाजार में मांग बढ़ेगी। मांग बढ़ेगी तभी नौकरियां पैदा होंगी। मुनाफा अगर बाजार का मूल सिद्धांत है, तो घाटा सह कर बाजार नौकरियां नहीं पैदा करेगा। मुनाफे का सिद्धांत महंगाई बढ़ा रहा है। यह एक खतरनाक रुझान है। देश ने वित्त वर्ष 2021-22 में चार सौ अरब डालर से अधिक मूल्य के निर्यात का इतिहास रचा। निर्यात के इस आंकड़े के अनुसार बाजार में मांग और रोजगार का टोटा नहीं होना चाहिए था। लेकिन अर्थव्यवस्था के तमाम संकेतकों से लगता है निर्यात में यह उछाल परिस्थितिजन्य प्रकृति की है, बाधित आपूर्ति श्रृंखला के बहाल होने का तात्कालिक परिणाम। यदि निर्यात की यह रफ्तार आगे बनी रहती है तो रोजगार बढ़ने की उम्मीद की जा सकती है। लेकिन अस्थिर वैश्विक आर्थिक हालात इसकी संभावना को कमतर करते हैं।
कृषि क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र संकट की हर घड़ी में लाभ-हानि की परवाह किए बगैर रक्षक की भूमिका में रहे हैं। इन दोनों क्षेत्रों को मजबूत करना समय की मांग है। 2019-20 में जहां कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर साढ़े पांच फीसद थी, वहीं गैर कृषि क्षेत्र साढ़ तीन फीसद वृद्धि दर के साथ घिसट रहा था। वित्त वर्ष 2020-21 में जब अर्थव्यवस्था 6.3 फीसद गोता लगा गई, तब भी कृषि क्षेत्र 3.3 फीसद की दर से आगे बढ़ रहा था। 2021-22 में भी अर्थव्यवस्था सिर्फ गड्ढे से बाहर ही निकली है, जबकि कृषि क्षेत्र 3.3 फीसद की दर के साथ लगातार विकास के पथ पर है। ऐसे में कम से कम कृषि क्षेत्र को एक स्वतंत्र नियंत्रणकारी स्वरूप प्रदान किया जाना चाहिए, ताकि बाजार के नियंत्रण से परे रोजगार का एक मजबूत आधार खड़ा हो सके।
Date:03-05-22
साइबर शक्ति बढ़ाने की जरूरत
प्रभात सिन्हा
रूस और यूक्रेन के बीच वर्तमान में चल रहे युद्ध में पहली बार परंपरागत युद्ध के अलावा साइबर युद्ध भी चल रहा है। वास्तव में रूस ने सैन्य हमले से पहले यूक्रेन के सरकारी और बड़े कॉर्पोरेट वेबसाइटों के खिलाफ निम्न श्रेणी के साइबर हमले शुरू कर दिए थे। साइबर सुरक्षा संस्था, चेक प्वाइंट रिसर्च के रिपोर्ट के अनुसार, 24 फरवरी से शुरू सैन्य आक्रमण के शुरुआती तीन दिनों में, यूक्रेन के सरकारी, सैन्य संस्थाओं के वेबसाइट और अन्य डिजिटल संशाधनों पर साइबर हमले फरवरी के शुरुआती दिनों के अपेक्षा 196 प्रतिशत तक बढ़ गए थे।
लगातार हो रहे साइबर हमले से परेशान होकर यूक्रेन सरकार ने भी स्वयंसेवी साइबर विशेषज्ञों के लिए ‘आई टी आर्मी ऑफ यूक्रेन’ नाम से एक टेलीग्राम ग्रुप बनाया, जिसमें अब 3 लाख से ज्यादा सदस्य जुड़कर साइबर मोर्चे पर रूस को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। प्रत्यक्ष रूप से, साइबर युद्ध भी तेजी से युद्ध के एक व्यापक माध्यम के तौर पर विकसित हो रहा है। हार्वर्ड के कैनेडी स्कूल में बेलफर सेंटर फॉर साइंस एंड इंटरनेशनल अफेयर्स की टीम के अनुसार, साइबर शक्ति समृद्ध देशों में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका अव्वल है, जबकि चीन, यूनाइटेड किंगडम, और रूस क्रमश: दूसरे तीसरे और चौथे स्थान पर हैं। विशेषज्ञों के अनुसार अमेरिका की सहायता के कारण ही यूक्रेन, रूस के साइबर आक्रमणों का ना सिर्फ डटकर मुकाबला कर पा रहा है, बल्कि यूक्रेन समर्थक साइबर विशेषज्ञ डीडीओएस हमलों से लेकर डिजिटल संपत्तियों को बाधित करने जैसे कई प्रयास भी कर रहे हैं। डिस्ट्रीब्यूटेड डिनायल ऑफ सर्विस आक्रमण, सर्वरों, नेटवकरे और अन्य संसाधनों पर जरूरत से ज्यादा इंटरनेट बोझ बढ़ाकर उन्हें निष्क्रिय बना देता है। परिणाम सिस्टम वैध अनुरोधों को संचालित करने में असमर्थ हो जाता है। रूस पूर्व में भी यूक्रेन पर साइबर आक्रमण कर चुका है, जैसे 2015 में क्रीमिया के रूसी विलय के बाद पावर ग्रिड पर होने वाले साइबर आक्रमण से कुल 2 लाख लोगों को घंटो बिजली के अभाव में बिताना पड़ा था। 2017 का नोटपेत्या साइबर हमला और भी गंभीर था। नोटपेत्या एक मालवेयर है जो उपयोगकर्ताओं को लॉकआउट करने के लिए डिवाइस में मौजूद डेटा को कूटलेखित करता है। मालवेयर किसी कंप्यूटर सिस्टम को बाधित करने, क्षति पहुंचाने या अनिधकृत उपयोग करने के लिए विकसित किया जाता है। नोटपेत्या साइबर हमले से यूक्रेन हवाई अड्डों, रेलवे और बैंकिंग व्यवस्था का परिचालन बुरी तरह प्रभावित हो गया था। यही नहीं, नोटपेत्या ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सिस्टम को भी तहस-नहस करने में कामयाबी हासिल की थी, जिससे अरबों डॉलर का नुकसान हुआ था। साइबर हमलों को दो भाग में विभाजित किया जा सकता है। पहला; प्रत्यक्ष रूप से और व्यापक अराजकता फैलाने के लिए किसी व्यक्ति, संस्था अथवा देश के ऊपर, दूसरा परोक्ष रूप से आवश्यक सेवाओं को बाधित करने के उद्देश्य से। कई परोक्ष साइबर आक्रमण का तो पता भी नहीं चल पाता, या फिर काफी देर से पता चलता है। साइबर हमले काफी घातक भी हो सकते हैं। एक गंभीर साइबर आक्रमण प्राकृतिक आपदा जैसा विनाशकारी हो सकता है, जिससे आवश्यक बुनियादी ढांचा क्षतिग्रस्त हो सकता है और आम जनजीवन को भारी असुविधा हो सकती है। प्रसिद्ध शोध संस्था फिच रेटिंग के अनुसार 2013 के बाद के साइबर हमलों में लगभग एक चौथाई का लक्ष्य सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाना रहा है, जबकि 15 प्रतिशत के करीब हमले महत्त्वपूर्ण सुविधाओं को बाधित करने के लिए होते हैं। उदाहरण के तौर पर, अप्रैल 2007 में, एस्टोनिया के ऊपर साइबर हमला हुआ था, जिसके दौरान लगभग 58 महत्त्वपूर्ण एस्टोनियाई वेबसाइटें ऑफलाइन हो गई, जिनमें सरकार, बैंक और मीडिया आउटलेट्स की वेबसाइटें शामिल थीं। उसी प्रकार 2017 में हुए रैंसमवेयर में 150 से अधिक देशों में लगभग 200,000 कंप्यूटर प्रभावित हुए थे। रैंसमवेयर एक प्रकार का दुर्भावनापूर्ण सॉफ्टवेयर होता है, जो किसी कंप्यूटर सिस्टम का उपयोग तब तक अवरुद्ध करता है जब तक कि मांगी गई राशि का भुगतान नहीं किया जाए। इस प्रकोप का कई व्यवसायों पर व्यापक प्रभाव पड़ा और कुल नुकसान की वैश्विक लागत लगभग 7.8 बिलियन डॉलर से ज्यादा पहुंच गई थी। सैन्य, आर्थिक, राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में लाभ हासिल करने के लिए सभी बड़े और विकसित देश अत्याधुनिक डिजिटल तकनीकों के माध्यम से साइबर शक्ति एकत्रित करने की होड़ में शामिल हैं।
बेहतर साइबर शक्ति होने पर जासूसी, तोड़फोड़, दुष्प्रचार से दुश्मन को बिना सैन्य कार्रवाई के भी पंगु बनाया जा सकता है, साथ ही अपने ऊपर होने वाले साइबर हमले से बेहतर बचाव भी किया जा सकता है। दुश्मन के सैन्य बुनियादी ढांचे को डिजिटल रूप से अक्षम करने की क्षमता साइबर शक्ति संपन्न देशों के प्रयासों को गतिशीलता प्रदान करती है। प्रतिद्वंद्वी खेमे के मनोबल को कमजोर करने के लिए दुष्प्रचार फैलाने की पुरानी युद्ध रणनीति को भी तकनीक से बढ़िया प्रोत्साहन मिलता है। वर्तमान अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों को देखते हुए भारत सरकार को भी साइबर शक्ति बढ़ाने के लिए जरूरी कदम उठाने होंगे।
पुलिस का दुरुपयोग दोधारी तलवार
विभूति नारायण राय, ( पूर्व आईपीएस अधिकारी )
गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवानी को पिछले दिनों जमानत देते समय बारपेटा के न्यायाधीश ने लोकतंत्र और पुलिस को लेकर जिस तरह की टिप्पणियां की हैं, वे हम सबकी आंखें खोलने के लिए पर्याप्त हैं। जिग्नेश को सबसे पहले असम के एक जिले की पुलिस ने उनके द्वारा किए गए कुछ ट्वीट्स के आधार पर गिरफ्तार किया, और जब उन्हें उसमें जमानत मिल गई, तो उन्हें हिरासत में रहते हुए ही एक महिला पुलिसकर्मी से दुर्व्यवहार के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। सत्र न्यायाधीश ने इस पूरे मामले को फर्जी करार देते हुए असम पुलिस की कार्यप्रणाली पर कठोर टिप्पणियां की हैं। उन्होंने पुलिस की अराजकता पर नियंत्रण करने का अनुरोध किया है। न्यायाधीश की यह टिप्पणी सबसे महत्वपूर्ण है कि मुश्किल से हासिल लोकतंत्र को पुलिस-राज में तब्दील नहीं होने दिया जा सकता। पिछले कुछ वर्षों में असम में पुलिस अभिरक्षा से ‘भागने’ का प्रयास करते हुए मारे जाने वाले कैदियों की संख्या में जैसी असाधारण वृद्धि हुई है, उसे देखते हुए यह टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है।
असम पुलिस का यह आचरण पुलिस में दिन-ब-दिन बढ़ते राजनीतिक हस्तक्षेप और शीर्ष पुलिस नेतृत्व द्वारा मौका मिलते ही पूरी तरह समर्पण करने की प्रवृत्ति का द्योतक है। यदि एक ऐसे विधायक को, जिसकी धाक पूरे देश में है, फर्जी मामले में फंसाया जा सकता है, तो फिर आम नागरिक के साथ क्या हो सकता है, इसकी मात्र कल्पना ही की जा सकती है। पुलिस का अपने विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल की कामना किसी एक राजनीतिक दल की बपौती नहीं है। हाल ही में पंजाब पुलिस ने भी पिलखुआ में कवि कुमार विश्वास के घर पर इसी तरह एक आभासी टिप्पणी पर दबिश दी थी। याद रहे कि असम और पंजाब में भिन्न दलों की सरकारें हैं, पर अपने विरोधियों से पुलिस के जरिये निपटने की भूख दोनों में एक जैसी ही है।
पुलिस का राजनीतिक इस्तेमाल व्यक्तिगत आजादी की सांविधानिक गारंटी को किस तरह बाधित करता है, यह असम जैसी घटनाओं से बखूबी समझा जा सकता है, पर इससे भी ज्यादा चिंताजनक सांप्रदायिक उन्माद की वे घटनाएं हैं, जो पिछले कुछ दिनों में देश के विभिन्न भागों में घटी हैं और जिनसे निपटने में असफलता के पीछे एक जैसा ही राजनीतिक हस्तक्षेप दिखता है। यह हस्तक्षेप अलग-अलग दलों की सरकारों द्वारा समय-समय पर किया जाता रहा है।
देश की आजादी के 75वें वर्ष में, जिसे हम अमृत महोत्सव के रूप में मना रहे हैं, किसे उम्मीद थी कि देश के अलग-अलग हिस्सों में नफरत के फफोले फूट पड़ेंगे और पीब के फव्वारे हमारे शरीर को उस आभा से वंचित कर देंगे, जिसके दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में हम पात्र थे। यह अनायास नहीं हुआ कि इस वर्ष रामनवमी के अवसर पर देश का एक तिहाई भाग किसी न किसी तरह की हिंसा का शिकार हुआ। इसके लिए हम पिछले काफी दिनों से तैयारी कर रहे थे। इस बीच उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में चुनाव हुए हैं, जिनमें खुलकर हिंदू-मुस्लिम कार्ड खेला गया। इन्हीं के दौरान जब परस्पर घृणा अपने उरूज पर थी, देश के कई हिस्सों में संत सम्मेलन आयोजित किए गए। इन सम्मेलनों में जैसे वक्तव्य दिए गए या हथियारों का जिस तरह से प्रदर्शन किया गया, उसमें बहुत कुछ ऐसा था, जिनकी किसी संत सम्मेलन में अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। कई धर्म संसदों और माहौल में काफी जहर घुल जाने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने रुड़की में प्रस्तावित धर्म संसद पर रोक लगा दी। जितनी आसानी से स्थानीय प्रशासन ने आयोजकों और भाग लेने वालों को अनुशासित कर दिया, उससे स्पष्ट हो गया कि केवल राज्य की इच्छा शक्ति का अभाव था, जिनके चलते पिछले धर्म संसदों में उत्तेजक भाषण हो सके। न्यायपालिका से भी जैसी सक्रियता की अपेक्षा की जा सकती है, वैसी नहीं दिखाई दी। हरिद्वार के पहले धर्म संसद के दौरान किए गए भाषणों को लेकर कई व्यक्ति और संगठन सर्वोच्च न्यायालय गए, पर किसी प्रभावी कार्यवाही के अभाव में रुड़की के प्रस्तावित कार्यक्रम के पहले कई और कार्यक्रम हुए और उनमें एक से एक बढ़कर भड़काऊ भाषण होते रहे।
जिस तरह के दंगे-फसाद पिछले दिनों हमारे यहां हुए हैं, उनसे पूरी दुनिया में हमारी छवि पर असर पड़ा है। यदि हम विश्व की एक बड़ी अर्थव्यवस्था बनना चाहते हैं, तो हमें अपना घर सुधारना होगा। कोई राष्ट्र आर्थिक महाशक्ति नहीं बन सकता, यदि वहां प्राकृतिक न्याय के सर्वमान्य सिद्धांतों का पालन नहीं होता। दुनिया में सभ्य राष्ट्र वे ही कहलाते हैं, जिनमें कानून का शासन होता है और यह कानून कायदों का पालन करने वाली पुलिस के जरिये ही संभव है। पुलिस द्वारा खुद ही न्यायाधीश की भी भूमिका हथियाने की चाहत से फर्जी एनकाउंटर का जन्म होता है। त्वरित न्याय की यह पद्धति हमारे समाज को बर्बर और असभ्य ही बनाएगी।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पुलिस राज्य का सबसे दृश्यमान अंग होती है। सांप्रदायिक हिंसा के दौरान जब कफ्र्यू लगा हो, तब तो अक्सर सन्नाटा भरी निर्जन सड़कों पर सिर्फ पुलिस भारतीय राज्य का प्रतिनिधित्व करती है। यदि वह समाज के किसी तबके का विश्वास जीतने में असफल होती है, तो इसका सीधा अर्थ यह निकलता है कि एक बड़े वर्ग का राज्य में विश्वास खत्म हो गया है। भारत एक बहुभाषी और बहुधार्मिक समाज है और इस विविधता की रक्षा में ही इसका कल्याण है। धार्मिक, जातीय या भाषिक तनाव के दौरान पुलिस के निष्पक्ष और पेशेवर आचरण से ही भारतीय राज्य की निष्पक्षता की परख होती है। दुर्भाग्य से हालिया दंगों में पुलिसकर्मी अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने का प्रयास करते से दिखते हैं।
पुलिस का अपने संकीर्ण हित में इस्तेमाल करने को व्यग्र राजनीतिज्ञों को समझना होगा कि इसका दुरुपयोग एक दोधारी तलवार की तरह है। पुलिस को गैरकानूनी आचरण के लिए प्रेरित करने वाले भूल जाते हैं कि जिस दिन वे सत्ता में नहीं होंगे, यही पुलिस उनके खिलाफ भी गैरकानूनी आचरण से नहीं झिझकेगी। दिलचस्प यह है कि जिन नेताओं ने विपक्ष में रहते हुए पुलिस की बर्बरता झेली है, वे भी सत्ता हासिल करते ही उसका दुरुपयोग करने के लिए आतुर हो जाते हैं।